जर्जर किताब के पात्र,
दुनियादारी के मयखाने के कोने में,
कुछ बुढापे में, थोडे धूल में सने हैं,
धूल की परत, पपडी बन आई है,
तो इसमें क्या बुराई है,
यह दस्तूर है, सच्चाई है.
एक बूंद की ठेस से,
परत चमक दिखा गयी,
हंसने वाले नहीं,
ये पात्र रोते हैं,
वजह क्या बतलाई है,
अक्षरों पर धुंध छायी है,
तो इसमें क्या बुराई है,
उदास मन की ओट में,
हर तरफ वीरानी जो छाई है,
छ्लकते पानी को हवा का झोंका,
रहा छीटों से नहला,
कभी इस ओर, कभी उस ओर,
तडपती रुहों की गरमाई है,
अगर सरकती नहीं टांगें,
तो इसमें क्या बुराई है,
यही बुढापा है, सच्चाई है.
हरमिन्दर सिंह द्वारा
हरमिंदर जी
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने. एक एक शब्द सच्चे मोतियों की तरह है. हम क्यों अपने बुजुर्गों का ख्याल नहीं रख सकते? क्यों उन्हें उनके हाल पर छोड़ देते हैं? क्यों ये भूल जाते हैं की कल को हमें भी इसी दौर से गुज़रना है... क्यों? मेरा एक शेर है:
बुजुर्गों का तहे दिल से जो सच में ध्यान रखते हैं
उन्ही के सर पे आके हाथ ख़ुद भगवान् रखते हैं
आप का प्रयास सराहनिये ही नहीं अनुकर्निये भी है....बहुत बहुत बधाई.
नीरज