बुढ़ापे की अवस्था दुश्वारियों से भरी है। हम आजादी की बात बड़े फक्र से करते हैं। बच्चों की आजादी, युवाओं की आजादी। बुढ़ापे के बारे में बिल्कुल सोचते ही नहीं। यह नहीं जानने की कोशिश करते कि हमारे बुजुर्ग किस तरह जी रहे हैं। यह जानने की कोशिश नहीं करते कि बूढ़ी हडिडयां कितना और थकेंगी। और तो और यह हमने महसूस नहीं किया कि बुढ़ापा कितना सब्र करता जा रहा है। हमने इसलिए ऐसा नहीं किया क्योंकि हम अपनी आजादी के विषय में ही डूबे हैं। उनकी फ़िक्र से लाभ क्या जिनकी जिंदगी जर्जरता में सिमटी है।
बूढ़े अपनी कहानी कहने से डरते हैं क्योंकि उनकी कोई सुनता नहीं। भला ‘बूढ़ी बातों’ को युवा क्यों सुनना चाहेंगे? युवाओं को लगता है कि उनमें सक्षमता है। उन्हें किसी के उपदेशों की जरुरत नहीं। उनके बाजुओं में इतनी ऊर्जा बहती है कि वे अपने बल देश बदलने का हौंसला रखते हैं। युवा वर्ग को नहीं अच्छा लगता जब उन्हें कोई टोके। फिर बुजुर्गों से बचने की कोशिश तो हर कोई करता है। उनकी बातें जो लोगों को पुरानी लगती हैं- पुरानी दुनिया के, पुराने ख्याल।
एक अलग दुनिया के वासी हो गये हैं दादा-दादी, नाना नानी। अकेले कोने में जगह दे दी गई है उन्हें। ‘धरती पर बोझ हैं’- ऐसा बहुत कुपुत्रों के मुख से निकलता है। उनकी पत्नियां तो बुजुर्गों को घर में न टिकने देने का वक्त लेकर आती हैं। मगर बूढ़ी आंखें धुंधली होकर भी अपनों से मोह की आस लिए हैं। उन्हें वह ताने बुरे नहीं लगते। उन्हें वह घूरती नजरें बर्दाश्त करने की आदत पड़ गयी। वे अब घुटन को खामोशी से सहन कर जाते हैं। उन्होंने आस खो दी चमकीले सवेरे की। हालात से समझौता कर अपनों के कैदखाने के जर्जर पंछी बनना उन्हें मंजूर है। उन्हें पता है उनका शरीर जबाव दे गया। वे पशोपेश में हैं कि अपनों से लड़ें या खुद से संघर्ष करें।
मामूली दुख से हम तिलमिला जाते हैं। पर बुढ़ापा तो अंतिम सांस तक जूझता है उस दर्द को जो जीवन उसे दे रहा है। आखिरी समय की त्रासदी है बुढ़ापा। वे खुशनसीब हैं जिनका ‘बुढ़ापा सुधर’ गया, लेकिन हडिडयों से चमड़ी को चिकपने से वे भी न बचा सके।
वृद्धाश्रम खुले हैं, संस्थायें चल रही हैं, पर बूढ़ों की सूनी जिंदगी में हरियाली नहीं आ रही। बुढ़ापा एक मजाक बना दिया गया है ऐसे स्थानों पर। धंधेबाज सिर्फ धंधा करना जानते हैं, चाहें सूखी हडिडयों को ही क्यों न निचोड़ा जाए। एक कैदखाने से निकलकर दूसरे में शिफ्ट करना- ऐसे हो चुके हैं वृद्धाश्रम।
किसी वृद्ध को परिवार वाले शोषित करते हैं, पड़ौस चुप है। किसी वृद्ध को प्यासा मार दिया जाता है, कोई कुछ नहीं कहता। दुत्कार, मार-पीट, जलालत और पता नहीं क्या-क्या किया जाता है बूढ़ों के साथ, सब चुप हैं। रोता है बुढ़ापा भीतर-भीतर बिना अपशब्द निकाले। हमारे बुजुर्ग इतना सहते हुए भी खामोश हैं क्योंकि वे विवश हैं।
आजादी की तलाश है हमारे बूढ़ों को। उन्हें भी खुलकर हंसने की ख्वाहिश है। वे भी चाहते हैं स्वतंत्र जीवन, लेकिन रिश्तों की बेड़ियों में बुढ़ापा जकड़ा है।
शायद हम कभी सोच सकें कि बुढ़ापा आजादी में प्राण त्यागेगा।
-harminder singh
Sunday, August 16, 2009
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
bahut hi sahi hai aapane budhapa aajadi me pran tyaagega.......atisundar............badhaee
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