बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, February 24, 2009

भगवान मेरे, क्या जमाना आया है

भगवान मेरे, क्या जमाना आया है,
चारों ओर पाप का ही कोहरा छाया है,

भूख के मारे लाखों लोग रोते हैं,
छोटे-छोटे मासूम बच्चे भी कपड़े धोते हैं,

किंतु अमीर न परवाह करते, न कुछ खोते हैं,
वे तो ए.सी. में आराम से सोते हैं,

बापू का सत्याग्रह गया कहां?
अब तो हृदयाग्रह ही चलता है यहां,

जो छोटी दुश्मनी को हत्या का रुप देते हैं,
वही लोग तो कानून के चहेते हैं,

पैसों के लालच में लोग तोते की तरह रटते हैं,
आखिर मासूम लोग ही तो फांसी के हत्थे चढ़ते हैं,

पार्टियों से निकलने का टाइम ही नहीं मिलता है,
पूजा कौन आजकल करता है,

रिश्तों का नाम जपना तो सिर्फ एक सपना है,
जिसके पास धन-दौलत वही तो अपना है,

यहां कोई इंसान नहीं सभी हैवान हैं,
न दया नाम की चीज और न ही भगवान हैं,

आखिर क्यों इंसान ने ये पैसा बनाया है?
हर तरफ पाप का ही कोहरा छाया है।

-Shubangi

Wednesday, February 18, 2009

गांव से शहर की ओर

दुनिया बदल गयी है। बहुत कुछ अब नया नहीं रहा। पुराने को अलविदा, नये को प्रणाम करो। परिवर्तन का दौर है, समय कम है, भीड़ है, भेड़-चाल भी। दौड़ है तो भागमभाग भी। शहरों की रंगीनियां हैं, गांवों में रौनक है। कहीं चकाचैंध है, कहीं चमकते लोग।

गांव से शहर पलयान की प्रवृत्ति प्रसन्न मुद्रा में अट्ठहास करती है। ऊंची-इमारतों में रोशनी की जगमगाहट देख हतप्रभ होना कोई विशेष बात नहीं। ग्रामीण जीवित जंगल से निकलकर फिर जंगल में भटक गया। उसके सामने समस्या है, वह कुछ ढूंढ रहा है। तलाश फिर अधूरी रही। जीवित तथा मृत का अंतर जानकर क्या लाभ? रुखापन जिसका अंदाजा लगाना उसके लिये कठिन कार्य है।

संभवतः वह भीड़ से दूर जाने की कल्पना करता है। यह उसके विपरीत है जब उसने विशाल भवनों के नगर में आने की कल्पना की थी। तीव्रता से उसका पाला पड़ा जो कठिन कार्य रहा। अरे, वह तो मंथर गति के लोक में सहजता से चलता आया है। वही उसके लिये आनंद है, वास्तविक रस।

यहां आकर न्यारा हो गया। ‘एक चाहरदीवारी का खेत है’-ऐसा वह कहता है। यहां का संघर्ष और वहां की दौड़-धूप समान नहीं है। फर्क इतना है कि एक में फल परिश्रम पर निर्भर नहीं। दूसरे में श्रम की बूंदें लहलहाती हैं, यह अंतर्रात्मा को तृप्त करने वाली स्थिति है। फिर क्यों आया है वह यहां?

रेत की परत पानी में बह गयी। घास की जड़ें होंती तो शायद ऐसा न होता। गांव की स्मृति मन कचोट रही है। उतावला हो रहा है। मन कहता है,‘चलो वापस। वहां सब अपना है, यहां नीरसता के नकली मानव हांकें जाते हैं।’ यह कुंठा है। मुद्राओं का स्वाद मीठा नहीं होता। महलों की रंगीनियां महज दिखावा हैं। उसने बहुत कुछ जान लिया है।

अश्रु अविरल बहने लगे। स्वप्न शीशे के टुकड़े बन गये। सारी कल्पनाओं को खंडित करने का समय आ गया। यहां के उजाले से गांव का अंधेरा लाख गुना शांत है।

एक और कल्पना की विदाई हुई। काले-गोरे का भेद स्पष्ट हो चला था। संकरी पगडंडी डामर की सड़क से अधिक व्यवस्त नहीं है और न ही क्षुब्ध। कृत्रिमता के अभाव वाले क्षेत्र के दर्शन तथा नित्य दर्शन करना अह्लाद से युक्त एक सच्चाई है। नमक के टुकड़े सिल पर पिसकर स्वाद की मात्रा बढ़ाते हैं। वह पूरा सफेद है।

नीर अधिकता से बहता है। वृक्षों पर कलरव निराला है। पुष्पों की गंध नवजीवन प्रदान कर रही है। ‘अब बस, नहीं छोड़ूंगा अपनी भूमि, अपने लोग। वहां सब मिथ्या, यहां नहीं। श्रम की पूंजी हमारी अपनी। चमक पकी फसल में है, चकाचौंध में नहीं।’ ग्रामीण अंततः ग्रामीण निकला। छप्पर उसकी छाया, विस्तर पर चैन से सोया। भोर का दृश्य आंखों को विस्मित करने वाला है।

-harminder singh

Monday, February 2, 2009

उन्मुक्त होने की चाह

बूढ़ी काकी शायद सोचती बहुत है। मैं उसके गंभीर चेहरे को बारीकी से पढ़ने की कोशिश करता हूं। मैं असमर्थ हूं और उतना अनुभव नहीं कि सिलवटों की गहराई को समझ सकूं। चेहरे पर शंका है, ऐसा भी मुझे लगता है। इसे हम वक्त का तकाजा कहें तो अधिक बेहतर रहेगा।

काकी ने मुझसे कहा,‘तुम किस शंका में हो? शायद मैं कोई रास्ता सुझा सकूं। अक्सर शंकाएं समाधान मांगती हैं। ऐसा करना चाहिये नहीं तो शंका परेशानी को और गहरा कर सकती है। यदि ऐसा हुआ तो उबरने में समय लग सकता है। यह शायद तुम जानते हो कि समय गंवाना आसान नहीं होता, क्योंकि हम एक-एक पल की कीमत चुकाते हैं।’

इतने शब्दों में काकी ने बहुत कुछ कह दिया। मैंने काकी का हाथ छूकर कहा,‘वास्तव में समय बीतता है। ये उंगलियां आराम करना चाहती हैं। चहलकदमी से ये मानो ऊब गयी लगती हैं।’

काकी का स्पर्श पाकर एक अलग एहसास हुआ। हड्डियों पर केवल जर्जर चमड़ी चिपकी थी। हथेली की रेखायें गहराई लिये थीं। नसों ने दामन नहीं छोड़ा था। ऐसा होता भी नहीं क्योंकि वे शरीर के साथ ही समाप्त होती हैं।

काकी कहती है,‘थकी हुई काया है। सबकुछ थका सा लगता है। उम्र का यह पड़ाव सरक कर चलने की आदत डाल देता है। सरकती हुई चीजें अच्छी नहीं लगतीं, लेकिन क्या करें सरकना पड़ता है। बुढ़ापे को ढोना पड़ता है।’

‘वास्तव में मैं शंका में हूं कि मेरा अंत कब आयेगा? कभी-कभी मैं घबरा सी जाती हूं। बेचैनी मानो काटने को दौड़ती है। एक अजीब सा डर है। पता नहीं मौत के बाद भी छुटकारा मिलेगा या नहीं, क्योंकि तब सोचूं क्या पता कि अब क्या? यही उलझन का दौर है, लेकिन भीतर की स्थिति शायद तुम नहीं जान सकते।’

‘इंसान दुखी इसलिये है क्योंकि वह डरा हुआ है। इस दुनिया में हर कोई भयभीत है। जिसे किसी का डर नहीं, यहां तक की भगवान का भी नहीं, वह प्रकृति से घबराता है। होता भी यही है, कुछ अनचाही घटनायें हमें एक पल में झकझोर कर रख देती हैं। सलामती की दुआएं करते रहिए, सुनवाई होगी या नहीं।’ इतना कहकर काकी थोड़े समय के लिये चुप हो गई। उसने मुझसे धीरे से कहा,‘कहीं तुम तो नहीं घबरा रहे?’

मैंने ना में सिर हिलाया। काकी हल्का सा मुस्कराई। फिर उसने कहना शुरु किया,‘तुम मुझे समझ नहीं पाओगे या कई बार मेरी बातें तुम्हें अटपटी लगें, लेकिन यह सच है कि मैं तुम्हें जीवन के वास्तविक पहलुओं से अवगत कराने की कोशिश कर रही हूं। मुझे लगता है कि तुम्हें उतनी ऊब नहीं होगी। मैं कोशिश करुंगी कि तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर अपने अनुभव के साथ दे सकूं।’

जमुहाई लेकर बूढ़ी काकी ने खिड़की की तरफ अपनी कमजोर गर्दन को आराम से घुमाया। उसकी निगाह उतनी नहीं, फिर भी उसने उड़ते पंछियों को ओझल होने तक एकटक निहारा। आसमान गहराई लिये था। काकी का कंबल शरीर को पूरी तरह तो नहीं ढक पा रहा था, लेकिन काकी को इससे किसी प्रकार की परेशानी नहीं थी।

पंछियों को देखकर बूढ़ी काकी शायद यही सोच रही थी कि वह भी इक दिन इसी तरह उन्मुक्त होगी। सब तरह के बंधनों से मुक्त होगी। यह कामना जल्द पूरी होने की आस लगाये थी काकी।

-Harminder Singh
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घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
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हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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