बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Friday, October 31, 2008

किस मकसद के लिये?

दिल्ली ठहरी नहीं, लोग रुके नहीं, बस एक सिहरन थी जो कम हो रही है, बस इसी सोच के साथ कि अगला धमाका न हो


आतंकवाद के कदम इतने आगे जा चुके हैं कि वे काफी जद्दोजहद के बाद ही रोके जा सकते हैं। एक कौम को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और भविष्य में इसके कोई आसार नहीं कि लोगों की सोच में बदलाव आये। कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि उनके कारण समाज के वर्गों में असहजता उत्पन्न हो जाती है। यही आजकल हो रहा है। भीड़ बढ़ती जा रही है, लोग उसमें शामिल हैं लेकिन कुछ गिने-चुने जहर की पुडि़या लिये घूम रहे हैं।

बम फटने का इंतजार कर रहे हैं। पता नहीं कब क्या हो जाये? कल निशाना हम भी हो सकते हैं और परसों कोई और। लोगों का ढेर बिखरा हुआ भी हो सकता है और अपनों को तलाशती आंखें भी। पर उन्हें इससे क्या लेना-देना जो इंसानों की मौत के खेल को खेल रहे हैं। यह उनका आनंद है और वे इसका ज’न भी जरुर मनाते होंगे। यहां का मातम, वहां का जश्न! सोचने पर मजबूर करता है कि हम हैं क्या? कैसे हो गये हैं और क्यों?

पता नहीं वक्त सिमटेगा या हमें समेटेगा। लेकिन हम इतना जानते हैं कि हम खुद ही खुद को मारने का संकल्प लेते जा रहे हैं। जेहादी होते जा रहे हैं। मकसद कितना और कैसा है, मगर खून बहाने का मकसद साफ नजर आता है। इससे क्रूर क्या हो सकता है कि बच्चों और महिलाओं को भी नहीं बख्शता एक धमाका।

बड़े शहर घूमने के ख्बाव देखे थे कभी, आज डर लगता है कि कहीं कुछ ऐसा-वैसा न हो जाये। दिल्ली तो राजधानी है उसमें थोड़े अंतराल पर धमाके हुये और कई जिंदगियां बिना कुछ बताये अचानक चल बसीं। ये अच्छा थोड़े ही था। दिल्ली ठहरी नहीं, लोग रुके नहीं, बस एक सिहरन थी जो कम हो रही है, बस इसी सोच के साथ कि अगला धमाका न हो।

-harminder singh

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>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

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तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

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बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

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एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

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टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
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खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
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जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
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