
कई ऐसे पल होते हैं जिन्हें हम कीमती कहते हैं। उन्हें कहां आसानी से भुलाया जा सकता है। छाप गहरी हो तो वह जीवन भर के लिये अमिट हो जाती है और जिंदगी में एक छाप नहीं कई रंग एक साथ अंकित हो जाते हैं। हम सोचते रह जाते हैं। उधर सारा खेल रचा जा चुका होता है। यह जीवन के रंग भी हैं
बूढ़ी काकी मुझे कहानी सुनाती है। मैं बड़े चाव से सुनता हूं। उसके चेहरे की झुर्रियां उसकी उम्र को ढक नहीं सकतीं। वह बताती जाती है, मैं सुनता जाता हूं। काकी कहती है-‘जीवन के रंग एक से नहीं होते। बहुत उतार-चढ़ाव होते हैं, बड़ी फिसलन होती है। मामूली कुछ नहीं होता।’
मैं चुपचाप कभी अपने हाथों को खुजलाता हूं, कभी काकी के चेहरे को देखता हूं। समझ से परे लगता है कि एक व्यक्ति मेरे सामने है, जीवित है मेरी तरह। वह भी हंसता-बोलता है, फिर क्यों वह बूढ़ा है, मैं जवान।
बूढ़ी काकी से यह प्रश्न किया तो वह बोली-‘यह सच है कि हम पैदा हुये। यह भी सच है कि हम जिंदगी बिताने के लिये जीते हैं। और यह भी सच है कि उम्र बीतती है तो बुढ़ापा आना ही है।’
मैं अपने प्रश्न का उत्तर शायद ही पूरा पा सकूं क्योंकि यह सवाल और उत्तर उलझे हुये हैं। मैं पशोपेश में हूं कि पैदा सिर्फ बूढ़ा होने के लिये ही होते हैं या पैदा मरने के लिये होते हैं। इसपर काकी थोड़ा हंसती है, कहती है-‘यह नियम है कि जो उत्पन्न हुआ है, वह समाप्त भी होगा। जैसे-जैसे वस्तुएं पुरानी होती जाती हैं, वे क्षीण भी होने लगती हैं और यहीं से उनका अंतिम अध्याय शुरु होता है। कहानी हर किसी की शुरु होती है, मगर खत्म होने के लिये। हम उन्हीं वस्तुओं में से हैं जो उम्र के बढ़ने के साथ ही क्षीण हो रही हैं।’
‘समय के बीतने के बाद किसी भी चीज की कीमत बदल जाती है। शुरुआत से अंत तक का सफर मजेदार ही रहता हो यह सही नहीं। अब यह निर्णय हमें करना है कि हम जर्जर काया वालों को सलाम करें या उन्हें जिनके बल पर दुनिया घूमती है। यह सच है कि दोनों महत्वहीन नहीं, लेकिन नजरिये की बात है कि फर्क महसूस किया जाता है।’
काकी मुझे प्यार से पुचकारती है। उसकी कहानी शुरु होती है-
‘घर का आंगन था, कोई रोक-टोक नहीं। बच्ची थी आखिर मैं। समय ही समय था, बीत जाये कोई गम नहीं। अठखेलियां होती थीं खूब। फिक्र का नामोनिशान न था। एक अनजानी सी लड़की, अनजान देश में जी रही थी। कायदा क्या होता है कौन जाने? बस मैं ही मैं थी, अपने में मस्त। मां-बाप की लाडली इकलौती नन्हीं परी। मां खुश होती, कहती-‘देखो, कैसे लगती है मेरी लाडो।’
‘हां, सबसे सुन्दर है ना।’ पिताजी भी मां के साथ कहते।
‘अरे, जी करता है देखती रहूं।’
‘मेरा भी मन नहीं करता आंख बचाने को।’
‘निहारती रहूं, बस इसी तरह।’
‘मैं भी.....।’
‘हां।’
‘सुन्दर राजकुमारी।’
‘प्यारी रानी।’
‘भावुकता को समेटा नहीं जाता, वह तो बहती है, बहे चली जाती है। आंसू आंखों में मचलने के बाद गिरते रहे। बूंदे अनगिनत थीं।’
‘मैं आज वह नहीं जो पहले थी और यही तो बदलाव की सच्चाई है। तुम छोटे हो, मैं बुजुर्ग कितना फर्क है।’
इतना कहकर काकी रुक गयी। उसका चेहरा कुछ गंभीर हो गया। काकी किसी सोच में पड़ गयी।
यह सोच भी अजीब चीज होती है। वक्त के साथ चलती है और वक्त-बे-वक्त सिमट भी जाती है।
काकी से मैंने पूछा-‘आप कुछ पुरानी यादें टटोल कर भावुक क्यों हो गयीं?’
काकी ने मुस्कराहट के साथ कहा-‘पुरानी बातें यूं भूली नहीं जातीं। कई ऐसे पल होते हैं जिन्हें हम कीमती कहते हैं। उन्हें कहां आसानी से भुलाया जा सकता है। छाप गहरी हो तो वह जीवन भर के लिये अमिट हो जाती है और जिंदगी में एक छाप नहीं कई रंग एक साथ अंकित हो जाते हैं। हम सोचते रह जाते हैं। उधर सारा खेल रचा जा चुका होता है। यह जीवन के रंग भी हैं।’
‘यादों की पोटली आकार में कितनी भी क्यों न हो, होती बे-हिसाब है। सदियां बीत जाती हैं इन्हें समझने में, लेकिन यादें इकट्ठी एक जिंदगी में इतनी हो जाती हैं, कि संजाते रहिये, और संजोते रहिये।’
-harminder singh
यादों की पोटली आकार में कितनी भी क्यों न हो, होती बे-हिसाब है। सदियां बीत जाती हैं इन्हें समझने में, लेकिन यादें इकट्ठी एक जिंदगी में इतनी हो जाती हैं, कि संजाते रहिये, और संजोते रहिये।’
ReplyDelete" bhut accha lga is blog pr aaker or ye artical pdh kr.... sach kha kakee ke paas jo yadon ka khajana hotta hai na vo or kaheen nahee miltaa..."
Regards
shayad yaein apne mein simtee hoti hain jineh sanjoya hi to jaata hai.
ReplyDeleteshukrya,