बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Wednesday, February 18, 2009

गांव से शहर की ओर

दुनिया बदल गयी है। बहुत कुछ अब नया नहीं रहा। पुराने को अलविदा, नये को प्रणाम करो। परिवर्तन का दौर है, समय कम है, भीड़ है, भेड़-चाल भी। दौड़ है तो भागमभाग भी। शहरों की रंगीनियां हैं, गांवों में रौनक है। कहीं चकाचैंध है, कहीं चमकते लोग।

गांव से शहर पलयान की प्रवृत्ति प्रसन्न मुद्रा में अट्ठहास करती है। ऊंची-इमारतों में रोशनी की जगमगाहट देख हतप्रभ होना कोई विशेष बात नहीं। ग्रामीण जीवित जंगल से निकलकर फिर जंगल में भटक गया। उसके सामने समस्या है, वह कुछ ढूंढ रहा है। तलाश फिर अधूरी रही। जीवित तथा मृत का अंतर जानकर क्या लाभ? रुखापन जिसका अंदाजा लगाना उसके लिये कठिन कार्य है।

संभवतः वह भीड़ से दूर जाने की कल्पना करता है। यह उसके विपरीत है जब उसने विशाल भवनों के नगर में आने की कल्पना की थी। तीव्रता से उसका पाला पड़ा जो कठिन कार्य रहा। अरे, वह तो मंथर गति के लोक में सहजता से चलता आया है। वही उसके लिये आनंद है, वास्तविक रस।

यहां आकर न्यारा हो गया। ‘एक चाहरदीवारी का खेत है’-ऐसा वह कहता है। यहां का संघर्ष और वहां की दौड़-धूप समान नहीं है। फर्क इतना है कि एक में फल परिश्रम पर निर्भर नहीं। दूसरे में श्रम की बूंदें लहलहाती हैं, यह अंतर्रात्मा को तृप्त करने वाली स्थिति है। फिर क्यों आया है वह यहां?

रेत की परत पानी में बह गयी। घास की जड़ें होंती तो शायद ऐसा न होता। गांव की स्मृति मन कचोट रही है। उतावला हो रहा है। मन कहता है,‘चलो वापस। वहां सब अपना है, यहां नीरसता के नकली मानव हांकें जाते हैं।’ यह कुंठा है। मुद्राओं का स्वाद मीठा नहीं होता। महलों की रंगीनियां महज दिखावा हैं। उसने बहुत कुछ जान लिया है।

अश्रु अविरल बहने लगे। स्वप्न शीशे के टुकड़े बन गये। सारी कल्पनाओं को खंडित करने का समय आ गया। यहां के उजाले से गांव का अंधेरा लाख गुना शांत है।

एक और कल्पना की विदाई हुई। काले-गोरे का भेद स्पष्ट हो चला था। संकरी पगडंडी डामर की सड़क से अधिक व्यवस्त नहीं है और न ही क्षुब्ध। कृत्रिमता के अभाव वाले क्षेत्र के दर्शन तथा नित्य दर्शन करना अह्लाद से युक्त एक सच्चाई है। नमक के टुकड़े सिल पर पिसकर स्वाद की मात्रा बढ़ाते हैं। वह पूरा सफेद है।

नीर अधिकता से बहता है। वृक्षों पर कलरव निराला है। पुष्पों की गंध नवजीवन प्रदान कर रही है। ‘अब बस, नहीं छोड़ूंगा अपनी भूमि, अपने लोग। वहां सब मिथ्या, यहां नहीं। श्रम की पूंजी हमारी अपनी। चमक पकी फसल में है, चकाचौंध में नहीं।’ ग्रामीण अंततः ग्रामीण निकला। छप्पर उसकी छाया, विस्तर पर चैन से सोया। भोर का दृश्य आंखों को विस्मित करने वाला है।

-harminder singh

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दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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