बहुत खुश हैं हम। इसके कारण हैं। हम पहली बार ओलंपिक से तीन तमगे छीन लाये हैं। बिंद्रा सोने के साथ खड़े हैं। गर्व से चौड़ी छाती हो गयी है हमारी। बिजेन्द्र और सुशील की शर्मीली मुस्कराहट और अधिक उत्साहित कर देती है। मन झूमने को करता है। विजय-गीत ऐसे ही लोगों के लिये गाये जाते हैं। तिरंगा शान से लहरा रहा है और कह रहा है-‘जस्बा है तो जीत है।’
हाकी में लगातार छह ओलंपिक तक सोना लाये हम। कुल आठ सोने हो चुके हैं राष्ट्रीय खेल के जिसका सिलसिला 1980 के मास्को में सोने के साथ आजतक थमा हुआ है। समय काफी लंबा गुजर गया। 2008 में जाकर अभिनव बिंद्रा ने सोना पहना।
आजकल माहौल जश्न का है। यह जश्न जीत का है। हमारे ओलंपिक के हीरो किसी भी हीरो से कम नहीं हैं। क्रिकेट के हीरो तो इनके सामने कुछ भी नहीं लगते और फिल्मी के हीरो की बात ही नहीं करनी चाहिये। इस साल भारत ने इतिहास बनाया है जिसे भूला नहीं जा सकेगा, याद रहेगा बीजिंग।
थोड़ा दुख जरुर है हमें अपने पर। एक अरब हैं हम फिर भी क्रिकेट के अलावा हम कुछ और सोचते ही नहीं। खेलों को बढ़ावा देने की बात होती है, क्रिकेट पर आकर सिमट जाती है। चीन ने 100 से अधिक मेडल जीते, इसे क्या कहेंगे। उनमें चीनी महिलाओं की हिस्सेदारी आधी थी।
अकेला एक अमरीकी तैराकी में किसी से नहीं हारा। उसके खाते में 8 स्वर्ण आये। फेल्प्स बीजिंग हारने नहीं आया था, वह अपराजित रहा। हम उन्हें देखकर कुछ तो सीख सकते हैं। एक अरब हैं हम, फिर भी बहुत पीछे। जिस दिन हमने क्रिकेट देखना छोड़ दिया उस दिन कई बदलावों से गुजरेगा भारत। इतना पैसा और समय बर्बाद कर दिया बड़े-बड़े स्टेडियम बनाने में, मिला क्या- सिर्फ एक बर्ल्ड कप। इसका कुछ प्रतिशत अगर दूसरे खेलों पर खर्च किया जाता तो कहानी कुछ ओर होती। लेकिन ऐसा लगता है कि बिंद्रा, सुशील और बिजेन्द्र से शुरुआत हुई है कुछ बदलाव की। शायद बदलेगा इंडिया।
-harminder singh
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