पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।
अश्रु नीर बह गये,
निर्झर धार जैसे बहे,
पीर घनेरी है मन में,
मन कुंठित सहे,
हृदय आवेग, क्षोभ स्फुटित है,
मन की शंका क्या कहे,
विवाद याद हैं ही,
स्मरण ज्वाला बन रहे,
भुलाता तो मन नहीं,
समर जो मन में बहे।
पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।
पतझड़ अब हो गया,
ठूंठ क्यों बचा रहे,
अग्नि में जल जाए,
जब पात ही न रहे,
शांति क्षुब्ध हो गयी,
अशांत सागर ही बहे,
भ्रमित स्वप्न जीवन का,
देख-देख जी रहे,
कटोरा अमृत का समझ,
लहू घूंट पी रहे।
पीड़ा है मन की,
मन में ही रहे,
जख्म गहरें हैं,
नासूर बन रहे।
-harminder singh
Sunday, August 9, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
|
हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
|
|
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
|
|
|
अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
No comments:
Post a Comment