मच्छर मारने पर दुनिया के किसी भी कोने में सजा का प्रावधान नहीं। मतलब यह कि मच्छरों की कहीं सुनवाई नहीं। उनकी कोई अहमियत नहीं। वो कहते हैं ना-‘भला मच्छर की भी कोई औकात होती है।’
मच्छरों के हमले काफी खतरनाक होते हैं। खासतौर पर जब आप चैन की नींद सोने की कोशिश कर रहे हों। आमतौर पर चैन की नींद आजकल लोगों को उतनी नसीब नहीं हो रही।
मुझे बड़ी कठिनाई होती है जब मच्छर मेरे कान पर भिन-भिन करते हैं। मन करता है उन्हें जीवित न छोड़ूं। यह विचार हर उस ‘दुखियारे जन’ का है जो ‘मच्छर जाति’ के आक्रमण से व्यथित है। हम बखूबी जानते हैं कि हत्या करना पाप नहीं ‘महापाप’ है, लेकिन मच्छर को मारना मजबूरी है। इसका कुछ माक्रोन व्यास का मामूली डंक तगड़े से तगड़े इंसान को बदहाल कर देता है।
अहिंसा की प्रवृत्ति इंसानियत दर्शाती है, मगर ‘रक्त-प्रेमी’ इस जीव को मारने पर हमें कोई नहीं कहता कि हमने कोई अपराध किया है। हां, मच्छर मारना कोई अपराध नहीं। इसके लिये दुनिया के किसी भी कोने में सजा का प्रावधान नहीं। मतलब यह कि मच्छरों की कहीं सुनवाई नहीं। उनकी कोई अहमियत नहीं। वो कहते हैं ना-‘भला मच्छर की भी कोई औकात होती है।’ लेकिन हम शायद यह भूल गये कि इसके डंक की तिलमिलाहट हमें इससे डरने पर मजबूर कर देती है। तभी हम इस ‘आतंकी’ से अपनी सुरक्षा का प्रबंध करते हैं।
पहले कछुआ छाप जलाते थे, मच्छर भाग जाते थे। मच्छर समय दर समय शक्तिशाली होते गये। जमाना बदला, मच्छर भी और अब वक्त ऐसा है कि ‘कछुआ’ चल बसा, ‘स्प्रे’ आ चुके लेकिन मच्छरों का कद बढ़ता ही जा रहा है। पहले मच्छर छोटे हुआ करते थे, अब वे काफी बड़े हो गये हैं। उनके पैरों की लंबाई को देखकर मैं कई बार हैरान हुआ हूं। जैसे-जैसे किसी जाति को मिटाने की कोशिश की जाती है, वह उसका मुकाबला करने के लिये समय-दर-समय मजबूत होती जाती है। यही मच्छरों के साथ भी हो रहा है। वे शायद ही हमारा कभी पीछा छोडें। चांद पर हम जाने की तैयारी कर रहे हैं। भविष्य में लोग दूसरे ग्रहों पर जायेंगे तो मच्छर शायद वहां भी उनके साथ होंगे। ताजे खून से प्यास बुझाने वाले ये जीव काफी चालाक भी होते हैं। आप इन्हें मसलने के लिये हाथ बढ़ाइये ये फौरन वहां से उड़ जायेंगे। वैसे हल्की सी ठेस से इनकी जीवनलीला समाप्त हो जाती है।
मच्छरों की आदतें इंसानों से मेल खाती हैं। वैसे कुछ दुबले-पतले लोगों को ‘मच्छर’ कहा जाता है। मच्छर जहां पैदा होते हैं, वहीं रहने वालों का खून चूसते हैं। ये प्राणी रक्त के भूखे होते हैं। इतने भूखे की अधिक खून चूसने के बाद इनसे ठीक से चला भी नहीं जाता। ठीक वही हालात जो पेटू इंसानों की या ‘खव्वा’ टाइप लोगों की होती है।
मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि मेरे अच्छे-भले सपनों को इन्होंने नष्ट कर दिया। एक रात की बात है कि मैं आराम से हवाई यात्रा कर रहा था बिना हवाई-जहाज के। अचानक कहीं से एक मच्छर ने मुझे काटा। मेरा संतुलन गड़बड़ा गया। मैं गिरने ही वाला था कि सपना टूट गया। मैंने ईश्वर का शुक्रिया किया कि मुझे आसमान से गिरने और मरने से बचा लिया। लेकिन वास्तव में मैं पलंग से नीचे गिर गया था। तभी एक मच्छर मेरे कान पर भिनभिनाया। वह शायद यही गा रहा था-‘कहो कैसी रही।’
-HARMINDER SINGH
Friday, December 12, 2008
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
सुंदर वर्णन. सुना है ख़टमल वापस आ गये हैं! आभार ख़टमल का नहीं, आपका.
ReplyDeleteक्या कहने! मच्छरों और खटमलों की तो आजकल चांदी ही चांदी है। मच्छरों से छुटकारा पाने के सबसे बढ़िया उपाय है कि जिस गंदे पानी में वे पैदा होते हैं, उसपर मिट्टी का तेल छिड़क दिया जाये। शायद सभी मेरा इशारा समझ रहे होंगे।
ReplyDeleteलेकिन खटमलों का उपाय मुझे अब तक नहीं मालूम।
बहुत अच्छा लेख।मुझे याद है जब मै 10 11 साल का था, तक मलेरिया के विरूद्ध देश में बड़ा अभियान चला था, जगह जगह दीवारो पर नारे लिखे थे , मच्छर रहेगा पर मलेरिया नही। आज मच्छर भी है। मलेरिया भी! मलेरिया ही नही मच्छर से नही बुखार डेंगू भी आ गया।
ReplyDeleteसमाजशास्त्र का सिद्धान्त है प्रकृति से अनुकूलन का। वे नस्ले जो प्रकृति से अनुकूलन कर चुकीं, वे जिंदा है।जिंन्होंने अनुकूलन नही किया। वे डायरासोर की तरह खत्म हो गई किंतु मच्छर पहलवान अपने विरूद्ध चले अभियान में आैर ज्यादा मजबूत ही होकर उतरें है।