बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, June 8, 2010

फंदे में बंदर


गांव के प्राइमरी स्कूल में एक मास्टर साहब छुटिट्यों में बच्चों को पढ़ाते थे। लोग उन्हें दलपत मास्टर के नाम से पुकारते थे। उनका स्वभाव दूसरे शिक्षकों की तरह बिल्कुल नहीं था। उन्होंने आजतक किसी बच्चे पर हाथ नहीं उठाया था। गांव के सभी बच्चे और बड़े उनका बहुत सम्मान करते थे। दादी ने मुझसे कहा कि मैं जितने दिन गांव में हूं, उतने दिन उनसे कुछ पढ़ लूं। मैंने रघु से पूछा, उसने हां कर दिया।

  मास्टर जी से मेरी काफी पटने लगी। रघु की बहन गीता भी किताबें लेकर वहां पहुंच जाती।

एक दिन बादल घिर आये और तेज बारिश शुरु हो गयी। मैंने रघु से कहा,‘‘शायद आज मास्टर जी स्कूल न पहुंचें। इसलिए हम आज पढ़ने नहीं जा रहे।’’

  मास्टर जी के पास एक पुरानी साईकिल थी जिससे वे स्कूल आते थें कच्चे रास्ते थे, बरसात में टूट-फूट जाते और उनमें पानी भर जाता, कीचड़ हो जाता।

  रघु कहां मानने वाला था। वह बोला,‘‘मैं स्कूल जा रहा हूं। तुम्हें आना है तो आओ।’’ उसने छाता सिर पर किया और चलने को हुआ। मुझे भी उसके साथ चलना पड़ा। वह गाना-गुनगुनाता आगे बढ़ रहा था। किताबों को हमने पोलीथिन की थैली में रखा था ताकि पानी उन्हें नुक्सान न पहुंचा सके।

  गाना पुरानी फिल्म का था। मैं भी उसके साथ शुरु हो गया। बोल थे,‘‘सुहाना सफर और ये मौसम..........।’’

  तभी रघु ने मेरे कान में कहा,‘‘सामने देख।’’

  हम रुक गये। बरसात तेज होने लगी थी। पानी घुटनों तक आने को आतुर था।

  सामने जो नजारा था, उसे देखकर हमारी आंखें खुली रह गयीं।

  मैंने कहा,‘‘अरे! ये तो मास्टर दलपत हैं। इन्हें क्या हुआ?’’

  मास्टर साहब कीचड़ में साइकिल सहित गिरे थे। उनका चश्मा दूर जाकर गिरा। बिना चश्मे के उन्हें चमकता नहीं था। वे उसे तलाश कर रहे थे। हम दौड़कर उनके पास पहुंचे और चश्मा उन्हें पकड़ा दिया। चश्मा लगाकर उन्होंने ऊपर देखा और कहा,‘‘तुम इतनी बरसात में भी पढ़ने आये हो।’’

  ‘‘जब आप हमें पढ़ाने के लिए अपनी परवाह नहीं करते। हम आपके शिष्य ठहरे।’’ रघु बोला।

  दलपत जी हमारे संग स्कूल आ गये। इतने में बारिश थम गयी। हमने उनके कपड़े हैंडपंप पर धुलवा दिये। मैं घर जाकर कुछ कपड़े ले आया। मास्टर जी ने उन्हें पहन लिया।

  सूरज चमकने लगा था। कपड़े धूप में सूख रहे थे कि तभी एक बंदर वहां कहीं से आ गया। मुझे डर था कहीं वह कपड़ों को उठा न ले जाए। हुआ वही जिसका डर था। बंदर कपड़े उठाकर ले गया। वह उछलकर शहतूत के पेड़ पर चढ़ गया। रघु ने काफी कोशिश की, लेकिन वह नहीं उतरा। उल्टे गुस्से में उसने मास्टर जी के कपड़े अपने पैने दांतों से फाड़ने शुरु कर दिए। मास्टर जी चिल्लाते रह गए, पर बंदर पर कुछ असर न हुआ। धीरे-धीरे कपड़ों के फटे टुकड़े नीचे गिरते रहे।

  इतने में प्रीतम किताबें लेकर पढ़ने आ गया। उसके पास गुलेल थी। रघु ने उससे घर जाकर गुलेल लाने को कहा। बंदर अभी तक पेड़ पर चढ़ा था। मुझे गुस्सा आ रहा था। मैंने रघु से कहा,‘‘इसे छोड़ना मत रघु। इस पेड़ से बाकी पेड़ बहुत दूरी पर हैं। बंदर उतनी लंबी छलांग लगा नहीं सकता और नीचे हम खड़े हैं, आ नहीं सकता। फंस गया बच्चू, इसकी खैर नहीं।’’ मैं पूरे ताव में आ चुका था।

  जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली। प्रीतम अभी आया नहीं था। रघु ने रस्सी का एक फंदा बना लिया। वह बिना डरे पेड़ पर चढ़ गया। फंदा उसके हाथ में था। बंदर उसे घुड़की देकर नीचे गिराने की जुगत में था। पर रघु ने पेड़ से एक टहनी तोड़ उसे डराना चाहा। वह उछलकर ऊपर शाखाओं की तरफ कूदा। तभी प्रीतम गुलेल ले आया। रघु बोला,‘‘अभी इसकी जरुरत नहीं है। देखते जाओ मैं क्या करता हूं।’’

  रघु ने रस्सी का फंदा ऊपर शाखाओं में उछाला। फंदा टहनियों में उलझ गया। रघु ने फिर कोशिश की। बंदर जैसे ही फंदे से बचने को उछला उसका एक पैर फंदे में फंस गया। रघु ने रस्सी को खींचा, तो फंदा पैर में कसता चला गया। रस्सी को नीचे गिरा दिया गया और रघु पेड़ से उतर गया।

  फिर रघु बोला,‘‘अब होगा कमाल। बंदर होगा बेहाल।’’

  रस्सी काफी लंबी थी इसलिए उसका छोर हैंडपंप से बांध दिया गया। रघु ने सबको छिपने को कहा। किसी को आसपास न पाकर बंदर पेड़ से उतर गया। पर यह क्या फंदा उसके पैर में था। वह जितना जोर लगाता, फंदा कसता जाता। चूंकि रस्सी हैंडपंप से बंधी थी, इस कारण बंदर उसके चारों ओर गोल-गोल चक्कर काटने लगा। उधर रस्सी हैंडपंप से लिपटती जा रही थी और बंदर उसके करीब आता जा रहा था। हम सब उस दृश्य को देखकर ठाठे मार हंस रहे थे।

  रघु ने प्रीतम से कहा,‘‘ला गुलेल। खेल शुरु करते हैं।’’

  रघु ने गुलेल से बंदर पर निशाना लगाना शुरु किया। जैसे ही गुलेल का कंकड़ बंदर को लगता, वह उछल जाता।

  ‘‘मार निशाना।’’ मैंने कहा। ‘‘ये भी क्या याद करेगा।’’

  ‘‘जिंदगी भर इसे यह सजा याद रहेगी, भूल नहीं पायेगा।’’ प्रीतम उत्साहित होकर बोला।

  बंदर पर गुलेल से चोटों का प्रहार जारी था। इस घटना से बंदर-बुद्धि का पता चल गया था। उसने अपने हाथों से बिल्कुल कोशिश नहीं कि फंदे को जरा-सा भी खोलने की। सिर्फ पैर से उसे खींच कर कसता रहा।

  इस उछलकूद का आनंद ले ही रहे थे कि तीन बंदर वहां आ धमके। वे साथी बंदर के आसपास शोर करने लगे। तभी बंदरों का समूह आ गया। मास्टर जी शायद स्थिति को भांप गये थे। वे हमें लेकर स्कूल की कक्षा में छिप गये।  दरवाजा अंदर से लगाकर हम खिड़की से सारा दृश्य देखने लगे। बंदर रस्सी को खींचने की कोशिश करते, कुछ उछलकर चीख मचाते।

  मैंने खिड़की से बाहर हाथ निकाल रखा था कि अचानक कहीं से मेरा हाथ किसी ने जोर से खींचा। मेरी चीख निकल गयी। सामने एक मोटा बंदर था जिसकी शक्ल देखकर मेरे प्राण निकल गये। वह मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा जैसे मुझसे रस्सी खोलने को कह रहा हो। तभी रघु ने गुलेल से उसके सिर पर निशाना मारा। बंदर ने मेरा हाथ छोड़ दिया और वह चीं-चीं करता भाग गया। मैंने चैन की सांस ली।

  करीब एक घंटा बीत जाने के बाद सभी बंदर अपने बंधे साथी को छोड़कर वहां से चले गये। मास्टर जी ने कहा,‘‘बहुत हो चुका। बेचारा काफी दुखी है। रघु जाओ उसे खोल दो।’’

  रघु ने बंदर को आजाद कर दिया। रस्सी से खुलते ही वह सरपट दौड़ा।

  गांव में जब यह बात पता लगी तो सभी हंसते-हंसते लोटपोट हो गए। गीता तो कुरसी से पीछे पलट गयी। उसकी बांह में फिर मोच आ गयी, लेकिन अबकी बार मामूली थी।


-harminder singh

-अगले कहानी: चाय में मक्खी

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कैदी की डायरी......................
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>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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