दुनिया बदल गयी है। बहुत कुछ अब नया नहीं रहा। पुराने को अलविदा, नये को प्रणाम करो। परिवर्तन का दौर है, समय कम है, भीड़ है, भेड़-चाल भी। दौड़ है तो भागमभाग भी। शहरों की रंगीनियां हैं, गांवों में रौनक है। कहीं चकाचैंध है, कहीं चमकते लोग।
गांव से शहर पलयान की प्रवृत्ति प्रसन्न मुद्रा में अट्ठहास करती है। ऊंची-इमारतों में रोशनी की जगमगाहट देख हतप्रभ होना कोई विशेष बात नहीं। ग्रामीण जीवित जंगल से निकलकर फिर जंगल में भटक गया। उसके सामने समस्या है, वह कुछ ढूंढ रहा है। तलाश फिर अधूरी रही। जीवित तथा मृत का अंतर जानकर क्या लाभ? रुखापन जिसका अंदाजा लगाना उसके लिये कठिन कार्य है।
संभवतः वह भीड़ से दूर जाने की कल्पना करता है। यह उसके विपरीत है जब उसने विशाल भवनों के नगर में आने की कल्पना की थी। तीव्रता से उसका पाला पड़ा जो कठिन कार्य रहा। अरे, वह तो मंथर गति के लोक में सहजता से चलता आया है। वही उसके लिये आनंद है, वास्तविक रस।
यहां आकर न्यारा हो गया। ‘एक चाहरदीवारी का खेत है’-ऐसा वह कहता है। यहां का संघर्ष और वहां की दौड़-धूप समान नहीं है। फर्क इतना है कि एक में फल परिश्रम पर निर्भर नहीं। दूसरे में श्रम की बूंदें लहलहाती हैं, यह अंतर्रात्मा को तृप्त करने वाली स्थिति है। फिर क्यों आया है वह यहां?
रेत की परत पानी में बह गयी। घास की जड़ें होंती तो शायद ऐसा न होता। गांव की स्मृति मन कचोट रही है। उतावला हो रहा है। मन कहता है,‘चलो वापस। वहां सब अपना है, यहां नीरसता के नकली मानव हांकें जाते हैं।’ यह कुंठा है। मुद्राओं का स्वाद मीठा नहीं होता। महलों की रंगीनियां महज दिखावा हैं। उसने बहुत कुछ जान लिया है।
अश्रु अविरल बहने लगे। स्वप्न शीशे के टुकड़े बन गये। सारी कल्पनाओं को खंडित करने का समय आ गया। यहां के उजाले से गांव का अंधेरा लाख गुना शांत है।
एक और कल्पना की विदाई हुई। काले-गोरे का भेद स्पष्ट हो चला था। संकरी पगडंडी डामर की सड़क से अधिक व्यवस्त नहीं है और न ही क्षुब्ध। कृत्रिमता के अभाव वाले क्षेत्र के दर्शन तथा नित्य दर्शन करना अह्लाद से युक्त एक सच्चाई है। नमक के टुकड़े सिल पर पिसकर स्वाद की मात्रा बढ़ाते हैं। वह पूरा सफेद है।
नीर अधिकता से बहता है। वृक्षों पर कलरव निराला है। पुष्पों की गंध नवजीवन प्रदान कर रही है। ‘अब बस, नहीं छोड़ूंगा अपनी भूमि, अपने लोग। वहां सब मिथ्या, यहां नहीं। श्रम की पूंजी हमारी अपनी। चमक पकी फसल में है, चकाचौंध में नहीं।’ ग्रामीण अंततः ग्रामीण निकला। छप्पर उसकी छाया, विस्तर पर चैन से सोया। भोर का दृश्य आंखों को विस्मित करने वाला है।
-harminder singh
Wednesday, February 18, 2009
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
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