बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, January 30, 2010

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है



मैं अकेला हूं, सूनसान हूं, वीरान हूं। यह मुझे मालूम है कि मेरा जीवन बीत चुका। कुछ सांसें शेष हैं- कब रुक जाएं क्या पता?

मैंने हर रंग को छूकर देखा है, चाहें वह कितना उजला, चाहें वह धुंधला हो। उन्हें सिमेटा, जितना मुटठी में भर सका, उतना किया। रंग छिटके भी और उनका अनुभव जीवन में बदलाव लाता रहा। मैं बदलता रहा, माहौल बदलता रहा, लोग भी।

चश्मे में मामूली खरोंच आयी। दिखता अब भी है, मगर उतना साफ नहीं। सुनाई उतना साफ नहीं देता। लोग कहते हैं,‘‘बूढ़ा ऊंचा सुनता है।’’ लोग पता नहीं क्या-क्या कहते हैं।

जब जवानी में फिक्र नहीं की, फिर बुढ़ापे में शर्म कैसी?

कुछ लोग यह कहते सुने हैं,‘‘बूढ़ा पागल है।’

हां, बुढ़ापा पागल होता है, बाकि सब समझदार हैं।

जवानों की जमात में ‘कमजोर’ कहे जाने वाले इंसानों का क्या काम? सदा जमाने ने हमसे किनारा किया। हमें बेगाना किया। इसमें अपनों की भूमिका ज्यादा रही।

इतना कुछ घट चुका, इतना कुछ बीत चुका। पर लगता नहीं कि इतनी जल्दी इतना घट गया। जीवन वाकई एक सपने की तरह है। थोड़े समय पहले हम नींद में थे, अब जाग गये। शायद आखिरी नींद लेने के लिए। चैन की अंतिम यात्रा हमारे लिए शुभ हो।

मैं बिल्कुल टूटा नहीं। यह लड़ाई खुद से है जिसे मुझे लड़ना है। समर्पण नहीं करुंगा। संघर्ष मैंने जीवन से सीखा है।

विपत्तियों को धूल की तरह उड़ाता हुआ चलना चाहता हूं। हारना नहीं चाहता मैं। बिल्कुल नहीं। वैसे भी हारने के लिए मेरे पास बचा ही क्या है? इतना कुछ गंवा चुका, बस चाह है मोक्ष पाने की। चाह है फिर से न लौट कर आने की।

बुढ़ापा चाहता है छुटकारा, बहुत सह चुका, बस आराम की चाह है।

-harminder singh

photo: mohit

Friday, January 29, 2010

दर्द बहता है



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सादाब का चेहरा क्रोध से भर गया। दिल के जख्मों को फिर से कुरेदने पर दर्द बहुत होता है। उसकी चीखें गहरी बहुत होती हैं। इतनी गहरी कि पूरा शरीर थर्रा उठता है। सादाब ने अपने माथे को दोनों हाथों से पकड़ लिया और चेहरा नीचे झुका दिया। उसके घाव हरे हो गये थे।

वह चेहरे पर अजीब भाव लिये था। उसके आंसू तेजी से बहने लगे थे। अब वह रो रहा था। मैंने उसे सांत्वना देनी चाही, लेकिन उसने मेरा हाथ पीछे कर दिया। आंखें झुकी थीं, पलकें भीग चुकी थीं और उसके सुबकने की हल्की आवाज आती थी। कमीज की आस्तीन से वह बार-बार बहते पानी को पोंछता जाता। कमीज का वह हिस्सा काफी गीला हो चुका था। उसके चेहरे के साथ-साथ उसकी आंखें लाल हो गयी थीं। उसका दर्द बह कर बाहर बिखर गया था।

भगवान ने आंसू इसलिए ही बनाएं हैं ताकि हम अंदर-अंदर घुटे नहीं, ज्यादा व्यथा होने पर पिघलकर बाहर आ जाए। ईश्वर का शुक्रिया इसके लिए भी करना चाहिए। भारी मन को हल्का आंसुओं का बहना कर सकता है। पर उनका क्या जिनकी आंखों में नमीं ही न बची हो?

अंदर से तो मैं भी घुट रहा हूं। आंतरिक पीड़ा के ऐसे कितने अवसर आए होंगे जब मैं फूट-फूट कर रोया हूं। मानता हूं आंसू पीड़ा को क्षीण बिल्कुल नहीं करते, कम जरुर कर देते हैं। लेकिन बात तब हो जब पीड़ा खत्म ही हो जाए।

दुख के खात्मे के बाद सुख का कोई मतलब नहीं रहेगा। जहां सुख है, वहां दुख है। ये दोनों एक दूसरे के विपरीत होते हुए भी मिलकर चलते हैं। अंधेरा और उजाला एक दूसरे के बिना महत्वहीन हैं। उजाले की मुस्कराहट अंधकार को सिमटने पर विवश करती है।

मैं एक आम इंसान हूं जो सुख-दुख के पाटों के बीच पिस रहा है। खैर, जिंदगी में सुख क्षत-विक्षित हो गायब हो गया है। अब चारों और गिद्धों सी उदासी मंडराती है। मैं चुपचाप उसे देखता रहता हूं और कर भी क्या सकता हूं?

इंसान कमजोर होने पर दुबला लगने लगता है। उसकी ताकत कम होने लगती है। जब कष्टों का सैलाब भावनाओं से मिलकर बनता है तो शरीर की स्थिति अलग हो जाती है। बातों में वह ताजगी और रोचकता नहीं रह जाती। विचारों की मौत का सिलसिला शुरु होने लगता है। प्रारंभ में काफी उथलपुथल का दौर रहता है। मध्य में हालात बिगड़ जाते हैं और बाद में विचार शून्य समान हो जाते हैं।

--to be continued


-harminder singh

Wednesday, January 27, 2010

रामकली जी

एक साधारण दिखने वाली वृद्धा जिसे अपने बच्चों की बड़ी फिक्र है, जब अपनी बेटी से अरसे बाद मिली तो उसकी आंखें भर आयीं। ढलती उम्र में भी पूरे जस्बे के साथ जीने वाली रामकली जी बहते प्रेम को न रोक सकीं। बातें हुईं, कल की, आज की और आजकल की।

रामकली जी स्वभाव से सीधी हैं। उनका व्यवहार हर किसी को प्रभावित कर सकता है। कम बोलती हैं, मगर शब्द मायने वाले होते हैं। घर का काम करती हैं और दिन भर काम में लगी रहती हैं। बहुओं से ज्यादा साफ-सफाई रखने में गांव वाले उन्हें जानते हैं। उनका कहना है,‘खाली रहकर जीवन भी क्या जीना। काम करना ही तो ध्येय है। हमारे जैसे बूढ़े चलते-फिरते रहेंगे तो ध्यान बंटा रहता है। बुढ़ापा बोझ नहीं लगता, न खुद को, न बच्चों को।’

उनकी बेटी जब सब्जी काटने लगी, उन्होंने कहा कि ला बेटी मैं हाथ बंटा दूं। संयोग से उसी समय मैं वहां पहुंचा। उनसे काफी देर तक बातें होती रहीं। उन्होंने आलू छीलते हुए कहा,‘जीवन की परतें धीरे-धीरे बुढ़ापे तक खुलने लगती हैं। मेरे जैसी वृद्धा तुम्हारे जैसे लोगों को अनुभव जरुर करा सकती हैं ताकि तुम्हारा मार्गदर्शन हो सके। सच तो यह है कि हमारे पास अब कुछ बचा कहां है, सिवाय सीखों, उपदेशों के।’

तब मैं बोला,‘अम्मा जी, यही तो काम की चीज है।’

रामकली जी ने ढेरों बातों का पिटारा खोल दिया। बताती चली गयीं बहुत कुछ, धीरे-धीरे, हौले-हौले। उनकी बेटी ने शाम का भोजन तैयार कर लिया था। मुझसे भोजन का आग्रह किया गया। मैंने केवल एक कप प्याला चाय पी।

-harminder singh

Tuesday, January 26, 2010

करीब हैं, पर दूर हैं

हमें क्या हो जाता है? हम नहीं जानते। हमें मालूम नहीं होता कि हम करने क्या जा रहे हैं। आज उदासी को फिर मैंने करीब से छुआ। आज फिर से कुछ टूटा।

  मुझे लगता है, जैसे पहले जैसा कुछ रहा नहीं। शायद धीरे-धीरे बिखरता जा रहा है कुछ।

  इंसानों के चेहरे कभी तो हमें बहुत अच्छे लगते हैं। और कभी-कभी हम उनसे दूर जाने की कोशिश करते हैं। शायद इसलिए कि दूर रहकर कुछ सुकून मिल जाए, लेकिन मैं हर बार वहीं लौट आता हूं।

  मेरी समझ में नहीं आता कि हम इतनी जल्दी गुस्सा क्यों कर जाते हैं? मेरी समझ में यह भी नहीं आता कि हम इतनी जल्द रो क्यों जाते हैं? आंसू बहाते हैं, गुस्सा करते हैं, लेकिन फिर भी करीब रहते हैं।

  जो लोग कभी हमारे लिए ‘स्पेशल’ रहे हों, हम आज ऐसे हो गये कि उनसे बात करने का मन नहीं करता। ऐसा क्या हो गया कि हम उनसे दूरी बनाते जा रहे हैं। शायद इसे समझने में वक्त लगे।

  मैं नहीं समझता कि इससे कुछ लाभ हो। तो चुप रहने में ही भलाई है।

  अगर हम उन्हें खुश नहीं रख सकते तो दुख क्यों दें।
  विचारों का मेल कितना जरुरी है, यह मैं जान गया। इसमें उम्र का कोई मतलब नहीं रह जाता। कभी हम बात इस तरह करते हैं जैसे वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों। और कभी ऐसे हो जाते हैं कि सदियां रुखेपन में बीत गयीं।

  मैंने खुद को कह दिया कि जब हम एक-दूसरे को समझ नहीं पा रहे तो दूर जाने में ही फायदा है। लेकिन मन ही फिर रुकने को कह देता है। मैं विवश हूं, रुक जाता हूं।

  दो समानांतर रेखाएं उतनी दूरी पर ही रहती हैं। वे कभी मिल नहीं पातीं। हां, एक-दूसरे की करीबी का एहसास जरुर उन्हें रहता है, लेकिन कह नहीं पातीं।

-harminder singh

Monday, January 25, 2010

क्योंकि सपने हम भी देखते हैं

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‘‘कुछ लोग ऐसे हैं जिनके सपने ढेरों हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो सपने नहीं देखते। उन्होंने एक अपनी अलग दुनिया बसा ली है, जिसमें सिर्फ वे ही रहते हैं। उनकी आंखें खोई हैं, शायद कुछ खो गया है कहीं। शायद कुछ तलाशती होंगी। लेकिन उनके मुस्कराने पर हंसती भी हैं उनकी आंखें। एक मामूली मुस्कराहट उनके चेहरों को रौनक कर देती है। बस इतनी छोटी है उनकी दुनिया।’’ काकी किसी सोच में पड़ गयी।

  ‘‘सपनों की दुनिया निराली है। अलग एहसास जो हमेशा अद्भुत और नया है।’’ मैंने काकी की आंखों में देखकर कहा।

  बूढ़ी काकी बोली,‘‘हां, कुछ वैसा ही।’’

  उसने आगे कहा,‘‘मेरी एक सखा हल्की-फुल्की, सरल थी। वह जितनी जल्दी खुश होती, आंखों को गीला भी उतनी तेजी से कर लेती। चुप रहती थी वह। बड़ी प्यारी थी वह, बिल्कुल गुड़िया जैसी। पढ़ती ठीक थी और व्यवहार में अपनापन झलकाती थी। पर वह सपने नहीं देखती थी। वह कहती कि उसे सपने आते ही नहीं। हमें उसपर हंसी आती। उसके चेहरे को आसानी से पढ़ा जा सकता था। सब कुछ तो लिखा था वहां। लिखावट शब्दों की तो होती ही है, लेकिन भावों की कतरनें सिमट कर माहौल को अलग अंदाज में बयां करती हैं।’’

  बूढ़ी काकी ने कहा,‘‘उस सखा की दुनिया उसके आसपास सिमटी थी। वह शायद भzम में होगी या कुछ और, लेकिन वह खुश लगती जरुर थी, पर कहीं न कहीं टूट-फूट थी। उसका मन भी उड़ने का करता था। पंख चाहती थी वह भी। जाने क्या सोचकर रुक जाती थी। कदमों को तेजी से बढ़ाकर उसने कई बार रोका। नींद में होती नहीं थी, फिर भी नींद से जग जाती थी वह। चंचल होती कभी, खूब इठलाती। मैं सोच में पड़ जाती कि अपनी दुनिया में उसने कितने रंगों को सिमेट रखा है। शायद खुश है वह वहीं, लेकिन डर है कहीं किसी बात का। कुछ कहना चाहती है, मन में बात रह जाती है।’’

  ‘‘क्यों कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इतने में ही खुश हैं। क्यों कुछ लोग अपनी जिंदगी में नयापन नहीं लाना चाहते। क्यों कुछ लोग उसी जिंदगी में खुश हैं। शायद यही सोच कर कि यही बहुत कुछ है उनके लिए। यहीं सारा संसार तो बसता है, फिर क्यों फड़फड़ायें।’’

  ‘‘हर कोई उसे प्यार करता था, मैं भी। हम सब उसे सदा चहकता देखना चाहते। जब वह मायूस होती तो उसका चेहरा गवाह होता। वह अपने चेहरे को सिकोड़ कर अजीब बना लेती। लेकिन तब भी वह उतनी ही सुन्दर लगती। मैं पूरी कोशिश में रहती कि वह मायूसी भूल जाए। उसे हंसाने की कोशिश करती। हम दूसरों की खुशी के लिए खुद को भूल जाते हैं। हम केवल चाहते हैं कि वे खुश रहें सदा।’’

  मैं सोच में पड़ गया कि कुछ लोग दूसरों से कितना प्रेम करने लगते हैं कि उनकी खुशी ढूंढ़ने के लिये खुद को भूल जाते हैं। शायद ऐसा कम लोग ही करते हैं क्योंकि इतना जुड़ाव कम ही लोग रखते हैं।

  सपनों की दुनिया वे ही बसाते हैं जिनकी जिंदगी उन्हें सपने दिखाती है। जब सपने छंटते हें तो अजीब लगता है। काकी अपनी सखा को नहीं भूली क्योंकि वह उसके हृदय में बस गयी। कुछ लोग हमसे अलग दुनिया के लगते जरुर हैं, लेकिन होते नहीं। हम उन्हें हमेशा अपने पास रखने की ख्वाहिश करते हैं। उम्मीद सदा रहती है क्योंकि सपने हम भी देखते हैं। 

-harminder singh

Saturday, January 23, 2010

दुलारी मौसी



गांव में रघु मेरा अच्छा दोस्त बन गया था। हम दोनों घंटों तालाब में पत्थर फेंका करते थे-‘‘छपाक।’’ तालाब पर गांव की महिलांए कपड़े धोने आतीं। यह कहा जा सकता है कि वहां छोटा घाट भी था। पानी में पत्थर फेंकने की वजह से दुलारी मौसी से मेरी बहस हो गयी। रघु मेरा बखूबी साथ दे रहा था। बहस ने तमाशे की शक्ल ले ली थी। पास खड़ी महिलांए सारा नजारा देख रही थीं।

  ‘‘देखो कैसी कैंची की तरह जुबान चल रही है, इस छुटके की।’’ दुलारी मौसी बोली।

  ‘‘छुटका न कहो मौसी। चौथी जमात में हूं। मैं औरतों के मुंह नहीं लगता।’’ मैंने सीना चौड़ा कर कहा।

  ‘‘ओह! औरतों के मुंह नहीं लगता। कहीं का कलैक्टर है क्या तू?’’

  ‘‘हां, हूं। क्या करोगी?’’

  ‘‘राम रे! छोटा मुंह, बड़ी बातें। मां-बाप ने तुझे यही सिखाया है।’’

  ‘‘मां-बाप को बीच में मत घसीटो मौसी।’’

  ‘‘जुबान लड़ा रहा है। तेरी दादी से ’शिकायत करनी पड़ेगी।’’

  ‘‘कर देना। कुछ बिगाड़ नहीं सकोगी मेरा। दादी मुझे बहुत प्यार करती है।’’ मैं मुस्कराया।

  ‘‘पहले चोरी, फिर सीनाजोरी। कमाल है रे तू।’’ मौंसी बोली।

  ‘‘अभी पत्थर तुम्हें भिगो गया। अगली बार पत्थर का निशाना पानी नहीं तुम होगी।’’ मैं गुर्राया।

  ‘‘ठीक है, मार निशाना।’’ दुलारी मौसी ने आंखें निकाल लीं। ‘‘मैं तेरे सामने खड़ी हो जाती हूं।’’ इतना कहकर वह मेरे सामने बाजुएं चढ़ाकर खड़ी हो गयी।

  मैंने रघु के कंधे पर हाथ रखा और उससे कहा,‘‘मौसी बड़ी गुस्सैल मालूम पड़ती है। समझा इसे इतना गुस्सा करेगी तो हार्ट-अटैक आ जाएगा। शंभू और जीवा बेचारे बिन मां के हो जाएंगे।’’

  रघु मौसी से बोला,‘‘हां, मौसी यह सही कह रहा है। तुम गुस्सा मत करो।’’

  ‘‘मैं गुस्सा कर रही हूं। अभी बताती हूं।’’ इतना कहकर दुलारी मौसी हमारे पीछे दौड़ पड़ी। कुछ देर में वह हांफ गयी और बोली,‘‘घर जाकर दोनों की खबर लेती हूं। इसकी तो दादी से ’शिकायत पक्की है।’’ मौसी का इशारा मेरी तरफ था।

  ‘‘हम चलें तुम्हारे साथ। कहो तो घाट से कपड़े ले आयें।’’ रघु ने चुटकी ली।

  ‘‘देखो मौसी आप ठहरीं हमसे बड़ी। अब माफ भी कर दो।’’ मैंने आंखें नीचे झुकाकर झूठी विनती की।

  ‘‘माफी, नहीं किसी कीमत पर माफी नहीं मिलेगी। शंभू के बापू से भी कहूंगी। जरुरत पड़ी तो पंचायत होगी, लेकिन तुम्हारी अक्ल ठिकाने जरुर लगनी चाहिए।’’ मौसी का गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था, जबकि उसकी सांस उखड़ रही थी। उसका शरीर मोटापा लिए था और लंगड़ा कर चलती थी।

  मैंने रघु के कान में कहा,‘‘चल मौसी को और छकाते हैं।’’

  रघु दौड़ा-दौड़ा घाट पर गया। जल्दी में दुलारी मौसी कपड़े धोना भूल, हमारे पीछे दौड़ी थी। रघु गीले कपड़े उठा लाया और मौसी के पीछे से आकर उसके सिर पर रख दिये।

  तभी मौसी चिल्लाई,‘‘सत्यानाश हो तेरा रघु।’’

  हम भागकर पेड़ पर चढ़ गए और आम तोड़ने लगे। मौसी नीचे खड़ी हमें गालियां देती रही। मैंने एक आम खाया और गुठली दुलारी मौसी के सिर पर टपका दी। मौसी फिर चिल्लाई,‘‘रुक जाओ, अभी आती हूं।’’

  ‘‘कैसे आओगी मौसी?’’ मैंने प्र’न किया। ‘‘औरतें पेड़ों पर नहीं चढ़तीं।’’

  गुस्से में मौसी ने जमीन पर पड़ी गुठली ऊपर की ओर फेंकी, लेकिन यह क्या, गुठली टहनियों में टकराकर मौसी के माथे पर जा लगी।

  ‘‘ऊई मां!’’ मौसी चिल्लाई।

  बड़बड़ाती हुई दुलारी मौसी वहां से चली गई।

  ‘‘कमाल हो गया रघु।’’ मैंने कहा।

  ‘‘लेकिन, संभल कर रहना। कुछ ज्यादा सता दिया बेचारी मौसी को।’’ रघु गंभीर होकर बोला।

  ‘‘मुझे लगता है दुलारी मौसी सीधी दादी के पास गयी होगी। चल वहां का नजारा देखते हैं।’’ मैंने रघु से कहा जो आम अपनी जेब में रख रहा था।

  हम छिपकर दादी और मौसी को देख रहे थे। मौसी कह रही थी,‘‘ ये कपड़े जानती हैं, कितनी मेहनत से धुलते हैं। आपके पोते ने गांव के दूसरे लड़के के साथ मिलकर खराब कर दिए। ऊपर से मुझसे सीनाजोरी की। पेड़ पर चढ़कर आम की गुठली मुझे मारी। ये देखो सिर कैसा हो गया?’’ मौसी ने दादी को सिर दिखाया जिसपर गुठली का निशान था। ‘‘जब से आपका पोता गांव आया है तालाब पर हमारे जैसों का जाना मुहाल हो गया है। मैं चाहती  तो उसे वहीं पकड़कर पीटती, पर आपके पास आयी हूं। उसे तो किसी का शर्म-लिहाज है नहीं, हमारा-आपका वास्ता पुराना है।’’

  दादी ने किसी तरह दुलारी मौसी को समझा दिया। मौसी के जाने के बाद मैं और रघु दादी के पास पहुंचे।

  दादी ने कहा,‘‘तुम्हारी शैतानी बढ़ती जा रही है। आज दुलारी घर तक आ गई। कल कोई और आयेगा। ऐसा कैसे चलेगा बेटा।’’

  मैंने कहा,‘‘दादी आप भी दूसरों की बातों में आ जाती हो। रघु बता न सच क्या था?’’ मैंने रघु की पीठ पर हाथ मारा।

  ‘‘वो...वो....दादी....हम दोनों खेल रहे थे कि.....।’’ रघु हिचक कर बोला कि दादी ने बीच में उसकी बात काटते हुए कहा,‘‘मैं समझ गयी रघु बेटा। अच्छी तरह जानती हूं तुम दोनों को। मेरे बाल ऐसे ही सफेद नहीं हो गए।’’

  दादी सब समझ चुकी थी। उन्हें मूर्ख बनाना हमारे जैसे बच्चों का खेल नहीं था। रघु के जाने के बाद मैंने किताब निकाली और पढ़ने लगा।

-harminder singh


अगले अंक में पढ़िये:
लंगूर वाला

Friday, January 22, 2010

सादाब के अब्बा की मौत



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सादाब की कहानी की अभी शुरुआत भर थी। उसके शब्दों को मैं आंखों के आगे तैरता पाता हूं। उसकी बताई हर एक घटना मानो साक्षात हो रही थी। उसके अब्बा ऐसे ही सड़क के किनारे पड़े रहते यदि पड़ोस में रहने वाला हरप्रसाद उन्हें न देखता। हरप्रसाद एक रिक्शावाला था। उसने उन्हें पहचान लिया। रिक्शा पर लादकर उन्हें घर पहुंचाया।

खून से लथपथ परिवार का मुखिया बेहोशी की हालत में एक चारपाई पर डाल दिया जाता है। सादाब की अम्मी चीख पड़ी। शौहर की हालत को देखकर वह गश खाकर गिर पड़ी। हरप्रसाद ने तुरंत सादाब की अम्मी को संभाला। रुखसार और जीनत भी पास खड़े रो रहे थे। जीनत ने अम्मी को पानी पिलाया। उधर उनके अब्बा को होश आ चुका था।

सादाब ने कहा,‘मुझे हैरानी हो रही थी कि यह सब क्या हो रहा है। सब रो क्यों रहे हैं? अब्बा-अम्मी अजीब से हो रहे हैं। मैं अब्बा के हाथ से चिपक कर उनकी चारपाई के नजदीक बैठ गया। उनका हाथ खून से सना था। जख्मों पर घर में रखा थोड़ा सरसों का तेल लगा दिया। हमारे पास इतने पैसे कहां थे? रोज की कमाई कितनी होती होगी। अगर ऐसा होता तो अब्बा खुद का रिक्शा न खरीद लेते। ईद दो दिन बाद थी। हमारे लिए सब दिन एक-से थे, सारी रातें सूनी थीं। फीका जीवन जीते-जीते हम जायका भूल चुके थे। जीनत और रुखसार बार-बार आंसू पोछ रही थीं। बीच-बीच में हिचकी लेती थीं। कितनी दुखी थी वे दोनों और अम्मी। घर में सब सुबक रहे थे, तो मैं भी वैसा ही कर रहा था। अब्बू मेरी तरफ देखकर कुछ बोलना चाह रहे थे। उनके होंठ केवल फड़फड़ा रहे थे, कह नहीं पा रहे थे। चेहरे पर कई चोटें थीं जिनसे उनका चेहरा सूज गया था। अम्मी ने जीनत से कहा कि हमें सुला दे। उस रात पता नहीं क्यों में अम्मी के बिना सोया था। सुबह उठा तो देखा कि अम्मी दहाड़े मार-मार रो रही थी। मेरे अब्बू........मेरे अब्बू चल बसे थे। हम आधे यतीम हो गये थे। जब कमाने वाला चला जाए तो परिवार के लोगों के फाके से भी बदतर हालात हो जाते हैं। अम्मी बेसुध सी हो गयी थी। वह पागलों की तरह बड़बड़ाती रही। कुछ देर चुप होकर रोनी लगती, फिर बड़बड़ाना शुरु कर देती। जनाजे में कम लोग थे क्योंकि कोई बड़ा आदमी थोड़े ही मरा था, एक मामूली रिक्शावाले की मौत हुई थी। मगर हमारे लिए अब्बा मामूली नहीं थे। बहुत चाहते थे हम सबको। ईद हम कैसे मना सकते थे। यहां रंज था, वहां खुशियां राज कर रही थीं। अब्बा का सफर बस इतना ही था। जन्नत के दरवाजे ऐसे लोगों के लिए हमेशा खुले रहते हैं। दोजख में वे लोग जाएंगे जिन्होंने अन्याय किया है। अब्बा के साथ अच्छा नहीं हुआ। उन जालिम पुलिसवालों को शायद नरक में भी जगह नसीब न हो। भटकेंगे तमाम जिंदगी दुख में और मरने के बाद भी। जाने कितने परिवारों को तबाह किया होगा उन लोगों ने। खुद चैन की नींद न सो पायेंगे। दूसरों का दर्द उनके लिए तमाशा होता है। हंसते हैं वे हमारे जैसों पर। गरीबी का फायदा उठाते हैं। कमजोर को और कमजोर करते हैं। बनते हैं कानून के रखवाले। ऐसे रखवालों से अच्छा है, हमें पैदा होते ही उठा ले। कम से कम उनके जुल्मों से तो निजात मिलेगी।

 ----to be contd.

-harminder singh

Thursday, January 21, 2010

ठिठुरन और मैं

जब मैं घर लौटा तो रात के आठ बजे थे। मैं ठिठुरता हुआ पहुंचा था। मोहित प्रोजेक्ट तैयार कर रहा था। उसी सिलसिले में उसे मेरी मदद की जरुरत थी। ये आजकल के बच्चे भी न, मेहनत उतनी करना चाहते नहीं, बातें बड़ी-बड़ी करते हैं। कुछ फोटो मैंने उसे सीडी में करवाये ताकि बाद में घर जाकर उनका प्रिंट आउट निकाला जा सके। हमें काफी देर हो चुकी थी। करीब एक घंटा होने जा रहा था। वह निश्चिंत था, मैं नहीं। जिस रुम में हम बैठे थे वहां का तापमान सामान्य था। हमारे अलावा भी वहां कई लोग थे जो काफी बिजी लग रहे थे, बिल्कुल हमारी तरह। गूगल पर सर्च मैं कर रहा था, बता मोहित रहा था।

  हम जैसे ही वहां से बाहर निकले, मैंने अपने हाथों को जेबों में सुरक्षित किया। हमारे आगे एक व्यक्ति ऐसे जा रहा था, जैसे सैर पर हो। पता नहीं कुछ लोगों को ठंड में भी ठंड क्यों नहीं लगती। उस व्यक्ति के बराबर में जो महिला थी, उसने शाल ओढ़ रखा था। दोनों पति-पत्नि मालूम पड़ते थे। मैंने अपनी चाल तेज+ की, जबकि मोहित ऐसा लगता था जैसे मोबाइल अंकल की बातें सुनने में इंटीरेस्टिड हो। मैंने कहा,‘घर नहीं चलना क्या?’ वह हल्का मुस्कराया, फिर कदमों को गति दी।

  कंधों को लगभग सिकोड़ चुका मैं चाउमीन वाले ठेले के पास से गुजरा। उसपर कोई ग्राहक नहीं था। उसकी नजरें आने-जाने वालों पर टिकी थीं। सरसरी निगाह से मैंने उसे देखा, उसमें थोड़ी आस जगी कि शायद मैं कुछ खरीदूंगा लेकिन मैं आगे बढ़ गया। मुझे पता है कि वह रोज शाम को उसी स्थान पर खड़ा मिलेगा क्योंकि यह सब वह कमाने के लिए करता है ताकि उसका परिवार पल सके। शायद उसके अपने बच्चों ने कभी चाउमीन का स्वाद ढंग से चखा हो। उसके ठेले से कुछ दूरी पर जगमगाहट इतनी है कि वहां हर किसी की नजर गुजरते हुए जरुर फिसल जाती है। वहां चेहरों को स्पष्ट पहचाना जा सकता है, जबकि उसका चेहरा उतना साफ नहीं।

  ‘गुड नाइट’ कहकर मोहित घर चला गया। मैंने कदमों को और गति दी। ठंड से मेरी टांगें अकड़ सी गयी थीं। अंधेरे में अंदाज लगाकर मैं आगे बढ़ता रहा। सड़क पर सवारियां बीच-बीच आतीं तो रास्ता नजर आ जाता। मैंने एक मोड़ पर आकर यह सोचा कि मैंने खुद को इतना ढक रखा है, फिर भी कांप रहा हूं। उन लोगों का क्या जिनके तन पर कपड़े नहीं।   

-harminder singh

Tuesday, January 19, 2010

पाया क्या इतना जीकर?



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‘‘हम ख्वाहिश उन चीजों की करते हैं, जो हमारे पास नहीं।’’ बूढ़ी काकी बोली।

  ‘‘अक्सर हम भूल जाते हैं कि जो हमारे पास है, बहुतों के पास उतना भी नहीं।’’

  ‘‘पाना बहुत चाहते हैं, दूसरों के लिए हृदय में जगह बिल्कुल नहीं। फिर हम कैसे संतुष्ट रह सकते हैं? त्रुटियां बाहर नहीं, हमारे भीतर हैं। संतुष्ट रहने के लिए मन को भरना पड़ता है। खाली चीजें शोर बहुत करती हैं। जबतक दूसरों को बढ़ता देख हम मन मसोसते रहेंगे, कुछ अच्छा नहीं होगा। आशा करो, लेकिन उसकी पूर्ति करनी भी जरुरी है।’’

   ‘‘इंसान भागता है इधर-उधर। कुछ पाने की हसरत है। हासिल इतना हुआ, अब उतना भी चाहिए। हृदय की इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती। हृदय की सुनने वाले ठोकर जल्दी या देर से खाते हैं। मगर ठोकर होती पक्की है। खुशी ढ़ूंढने आये थे, दर्द लेकर जा रहे हैं।’’

  ‘‘जिंदगी इसी तरह गुजर जाती है। बुढ़ापे में भी एकांत नहीं मिलता। फिर कहते हैं-‘पाया क्या इतना जीकर?’ शायद कुछ नहीं- सिवाय दर्द और दुख के। इससे तो जन्म ही न लिया होता। पहले मां को दर्द दिया, अब खुद दुखी होकर जाना होगा। रोते हुए आये थे, रोते हुए जायेंगे। तब भी आंसू नहीं थे, अब भी नहीं होंगे।’’

  मैंने काकी से कहा,‘‘इतना कुछ तो मिला हमें जीकर। आप कहती हो, जीने से हासिल कुछ नहीं हुआ।’’

  इसपर काकी बोली,‘‘यह बात खुद से बूढ़े होकर पूछना। तब तुम उत्तर ढूंढ सको। कई बार कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनका उत्तर तमाम जिंदगी नहीं मिल पाता, लेकिन लंबा समय बीत जाने के बाद उत्तर खुद-ब-खुद सामने आ जाता है। शायद वह ईश्वर की मर्जी होती है।’’

  ‘‘हमारे जैसे वृद्ध स्वयं से इतने सवाल पूछ लेते हैं कि संशय का कोहरा घना होने लगता है। पता है, हमें बादल छंटने का इंतजार नहीं होता। जीवन के सारे रस जब छिन जाते हैं तब एहसास होता है कि अरे, हम बूढ़े हो गए। जिंदगी लगती लंबी थी कभी, अचानक इतनी छोटी कैसे हो गयी? ऐसा लगता है जैसे कल एक सपना था।’’

  ‘‘वास्तव में हमने जर्जरता को पाया इतना जीकर। बुढ़ापा हासिल किया इतना जीकर। थकी काया को ढोने का इंतजाम किया इतना जीकर। रि’तों को जोड़ा-तोड़ा, बुरा-भला किया जीकर। कुछ नहीं, फिर भी सबकुछ किया हमने। सिर्फ पहचान नहीं की खुद की, क्योंकि हम संसार में खो गए। उन चीजों को पाने की कोशिश की जो हमारे साथ आगे नहीं जाने वालीं। खोकर खुद को फिर पाया क्या हमने इतना जीकर?’’

-harminder singh
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>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com