बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, October 5, 2009

शायद कुछ गुम गया है


























वृद्ध होना एक अलग दुनिया का अहसास है। यह सच है कि तब चीजें पहले जैसी नहीं रहतीं। पूरा माहौल बदल जाता है। शरीर कमजोर होने पर अक्सर व्यक्ति की सोच में परिर्वतन आ जाता है। बूढ़े शरीर को लगता है वह कहीं खो गया है। यह संसार सूनापन समेटे है और थकी आंखें उसमें चकाचौंध को दमकते देखती हैं, लेकिन बुढ़ापे की चादर में लिपटा इंसान बार-बार तन्हाई में जीता है।

बच्चों से नाता अटूट है। अब ऐसा क्यों लगता जैसे अपने बिछड़ रहे हैं या बुढ़ापा उनसे दूर रहने को विवश कर रहा है। उनकी याद आती है बस! बूढ़ा मन कहता है,‘चलो वक्त कट जाएगा यादों के सहारे।’ यादें मटमैली ही सही, पर इतनी तसल्ली है कि कहीं तो सुकून है। उन पलों की मिठास बूढ़ी हड्डियों में अजीब सी सिहरन ला देती है। कभी खोखला मुंह खुद-ब-खुद मुस्कान बिखेरता है। कभी निराश आंखें आशा से भर जाती हैं। यह वही नेत्र हैं जिनके बूते यादें आज कैद हैं। नीर का टपकना जायज नहीं क्योंकि नमीं कब की सूख चुकी। कभी-कभी गीली जरुर हो जाती हैं पुतलियां। तब कांपती अंगुलियों का स्पर्श कुछ बूंदों को छिपा लेता है।

मस्तिष्क भी थका है। विचार आपस में लड़ते-झगड़ते जरुर हैं, लेकिन उन्हें राह दिखाने वाला कोई मालूम नहीं पड़ता। शरीर को अपना पता नहीं रहता है। इंसान को दुर्बलता का आदि होना पड़ता है। यह उसकी मजबूरी होती है। ढलकती त्वचा के खुरदरेपन का उसे ज्ञान होता है।

बूढ़े व्यक्ति खुद को असहाय समझने लगते हैं। हर वक्त अहसास होता है जैसे कुछ गुम गया है। उनकी हालत ऐसी प्रतीत होती है जैसे किसी खोयी वस्तु की उन्हें तलाश है और वे उन्हें मिल नहीं पा रही। कई नौजवान, यहां तक की उनके अपने वृद्धों को कमजोर मानसिक स्थिति के व्यक्ति की संज्ञा देते हैं। वृद्धों के हाव-भाव हम जैसे नहीं इसलिए ‘जनरेशन गैप’ की समस्या का जन्म होता है। लड़खड़ाती टांगें और कांपते हाथ गवाह हैं कि सवेरा कभी रौनक लिये था। अब दिन ढलने की तैयारी में है। उदासी कहीं कभी छिपी थी, आज सामने खड़ी है।

कई स्थितियां बदली हैं जिन्होंने बचपन से बुढ़ापे तक का सफर तय कराया। अनगिनत अनुभवों को इकट्ठा किया, अनेक बाधाओं को पार किया। कष्ट सहे, और भी बहुत कुछ सहा। इंसान बूढ़ा हुआ, अपनों ने किनारा किया। अपनों के लिए वह जिया, अपना दर्द भुलाया। मगर दुनियादारी के दस्तूर ने उसे विरानी में छोड़ दिया। बुढ़ापा हारा नहीं। उसकी जंग जारी है वक्त के साथ। बुढ़ापा कमजोर नहीं। एक बार तन कर खड़ा होने की तमन्ना है, बस एक बार।

बूढ़ी हड्डियां वक्त के थपेड़ों की चोट सहती सरक रही हैं। उन्हें मालूम है अंधेरा कभी तो छंटेगा, पर संशय है कहीं पिंजरा खाली न हो जाए। कहीं पंछी की आस इस देश न सही, उस देश पूरी हो। ख्यालों की मंडी सजा ली है। सजावटी सामान पर धूल की मोटी परतें चढ़ी हैं। मोल-भाव कैसा? ख्याल बिकते नहीं।

बुढ़ापे को तंग करने वाले भी इंसान हैं और बुढ़ापा उन्हें भी कभी ढोना है, लेकिन क्यों वे सच्चाई समझ नहीं रहे। क्यों बुढ़ापे से बचने की कोशिश में हैं हम? क्यों जवानी बुढ़ापे से मुंह सिकोड़ती है? क्यों दादा या नाना को फालतू का बोझ कहा जाता है?

जब बुढ़ापा आना ही है, तो उससे शर्म कैसी? मैंने वृद्धों की नजदीकी का अहसास कर शांति का अनुभव किया। उनसे प्रेरणा ली और ये शब्द उन्हीं की सीखों से उकेरे जा सके।

वृद्धों से हर कोई बहुत कुछ पा सकता है। हमारे बूढ़े बेकार नहीं बल्कि खजाना हैं। हम उनसे जीवन की बारीकियां सीख सकते हैं। जिन रास्तों पर चलने की हम तैयारी में हैं, वे उनपर पहले चल चुके। इसलिए अनुभव के मामले में बूढ़ों का कोई सानी नहीं। उनके पास वक्त कम है। जितना उनसे प्राप्त किया जा सके वह कम है। हमारी समझ सदा उनसे कम रहेगी चाहें जितना चतुर बनने का अभिनय करें। वृद्धजनों को ताने, अपशब्द, पीड़ा आदि की आवश्यकता नहीं, उन्हें सम्मान चाहिए। जीवन की असली कमाई बुढ़ापे की कद्र कर हासिल की जाती है। क्यों हम देर करें? आज ही और अभी वृद्धजनों की सेवा में जुट जाएं। फिर देखें हमारी दुनिया कैसी बदलती है।

-हरमिंदर सिंह
email: gajrola@gmail.com

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प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

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ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

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राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
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