बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, August 24, 2009

जिंदगी हर बार हार जाती है









बूढ़ी काकी शांत है। उसे लगता है उसकी सांसें कमजोर पड़ने में समय रहा नहीं। वह कहती है,‘मैं कभी-कभी इस बात को गहराई से सोचती हूं कि हर बार जिंदगी हारती क्यों है?’

काकी ने मुझे भी सोच में डाल दिया। प्रश्न अगर गंभीर हो तो सोचना बहुत पड़ता है। काकी ने यह काम बहुत किया है। मैंने काकी से कहा,‘फिर तो जीवन की जीत कभी होगी ही नहीं। वह हर बार हारता ही रहेगा।’

काकी ने बोलना शुरु किया,‘मृत्यु से भला पार कैसे पायी जा सकती है। मौत अजेय है। उसका आगमन निश्चित है। हमें मालूम है, वह आयेगी और ऐसा होता ही है। जिंदगी और मौत की जंग कमाल की होती है। दोनों को पाला छूने की जल्दी होती है। एक तरफ रोशनी की चमक होती है, तो दूसरी ओर घना अंधेरा। अंधेरा मौत की चांदनी होता है जिसमें सब कुछ थमा सा और बिल्कुल शांत होता है। हम हमेशा रोशनी का हाथ थामना चाहेंगे। अंधेरे से हर किसी को डर लगता है।’

‘जब मैं छोटी थी, रात में घबराती थी। सहमना लड़की की आदत होती है और मैं छोटी बच्ची ही थी। मां सीने से चिपका कर कहती कि काहे का डर, वह कुछ होता नहीं। फिर भी मैं डरती थी। आज मैं अकेली हूं। तब भी अकेली थी। हम केवल बंधनों से घिरे होते हैं, मगर इंसान सदा अकेला ही रहता है, जीता है और मरता है। अंतिम क्षण कितना मजबूत धागा ही क्यों न हो, उसे टूटना ही होता है। क्योंकि यही सच है।’

मैंने काकी को बीच में रोक कर कहा,‘फिर अंधकार ही सच है।’

काकी बोली,‘देखो, अंधेरा मिटाने को प्रकाश का सहारा लिया जाता है। वह हमेशा से रहा है। ज्योति ने उसे केवल कम करने की कोशिश की है। फिर हम जानते हैं कि बाती एक दिन बुझती भी है। जिंदगी का उजाला छिनते देर नहीं लगती। आज पलक खुली है, सब दिख रहा है। कुछ पलों में सब बदल जायेगा। हम तब विदा ले चुके होंगे।’

‘मरने से पहले यादों की पूरी किताब इतनी तेजी से खुलती है कि हम केवल देखते रह जाते हैं। यह सब इतनी जल्दी हो जाता है कि सोच भी पशोपेश में पड़ जाती है। जिंदगी कितनी भी शानदार क्यों न रही हो, उसके सिमटने की बारी आती है। वह थके भी न, तब भी हार जाती है। या यों कहें कि जिंदगी जीत कर भी हार जाती है।’

‘जीवन को अधिकार कभी मिला नहीं कि वह विजेता बनेगा। उसका भाग्य उसके हाथ नहीं। वह केवल धोखा मालूम पड़ता है। इसे छल ही कहा जायेगा कि जो चीज हंसती है, कल उसकी कोई छाया तक न होगी। जिंदगी को समझना आसान नहीं। मैंने शब्दों का हेर-फेर किया। उन्हें तोड़ा-जोड़ा, लेकिन जीवन का हिसाब न लगा पाई। वाकई हम शून्य से आगे बढ़ ही नहीं पायेंगे। शून्य से शुरु और शून्य पर खत्म- कितनी मजेदार पहेली है न।’

मैंने हंसकर कहा,‘हां, सच है। शून्य से शून्य तक। बहुत कुछ, फिर भी कुछ नहीं।’

-harminder singh

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बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

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ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

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जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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