किस्मत खेल करती है और उस खेल को देखा जा सकता है, भुगता जा सकता है, लेकिन वह आज तक समझा नहीं जा सका। औरों के लिये ही सब किया अपने एक ख्वाब देखा जिसका बुलबुला पता नहीं चला कब फूट गया।
मुंशी निर्मल की यादों की बस्ती को कुरेदने की कोशिशें जारी हैं। उनके पुत्र मुंशी भोला सिंह हमें उस बस्ती में ले चलते हैं जहां एक बूढ़ा बैठा है। एक टूटी चारपाई है। कुछ बुदबुदा रहा है। पता नहीं क्यों वह कुछ साफ-साफ नहीं कह पाता। यह मुंशी निर्मल सिंह हैं। वे अब इतने जर्जर और गतिशील हो गये हैं कि सब कुछ अलग-अलग सा लग रहा है। पहले उनके आसपास लोगों का जमावड़ा होता था, आज नहीं है। हालांकि आज वे भी नहीं हैं, लेकिन यादों का सिलसिला जारी है जो आगे भी शायद इसी तरह चलता रहे। मुंशी जी हमारे और आपके बीच जीते रहें।
मंशी भोला सिंह कहते हैं,‘‘उनका अंतिम समय कठिन था। उनकी मानसिक स्थिति क्षीण पड़ गयी थी। एक तरह से कहें तो झुंझलाये रहते थे। व्यवहार से एकदम रुखे हो गये थे। हर किसी को ड़ांटने लगे थे। बीच-बीच में ऐसा करते हुये वे आंखों से एक-आद आंसू भी छलका देते थे।’’
बड़ा कठिन समय था वह जब एक बूढ़ा विलाप करने की कोशिश करे और किया न जाये। वे रोते थे तो रोया नहीं जाता था, आवाज रुक गयी थी। खाते तो खाया नहीं जाता था।
उनकी गायों की हालत देखकर दुख होता था जो उनके पास एक नीम के पेड़ से बंधी थीं। वे भी अंतिम समय तक शांत रहीं।
अंतिम दिनों का कष्ट सारे जीवन के आनंद, सुख और रस को एक झटके में समाप्त कर देता है। मुंशी जी की दशा दिन-ब-दिन बिगड़ी चली गयी। चारपाई की चर-चर अब कम ही होती थी। वे लेटे-लेटे ही अखबार पढ़ते थे, गन्ने की पोरी को छीलने की आदत अभी भी उनके बुढ़ापे को संक्षय में डालती थी। रेडियो उनके पास रखे एक स्टूल पर अब भी बजता था। उनके पास बच्चे कम फटकते थे क्योंकि वे उन्हें झिड़क देते थे।
सुबह की किरण से पहले उठने की उनकी आदत जारी थी। शरीर धीरे-धीरे जबाव दे रहा था। अपनी अंतिम विदाई से एक दो दिन पूर्व वे खूब रोये, जी भर रोये। पता नहीं क्या याद किया, क्या पछतावा किया, लेकिन उनकी आवाज मानो अब रुक सी गयी थी। इशारों में कुछ कहने की कोशिश करते, कह नहीं पाते। फिर एक आसूं की बूंद उनके जर्जर हाथों पर टपक पड़ती।
‘‘इससे आगे मैं बता नहीं सकता......।’’ इतना कहकर मुंशी भोला सिंह अपने पिता को याद कर चश्मे को नीचे करते हैं। एक आंसू यहां भी गिरा। यह पिता को याद कर दूसरे बूढ़े की आंखों की नमी दर्शा गया। प्रेम और अपनेपन की झलक दे गया जो आगे के वक्त में शायद काम आये या ना आये, लेकिन यादों के झरोखे से झांकने पर हर बार महसूस की जायेगी।
हरमिन्दर सिंह द्वारा
Tuesday, June 3, 2008
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
आगे भी लिखते रहें ।
ReplyDeleteआभार,
धन्यवाद, नीरज जी,
ReplyDeleteहम निर्मल जी के बारे में और जानकारी एकत्रित कर रहे हैं। अगली पोस्टों पर उनके बारे में लिखते रहेंगे।
दिल को छू लिया इस लेख ने ।
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