जमीन पर सोने वालों की भी भला कोई जिंदगी होती है। हजारों दुख होते हैं उन्हें, मगर बयां किस से करें? हजारों तकलीफों से जूझते हैं और जिंदगी की पटरी पर उनकी गाड़ी कभी सरपट नहीं दौड़ती, हिचकौले खाती है, कभी टकराती है, कभी गिर जाती है। एक दिन ऐसा आता है जब जिंदगी हार जाती है।
ऐसे लोगों में बच्चे, जवान और बूढ़े सभी होते हैं जिन्हें पता नहीं कि वे किस लिये जी रहे हैं। बस जीते हैं। कई बूढ़े अपने सफेद बालों को यह सोचकर शायद न कभी बहाते हों कि अब जिंदगी में क्या रखा है, दिन तो पूरे हो ही गये।
उन्हें जिंदगी का तजुर्बा होता है। ऐसे वृद्धों को कोई अच्छी निगाह से नहीं देखता, सब उन्हें गलत समझते हैं। उनके हालातों की तरफ कोई ध्यान नहीं देता। सड़क उनका घर, उनका सब कुछ होती है। वे कहीं भी गुजार सकते हैं। आखिर एक रात की ही तो बात है। अगले दिन कहीं ओर, किसी ओर जगह उनका आशियाना होगा, लेकिन वे बेफिक्र भी हैं।
वृद्धों को मैंने कई बार प्लेटफार्म पर देखा है। वे बिना उद्देश्य के जिये जा रहे हैं। उनका जीवन किसी के लिये उपयोगी नहीं रहा। इनमें से बहुत से ऐसे हैं जो अपनों ने घर से बेघर किये हैं। वृद्धग्राम की शुरुआत में इसी साल के प्रारंभ में करने की सोच रहा था, लेकिन मैं काफी समय तक इन उम्रदराजों का अध्ययन करता रहा। मेरी ऐसे लोगों से लंबी मुलाकातें भी हुयीं।
कुछ ने बताया कि उन्हें पता नहीं कि वे कहां के रहने वाले हैं। जब से पैदा हुये, जमीन पर सोये हैं, रुखी-सूखी खायी है और मोहताजी में जिये हैं। कई ने बताया कि उनका भी एक परिवार था, वे भी कभी शान से रहते थे। औलाद धोखा दे गयी, क्या करें। उनके आंसुओं के कतरे मैंने अपने जेहन में संभाल के रखे हैं, धीरे-धीरे वृद्धग्राम पर बहा रहा हूं।
एक वृद्ध बृजघाट मिले थे।(हरिद्वार की तरह की यहां से भी गंगा गुजरती है और गंगा स्नान का प्रत्येक कार्तिक पूर्णिमा को यहां विशाल मेला लगता है। बृजघाट उत्तर प्रदेश में स्थित है।) उनका नाम दीनानाथ है. वे काफी दुखी थे। वे बृजघाट के तट पर रामभक्ति में लीन रहते हैं। अपनों ने उन्हें कई साल पहले पराया बना दिया। वे उदास मन से कहते हैं,‘‘बहुओं के आने के बाद घर का माहौल बदल गया। दोनों बेटे उनकी ओर की कहने लगे। बेटी है नहीं, पत्नि को स्वर्ग सिधारे कई वर्ष बीत गये। मैं ठहरा बूढ़ा क्या कर सकता हूं, उन्हें मेरी जरुरत नहीं लगी। सो निकाल दिया घर से।’’ इतना कहकर वे रोने लगते हैं।
दीनानाथ जी आगे कहते हैं,‘‘मैं यहां चला आया। यहां कुछ आश्रम हैं, श्रृद्धालु आते रहते हैं। कुछ न कुछ मिल ही जाता है। अब इस बुढ़ापे में और चाहिये ही क्या, आसरा और दो वक्त की रोटी।’’
वे अब अन्य तीर्थस्थलों को देखना चाहते हैं। कहते हैं कि आखिरी समय में जितना भगवान का नाम लिया जाये उतना कम है।
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, ये जर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं।
हरमिन्दर सिंह द्वारा
Monday, May 19, 2008
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| हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
![]() >>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
| दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
![]() | ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |



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बहुत अच्छा हे लगे रहे धन्यवाद
ReplyDeleteकभी कभी सोचता हूँ की इश्वर के कौन से पैमाने है ....वाकई इतने कष्ट है इस संसार मे की या तो आँख मीच ले इंसान या निष्ठुर हो जाए
ReplyDeleteअनुराग जी,
ReplyDeleteइन कष्टों को पता नहीं क्यो उत्पन्न किया गया है। अब ये कष्ट उठाने हैं और बुढ़ापा आना है।
उसका खेल निराला है। यह हैरानी भरा भी है कि वही पैदा करता है और किसी भी क्षण इतना निष्ठुर हो जाता है कि किसी को भी समाप्त कर देता है।
ये नियम समझ के परे हैं। साधु-सन्यासी बनकर भी हम इससे बच नहीं सकते। बुढ़ापा तो आयेगा ही।