बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Sunday, July 26, 2009

रिश्तों की उलझन


रिश्ते इंसान को तोड़ते भी हैं और जोड़ते भी हैं। मैं आज खुश नहीं हूं क्योंकि मेरी पत्नि, बच्चे हैं। एक जुड़ाव–सा है उनके साथ। ना संबंध होते, न दुख होता और न याद होती। तड़प के साथ क्षोभ जुड़ा होता है जिसका अनुभव आज मैं कर रहा हूं। हर इंसान की ख्वाहिश होती है कि वह खुलकर जिये और इतना जिये कि जिंदगी कम पड़ जाए। ऐसा होता है, मगर उलझनों के साथ जुड़े वक्त को समेटना उतना आसान नहीं। कमजोर, और कमजोर बनाते हैं रिश्ते। यह अकेलेपन का अहसास कर मुझे पता लगा। सूनापन किसी कोने में थका–मांदा, चेहरा लटकाये पूछ रहा है कि महाशय को क्या हुआ? सन्नाटा क्यों पसरा है बिना मतलब का?

मैं किसी से प्यार नहीं करता। प्रेम शब्द मेरे लिए कोई अर्थवाला नहीं रह गया क्योंकि मैंने सच्चाई जान ली है। ऐसे लोगों से मुझे घृणा हो रही है जो संबंधों के दायरे में जीते हैं। मूर्ख हैं वे लोग और उनके वादे। असमंजस में मैं भी हूं, लेकिन हकीकत से उनका सामना अभी हुआ नहीं है। मेरा अपना मत जरुर है पर पशोपेश आड़े आ रहा है। आखिर मतलब क्या रह जाता है उलझन का। सुलझ चुके विचारों को फिर से उलझाने की कोशिश स्वत: ही होती जा रही है। धुंध छंटने देने की कल्पना मन में की है। कोहरा घना हो तब भी कल्पनाएं विचरती हैं। यहां ऐसा ही कुछ हो रहा है।

रिश्तों की डोर टूटने को बेताब है। मुझे यकीन हो चला है कि इन्होंने मुझे कमजोर किया है। समय दर समय मेरी टांग पकड़ कर खींची है। हां, मुझे गिरने नहीं दिया, संभाला भी है। तो गिरने से बचाते हैं रिश्ते। नहीं, नहीं, मैं अपना ध्यान बंटा रहा हूं। मैं ऐसी माला नहीं पहन सकता जिसकी डोर कमजोर हो, कभी भी टूट कर बिखर जाए। यह अनोखा कार्य नहीं कि इंसान किसी न किसी से जुड़ता है। जुड़ाव जीवन का हिस्सा है, भाव इसके साथी हैं। लेकिन अकेला चलने में क्या बुराई है। शायद कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं।

ऐसे संबंधों का लाभ भी हो जो कभी टूटे नहीं। पर ऐसा होता नहीं। रिश्ते दुखी भी करते हैं और हृदय को विचलित भी। मैं अब आदत डाल चुका कि मेरा कोई अपना नहीं, सगा नहीं। अकेला हूं, मैं, बस मैं ही हूं। बच्चों को भूलने की दृढ़ इच्छा मुझे अधिक व्याकुलता में नहीं डालती। समय तो बदलेगा– किसी को इतनी आसानी से थोड़े ही भूला जा सकता है। यदि कोई कलेजे का टुकड़ा हो, जिसपर आप स्वयं को न्यौछावर कर सकते हों, संसार का सबसे प्यारा हो, उसे स्मरण में न फटकने देना बहुत मुश्किल काम है। हम ऐसा कम ही कर पाते हैं। हर काम सरल भी तो नहीं।

मेरी बिटिया बड़ी प्यारी थी। उसका चेहरा किस तरह भूलूं। अभी रिश्तों की माला को बिखेर रहा था, अचानक जोड़ने की बात करने लगा। यहीं आकर इंसान हार जाता है, कमजोर हो जाता है। सच है कि रिश्ते इंसान को बेबस कर देते हैं। वाकई बेबस से भी बेबस हो गया हूं मैं। मेरी नियति है वियोग के आंसू पीना, सो पी रहा हूं। मेरी नियति है चैन से नहीं जीना, जो नहीं जी रहा हूं। दीवारों को अपना मानता हूं, पर वे कुछ बोलती नहीं।

लाजो मेरी पत्नि जिससे मैंने सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा किया था। ऐसा ही कुछ उसने भी कहा था। हमारा बंधन प्यारा था और अटूट भी। मुझे कभी एहसास नहीं हुआ कि दूरियां इतनी दुश्वारियां लाती हैं। आज जब सब मेरी आंखों के सामने बिखर रहा है तो मैं रो रहा हूं। मेरा हृदय करुणा से भर उठता है। वियोग का दर्द खुद को कचोटता है कि व्यक्ति की दशा किसी मृत के समान हो जाती है। बहुत पीड़ादायक है यह समय, लेकिन इसका मंथर गति से चलना कष्टों को और बढ़ा रहा है। लाजो ने मुझसे कहा था कि बच्चे मुझे भूल नहीं पाये हैं। तब मैं फूट–फूट कर रोया था। हमारे बीच सलाखों की दीवार थी। उसने मेरे हाथों को जकड़ लिया और अपने माथे से लगाकर कहने लगी,‘यह सब क्यों हो रहा है? ईश्वर तरस नहीं खाता क्या? हम गरीबों की कोई सुनता कहां है?’

ठीक कह रही थी वह। गरीब होना संसार का सबसे बड़ा अपराध है। कहां नहीं गई वह, सारा खेल पैसों का है। पुलिसवालों ने उसे दुत्कार लगाई। काफी कुछ सहना पड़ा उसे। वह दिल की अच्छी है। पर बहुत समय से वह मुझे मिलने क्यों नहीं आई? शंका होती है मुझे..........कहीं कुछ ऐसा–वैसा.........नहीं.............नहीं। भला ऐसा कैसे हो सकता है? मेरा मन नहीं मानता। समय पुराना हुआ तो क्या हुआ, मेरा लगाव उतना ही है।
-जारी है........

-harminder singh

एक कैदी की डायरी -1

2 comments:

  1. दिल को छू लेनेवाली अभिव्‍यक्ति .. इंतजार रहेगा !!

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  2. ek aisi wyathaa jisame maanw jiwan ki ulajhane hai our ek akela man use sulajhaata huaa dikha raha ......par uljhan to suljhi nahi dikhati par wah aapane atit me our ulajhata huaa dikhata hai .......yahi manawa jiwan ka sach hai ...

    ReplyDelete

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coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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