बुढ़ापे की लाचारी बहुत कुछ बयां कर रही है जिसे देखकर हर किसी का मन अंदर से जरुर हिलता है। लेकिन समाज कल्याण विभाग के कर्मचारियों का स्वभाव इतना रुखा और कठोर है कि ये बेचारी वहां कई बार आंखों से आंसू निकालने को मजबूर हो जाती हैं। जमाने की ठोकरे खाने का नसीब लेकर थोड़े ही पैदा हुयी थीं?
अब इनके लिये ऐसा समय आया था जब ये आराम से अपने परिवार में दो रोटी सुख की खा सकें। लेकिन अपनों ने पराया कर दिया। दर-दर की ठोकरें खाने की जैसे अब आदत बन चुकी है।
| वृद्धों के लिये सरकार ने बहुत सी योजनायें चला रखी हैं, लेकिन भ्रष्ट अफसरों, दलालों और विचैलियों के कारण उन्हें धेला भी नहीं मिल पाता। अगर मिलता भी है तो उसमें से कमीशन काट लिया जाता है। |
समाज कल्याण विभाग के दफ्तर के बाहर हर रोज विधवाओं की कतार लगती है। उनमें अधिकतर ऐसी विधवायें हैं जो काफी वृद्ध हैं तथा गुजर बसर भी मुश्किल से कर पाती हैं। सरकार से विधवाओं के लिये पैसा आता है। समाज कल्याण विभाग से जुड़े कर्मचारी उसमें से काफी रकम डकार जाते हैं। थोड़ा बहुत पैसा इन बेबस और लाचार विधवाओं को मिल पाता है। इनकी आवाज उठाने को कोई तैयार नहीं है क्योंकि इनसे किसी को कोई लाभ नहीं होगा।
कुछ वर्ष पूर्व विधवा पेंशन के लिये गयी एक वृद्ध महिला सुरमन की मौत हो गयी थी। पेंशन के लिये कर्मचारी आना-कानी करते रहे। सुरमन ने समाज कल्याण दफ्तर के कई चक्कर लगाये। पेंशन आज नहीं मिलेगी, अभी पैसा नहीं आया, कुछ दिन बाद आना- ऐसे सैंकड़ों बहाने बनाते रहे। बेचारी इसी तरह महीने में कई दफा दफ्तर आती रही। एक दिन वह वहां से लौटकर सड़क पार कर रही थी। उसकी निगाह भी कम हो चली थी। वह अंदाजा नहीं लगा पायी और एक चलते ट्रक से टकरा गयी। ट्रक का पहिया उसके दोनों पैरों पर उतर गया। अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया।
वृद्धों के लिये सरकार ने बहुत सी योजनायें चला रखी हैं, लेकिन भ्रष्ट अफसरों, दलालों और विचैलियों के कारण उन्हें धेला भी नहीं मिल पाता। अगर मिलता भी है तो उसमें से कमीशन काट लिया जाता है।
समाज कल्याण विभाग की जिम्मेदारी होती है समाज का कल्याण करना लेकिन वह अपने कल्याण में ही अधिक व्यस्त है।
एक वृद्ध महिला ने बताया,‘‘मैं यहां कई दिन से लगातार आ रही हूं। कई दिन से कल आना कहकर मेरी जैसी विधवाओं को परेशान किया जा रहा है।’’ यह आमतौर पर होता है। विधवायें आती हैं और सरकारी कर्मचारी उनकी नहीं सुनते।
समाज कल्याण कर्मचारियों के लिये इंसानियत का शायद कोई महत्व रह नहीं गया। दया नाम की कोई चीज तो बिल्कुल नहीं।
विधवाओं के दर्द को लिखा नहीं जा सकता, करीब से कुछ हद तक जाना जा सकता है। बहुत सी वृद्ध महिलायें थक हार कर बैठ गयी हैं। अब उन्हें इस संसार से कुछ नहीं चाहिये, जितने दिन कट जायें बहुत हैं। ऊपर वाले तक जल्द पहुंचने की हसरत के साथ चुपचाप दो हाथ जोड़कर बैठी हैं।
गुरमुख सिंह द्वारा


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