बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, May 5, 2009

गलतियां सबक याद दिलाती हैं

मुझे अच्छी तरह याद है काकी ने मेरी मां को इसलिए डांटा था क्योंकि उन्होंने किसी गलती पर मुझे एक चांटा मारा था। मैं काफी देर से रो रहा था। मेरा गाल सुर्ख लाल हो गया था। मां का क्रोध शांत होने का नाम नहीं ले रहा था और काकी.....। और काकी मुझे पुचकार रही थी। उसने मां को किसी तरह समझाया कि बच्चा है, गलती हो गई, क्या मासूम को पीटकर गलती सुधर जाएगी।

बूढ़ी काकी को मैंने उस घटना का स्मरण कराया। मैंने कहा,‘गलतियां हम अनजाने में करते हैं और जानबूझकर भी। दोनों का रिश्ता परिणामों से होता है।’

काकी ने कहा,‘सोच समझकर की हुइ त्रुटि मायने रखती है। वह किसी को हानि पहुंचाने के उद्देश्य से की गई होती है या उससे स्वयं को कष्ट भी हो सकता है। गलतियां न हों यह हमें समझना चाहिए। अब अनजाने में हुए गलत कार्य आपने जानकर तो किये नहीं होते, बस हो जाते हैं। इसे हम धोखा होना भी कह सकते हैं। धोखा किसी से कभी भी हो सकता है- एक अबोध बच्चे से भी और समझदार नौजवान से भी।’

‘हमारी गलतियां सबक होती हैं ताकि भविष्य में ऐसा न हो। इतना समझकर भी हम नहीं संभले तो अपने नुक्सान के जिम्मेदार हम खुद हैं। छोटी-छोटी गलतियां अक्सर बड़ी बन जाया करती हैं। मामूली दरारें विशाल भवनों को समय के साथ कमजोर करती रहती हैं क्योंकि दरारें पहले छोटी होती हैं बाद में बड़ी हो जाती हैं। सबक बहुत अहम हैं। आगे खाई है, पहले गिर चुके हैं, फिर क्यों उस और बढ़ रहे हैं? यह गलती हमारी है। इसका खामियाजा हम ही भुगतेंगे।’

बचपन में सबक सिखाये जाते हैं। गलतियों पर दंड दिया जाता है। अपेक्षा की जाती है कि फिर ऐसा न हो। कई मौकों पर समझा-बुझाकर काम चल जाता है, लेकिन कई बार दंड की नौबत आ जाती है। कुछ बालक दंड से सुधर जाते हैं, कुछ नहीं।

हमें बहुत कुछ सिखाता है। मुझे लगता है कि हम संभल कर चलें तो कई चीजें आसान हो जाती हैं। फिर खाई में गिरने का डर भी नहीं रहता। मुश्किलें इसी तरह आसान हो जाती हैं। मुझे मेरे बड़ों ने यही सिखाया है कि घबराओगे तो रुक जाओगे और हमें आगे बढ़ने के लिए घबराना बिल्कुल नहीं है। रुकावटें आयेंगे हमें भूलें होंगी लेकिन उन्हें सुधारकर और कुछ नया सीख कर आगे बढ़ेंगे। यह सही भी है।’

काकी का जीवन आसान नहीं रहा। उसने कहा,‘इंसान गलतियों-बुराईयों का पुतला है। तो यह सच है कि लोग पूरी तरह धुले नहीं हैं। बिना दोष के केवल भगवान है। कुछ इंसान भी भगवान कहे जाते हैं, लेकिन वे इंसान ही होते हैं भगवान नहीं। मेरा मानना है कि यदि मैं भूल करती जाउंगी तो मैं उसकी आदत पाल बैठूंगी, जो ठीक नहीं, जबकि आदतें उनकी होनी चाहिएं जो हमें बेहतर कर सकें। एक-एक सीढ़ी चढ़ने को हौंसला चाहिए होता है। मैं भरोसा रखती हूं खुद पर और मन से कहती हूं कि हां, मैं कर सकती हूं। मैंने कर लिया तो खुद को धन्यवाद देती हूं। यहां विश्वास चाहिए होता है जो मुझमें अभी तक वैसा ही है।’

‘मैं साफ-साफ कहती हूं कि सबक गलतियों से ही सीखे जाते हैं। यह हमें प्रेरणा भी देता है ताकि अगली बार ऐसा होने पर हम संभल सकंे। जीवन में उतार-चढ़ाव लगे रहते हैं। सच्चाई से सामना यहीं तो होता है। जब मुश्किलें आती हैं तब हमें ठिठकन सी महसूस होती है।’

-harminder singh

1 comment:

  1. बहुत सही कहा काकी ने।
    घुघूती बासूती

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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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