बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, June 30, 2009

वृद्धा को गंगा में फेंका

उत्तर प्रदेश के उमर सहादतपुर गांव की 70 वर्षीय दानकौर को उसके परिजनों ने ब्रजघाट पुल से गंगा में गिरा दिया। वृद्धा कुष्ठ रोग से पीड़ित बताई जाती है। उसे फेंकने वालों में उसका पति, पुत्र व बहू शामिल थे। पीएसी के गोताखोरों ने वृद्धा को जीवित बाहर निकाल लिया। पुलिस ने वृद्धा के पति, बहु व बेटे के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया और उन्हें जेल भेज दिया गया।

-sumit kumar


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गुरु ऐसे ही होते हैं



जीवन का निष्कर्ष नहीं



तब जन्म गीत का होता है

गुरु ऐसे ही होते हैं

कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें आप भूल नहीं सकते। उनके आप आजीवन आभारी रहते हैं। उनसे आपने बहुत कुछ सीखा होता है। हम उनका धन्यवाद पहले करना चाहेंगे जिन्होंने हमें शिक्षा दी, बाद में अपने माता-पिता का। एक ने हमें जन्म दिया-बहुत बड़ा उपकार किया। गुरुओं ने हमें जीने की कला सिखाई-यह सबसे बड़ा उपकार है।

हमने शरारत की, उन्होंने हमें डांटा भी। हम अगर रोये, उन्होंने हंसाया भी। हम लड़खड़ाए, उन्होंने सहारा दिया। अपनी उंगली दे आगे बढ़ाया, हमारा हौंसला गिरने न दिया। यह उनका प्रेम है और कभी न खत्म होने वाला- निरंतर प्रेम।

चुपचाप वे रहे, खूब बोले भी, लेकिन नजर बराबर हम पर रही। घर से स्कूल का सफर हमने तय किया। जीवन के सफर के बारे में हमारे गुरुओं ने हमें बताया।

बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनों से बड़ों का हमेशा अपमान किया। इसमें उनका आनंद रहा। वे भूल गये कि वे क्या कर रहे हैं। पहले अपने माता-पिता से शुरुआत की। घर में कोहराम मचाया। स्कूल में गये तो वहां अपने गुरुओं को सम्मान नहीं दिया। ये वे लोग हैं जो सम्मान का मतलब ही नहीं जानते। यदि जानते तो ऐसा कभी नहीं करते।

मैं अपने गुरुओं को आज तक नहीं भूला। मुझे लगता है कि उनकी बताई बातों को हम खोते जा रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने हमें कभी कुछ गलत बताया हो।

रंजना दूबे को मैंने कम हंसते हुये देखा, जबकि विजया डोगरे का मुस्कराता चेहरा मुझे आज भी याद है। दोनों का अपना तरीका था, उनके विषय अलग-अलग थे, लेकिन मकसद एक था और आज भी ये शिक्षिकायें अपने कार्य में तल्लीन हैं।

डोगरा जी कहती थीं कि वे हम सभी को जानती हैं। उनका मतलब था कि वे हमारी अच्छाईयों-बुराईयों को परख चुकी थीं। ऐसे लोग आप पर असर डालते हैं। बच्चों का मस्तिष्क अधिक संवेदनशील होता है। उसे हल्की सी आहट भी चैंका देती है। उनका च’मा शायद आज भी उनके साथ है जिसकी नजर हर बारीकी को परखती है, और मुझे लगता है कि वे बच्चों को एक मां का प्यार भी करती हैं, मुझे तब ऐसा महसूस हुआ था। चेहरे पर सख्ती के भाव आ जरुर जाते हैं, लेकिन वे वैसी बिल्कुल भी नहीं थीं, अब बदल गयी हों ऐसा मैं कह नहीं सकता।

डोगरा जी हमारी क्लास टीचर रहीं, कई साल तक। उनके सानिध्य में सभी बच्चों को अपनापन महसूस हुआ। जिन लोगों से आप खुश रहते हैं, जो आपको दूसरों की अपेक्षा बेहतर सकते हैं, उनसे एक लगाव सा हो जाता है। वक्त कितना भी बीत जाये, डोर कमजोर नहीं पड़ती। मुझे नहीं लगता स्कूल से विदा लेकर गये बच्चे उन्हें भूले होंगे। मैं यह भी उम्मीद करता हूं कि वे हमें भूली नहीं होंगी।

वे हमें गणित पढ़ाती थीं। मैं कितना पढ़ता था, यह वह अच्छी तरह जानती हैं। एक बात मैं बताना चाहूंगा कि मैथ से मैं कई बार नहीं, बहुत बार घबरा जाता था, लेकिन कोशिश जारी रहती थी। सबसे अधिक मेहनत मैंने गणित में ही की, लेकिन उतना अधिक हासिल नहीं हो सका। उनकी भाषा साधारण थी। उनकी कक्षा में बोर होने का कोई मतलब ही नहीं था। मेरे हिसाब से गणित की बारीकियों को उनसे बेहतर हमें कोई समझा नहीं सकता था क्योंकि धर्मेन्द्र चतुर्वेदी से बच्चे खौफ खाते थे। वे दूसरे सेक्शन में मैथ पढ़ाते थे।

विजया डोगरा बच्चों की मानसिकता को समझती थीं, इसलिये उनके साथ हम सहज थे। जितने आप बाहर से नरम होते हैं, कई बार गुस्सा आने पर वह काफी बड़ा लगता है। उन्हें गुस्सा कम आता था। एक-आध बार उन्होंने आवेश में आकर गलती करने वालों की काफी खिंचाई की लेकिन वे पिघल भी जल्दी जाती थीं। यह उनका प्रेम था जैसा एक मां का अपने बच्चों से होता है- सख्त भी और नरम भी।

-हरमिन्दर सिंह

Friday, June 26, 2009

जीवन का निष्कर्ष नहीं

मैंने काकी से पूछा-‘हम यूं ही भागते रहेंगे और यह दौड़ कभी खत्म नहीं होगी। जीवन का निष्कर्ष निकलेगा या नहीं।’

काकी ने आंखें मूंद लीं। कुछ पल की चुप्पी के बाद उसने कहा,‘किस निष्कर्ष की बात कर रहे हो? जीवन का मतलब किसी परिणाम से नहीं है। वह तो केवल जीना और मरना जानता है। भोले हैं हम जो उस विषय को बार-बार कहते रहते हैं जबकि मकसद का आज तक पता नहीं चल सका। कितने आये और गये, लेकिन जीवन को छूकर ही रह गए, उसके तोड़ की बात तो बहुत दूर की है। यह हम सुनते आये हैं कि परलोक इस लोक से अलग है। यह भी सुना जाता है कि वहां मरने के बाद ही जाना संभव है। फिर प्रश्न खड़ा होता है कि मृत्यु के बाद जीवन कैसे संभव हो? परलोक के राज तो इस तरह छिपे ही रहेंगे। मृत्यु को जाने बिना जीवन को जाना नहीं जा सकता।’

मुझे काकी ने बड़ी उलझन में डाल दिया। जीवन की गुत्थी बहुत उलझी हुई है। इसका सुलझना नामुमकिन है। यह सच है कि जिंदगी की दौड़ कभी थमेगी नहीं। यह भी सच है कि हम इसी तरह पैदा होते रहेंगे और मरते रहेंगे। यह सब यूं ही चलता रहेगा क्योंकि जीवन कभी रुकता नहीं।’

काकी ने पास रखे बर्तन से पानी की कुछ बूंदें अपनी सूखी हथेली पर उड़ेलीं। काकी की हथेली नम हो गयी। उसने कई बार ऐसा किया। कुछ समय बाद वह बोली-‘पानी बहता है क्योंकि यह जीवित है। इसे हम ग्रहण करते हैं, इसलिए हम जीवित हैं। इसे जीवन भी कहा जाता है। पानी जीवन देता है। मेरी हथेली पहले सूखी थी, कुछ पानी से नम हो गयी। जीवन से पहले हम शून्य होते हैं। जीवन हमें शून्य से फिर शून्य में भेजता है। यही जीवन का सार है। यहीं हंसी-खुशी, दुख-वेदना और उठना-गिरना सीखते हैं हम। प्रत्येक उत्पत्ति का अपना दायित्व होता है जिसे पूरा करने के बाद अलविदा कहा जाता है। पर जीवन का मकसद छिपा रहता है।’

‘मैंने काफी समय खर्च किया पर बिना निष्कर्ष के ही रही। कुछ सवाल ऐसे होते हैं जिनका हल नहीं निकलता, लेकिन सवाल असल में वे ही होते हैं। बातों को घुमाया-फिराया जा सकता है, लेकिन जीवन की गुत्थी को हल नहीं किया जा सकता। अगर हल निकल जाता तो इंसान जीवित ही रहता।’

बूढ़ी काकी को लगा कि मैं ज्यादा गंभीर हो गया हूं। उसने मेरी आंखों के आगे हाथ हिलाया। हल्का सा मुस्कराई और धीरे से कहा-‘कहां खो गये?’ मैंने पलकें झपकीं और सोच में डूब गया। वाकई जीवन खुद के विषय में सोचता बहुत है।

-harminder singh

तब जन्म गीत का होता है

एक आह चीरती है मन को, प्रतिछेदित करती है तन को,
तब जन्म गीत का होता है,

अवसाद के तह तक जाने से, बोझा दुख का बढ़ जाने से,
तब जन्म गीत का होता है,

झरने सा अविरल झरता है, नदिया सा प्रतिपल बहता है,
तब जन्म गीत का होता है,

सैलाब सा बनकर आता है, बनकर ज्वाला फट जाता है,
टैब जन्म गीत का होता है,

एक चिंगारी सी उठती है, बनकर अग्नि जल जाता है,
तब जन्म गीत का होता है,

जब मन ये हिलोरें लेता है, अनजाने स्वप्न संजोता है,
तब जन्म गीत का होता है,

मनमोहक दृश्य होता है, उस भोर खिंचा मन जाता है,
तब जन्म गीत का होता है।

-Rekha Singh

Thursday, June 25, 2009

विदा, अलविदा!

ये हंसी थी, खुशी थी,
अब करुणा बह रही,

नयनों की भाषा नहीं,
मुक्त नेत्रों से कुछ कह रही,

विदा, अलविदा,
सदा के लिये विदा,

क्या कहा, कुछ कहा,
यहां-वहां-कहां,

अकेला, निर्जन,
कुछ कह रहा,

वेदना की लहर,
समझा रही अपार,

सागर मद्धम गति का,
अश्रु जल का अंबार,

विदाई भली, दूरी बड़ी,
काया नहीं, जीवित चली,

अनंतता की ओर
मगर पुकार नहीं,

अनसुनी ध्वनि,
यम की गली,

वह चली,
बिल्कुल अकेली,

निष्ठुर नहीं,
फिर भी चली,

वहीं एकांत में,
मरघट तक सभी चले,

चक्षू आद्र हुये, नयन सजल,
कैसी दशा मन बैठे, ठिठके,

अब बस यहीं तक चले साथ,
पथ पार करेगा जीव पैदल,

यहीं रहा, यहीं का सब,
था क्या? क्या तेरा? किसका?

अकेला उड़ चला, ली विदाई,
लीन हुआ जो जहां का,

मगर व्यथा करुणा की
मन को कैसे रोके,

बार-बार कर रहा पुकार,
नहीं, लौटो अवश्य इक बार।

-Harminder Singh

Wednesday, June 24, 2009

पहले दिल टूटा था, अब जश्न मन रहा

पाकिस्तान के लिए यह खुशखबरी का समय है। पड़ौसी मुल्क ले अपने देश के लोगों को सही समय पर खुशखबरी दी है। पाकिस्तान को इसकी जरुरत थी। क्रिकेट के मायने पाकिस्तान में भारत की तरह हैं। यहां की गलियों में इस खेल का शोर रहता है, तो वहां भी क्रिकेट का जुनून थमता नहीं। ट्वेंटी20 विश्व विजेता टीम पाकिस्तान को उसके देश में सर आंखों पर बिठाया गया। सड़कों पर जश्न का माहौल था, धूम-धड़ाके थे और झूमते-नाचते लोग। ऐसी मस्ती कभी भारत में भी देखी गयी थी। तब मुंबई की सड़कें तिरंगे रंग में रंगी थीं।

भारत से पिछले ट्वेंटी20 विश्व कप में मिली शिकस्त ने पाकिस्तानियों का दिल तोड़ दिया था। इसके अलावा वहां का माहौल क्रिकेट के लिए बिगड़ता जा रहा था क्योंकि पाकिस्तान में हवाओं का रुख हमेशा खतरनाक रहा है। खौफ की आंधियां कब चल पड़ें, खून के छींटे कब गिर जाएं, कोई नहीं जानता। सियासी हलचलों ने पाकिस्तान को अजीब तरह का मुल्क बना दिया है। आतंकवाद और आतंकवादियों से जूझता मुल्क जहां की सड़कें कब छींटो से लाल हो जाएं, यह भी कोई जानता नहीं। कब लाशें बिखर जाएं और मंजर खौफनाक हो जाए, नहीं मालूम।

मोइन खान ने कहा,‘यह जीत ऐसे समय मिली जब देश को किसी अच्छी खबर की जरुरत थी।’ असल में पाकिस्तान बहुत अर्से से अच्छी खबर सुनने को तरस गया था। 1992 में जब इमरान खान की अगुवाई में पाकिस्तान ने विश्व कप जीता, तब देश में जश्न का माहौल था।

-harminder singh

Sunday, June 21, 2009

जन्म हुआ शिशु का

जन्म हुआ शिशु का
जीवन जीने को,
मां का प्रेम दुलार
वक्ष दुग्ध पीने को,
अभिमान हो रहा बड़ा,
पर है यह शाप,
जितना बढ़ता,
पाता आयु अल्प अपने आप,

चिंतित रह शिशु प्रति,
प्रेम बढ़ता,
पर विधि की चलनी चली,
है वह कर्ता,
विदा किया लोक से,
बिना बताये उसे,
चला अनंत ओर,
हरा प्रभु ने जिसे,
लोग कहें,‘रोगी था’
मां उन्हें दुत्कार करे,
‘अभी जीता तू, उठ!
क्यों बहाने चार करे’,

अपूर्ण हुई आशा,
व्यथित वह नारी थी,
पुत्र-मोहिनी,
पुत्र-विछोह की वह मारी थी,
पत्थर गिरे, मस्तक हिला,
दयनीय विलाप वह,
अश्रु बहें चक्षुओं से,
पुत्र संताप वह,
प्रेम, अहंकार धूल बना,
चिता में भी जला,
तत्व पंच लीन,
दी राख जल से नहला,

‘कभी जन्म हुआ था,
मेरे शिशु का जीने को,
मेरा प्रेम दुलार,
वक्ष दुग्ध पीने को,
नहीं रहा वह लाल,
माटी बन, गया अभिमान,
जीऊं कैसे? हे ईश,
ले गया मेरी संतान,
हरना था जब,
क्यों किया उसे उत्पन्न,
नहीं करना था,
क्यों किया मुझे संपन्न’,

शक्ति सब देख रही,
मूकता का विधान है,
नित्य का आना-जाना,
चमत्कार श्री महान है।

-harminder singh

Saturday, June 20, 2009

सुबह की बात

सुबह का मौसम बड़ा शान्त होता है। टहलने वालों के लिये अतिलाभकारी। सड़के भी खाली होती है तो कोई परेशानी भी नहीं। धूल धक्कड़ ठहरा हुआ होता, बिना कोई हलचल मचाये। अच्छी सेहत चाहने वालों को यह मौका गंवाना नहीं चाहिये।

इन दिनों मौसम गर्म है। मौसम के बदलाव के साथ तापमान आर्द्र या शुष्क होता रहता है। चार बजे का जागना शायद कोई बुरा भी नहीं है। इसमें एक शर्त को जोड़ा जा सकता है कि आपने आठ या छः घण्टे की नींद ली हो। वैसे लम्बे दिन जारी है। दिन में दोपहर के समय एक-आद घण्टा आराम करना या नींद लेना बेकार बात नहीं है।

चार बजे उठने को जाने कितने जमाने से श्रेष्ठ माना जाता है। भगवान का भजन इस समय याद किया जाये तो क्या कहने। लेकिन बहुत से लोगों के पास समय होते हुए भी समय नहीं है। दरअसल हम उलझे हुऐ हैं और यह उलझन कुछ-कुछ तरक्की की और इशारा करती है। मगर तरक्की में भी तेजी की जरूरत होती है जिसे अच्छे स्वास्थ्य से पाया जा सकता है। हम ही इसमें शामिल है। यह हमारे ही लिये है।

यह एक समस्या है कि हम आरामतलब भी ज्यादा हो गये है। पेटू भी हैं ही। वैसे आदत डालने में थोड़ी बुराई है। कुछ आदतें बुरी हैं, तो एक अच्छी आदत कपड़ों की तरह कस के लपेट लो, बदलाव आना ही है। क्या पता इससे कुछ बुरी आदतों का दम घुट जाये।

मै दूध का धुला खुद को कैसे कह सकता हूं। अलार्म मैने चार बजे का लगाया तो कई बार उठा पांच बजे। अलार्म बेचारा यूं ही बजता रहा। शायद नीदें बहुत गहरी रहीं होंगी। लगातार चार या पांच दिन की सुबह की हल्की दौड़। फिर तीन चार दिन का आराम, वही पुराना सुस्त ढर्रा, बिना फायदे वाला। फिर कुछ दिन का टहलना, फिर नहीं। यह क्रम अजीब लगता है। हम अपने आप को बदलना नहीं चहाते। कई मामलों में हम सब ढीठ होते हैं।

दूसरों को नसीहतें देने का सबसे बड़ा ठेका जैसे हमने ले रखा है। ‘‘अरे! भई आप ऐसा क्यों नही करते? वैसा क्यों नहीं करते? यह बढिया है? और न जाने क्या-क्या। नसीहतें दर नसीहतें पर खुद को बदलने की तैयारी कब करेगें खुद भी नहीं जानते।

एक बात साफ है कि मैंने भोर काल में स्वयं में हुऐ परिर्वतनों को महसूस किया है। दिन भर की सुस्ती को कई गुना कम किया है। अपनी मानसिकता में बदलाव का अनुभव करने का मौका मेंने गंवाया नहीं। महीने में लगभग बीस दिन सुबह की ठण्डी हवा के झोकों से रूबरू हुआ हूं, यह वाकई मजेदार रहा।

वही पुरानी कहावत,‘उम्मीद पर दुनिया कायम है’, अपने लिये कहता हूं। शायद इस लेख को लिखने के बाद तीसों दिन सुबह की ताजगी का आनंद लूं।

अब बारी आती है कारण गिनाने की। देर से उठने के सबके अपने-अपने कारण। रात को देर से सोये। बिजली नहीं थी। मच्छरों का हमला। रात जागकर गुजारी। प्रश्न उठा कि सोये कब थे? उत्तर-‘पता नहीं चला कब आंख लग गयी।’

मेरा अपना कारण -दिनभर पी. सी. के साथ झगड़ा। रात दस से बारह इंटरनेट पर कई अखबारों को पढ़ा। प्रश्न उठा अखबार तो दिन में भी पढे जा सकते हैं? उत्तर-‘दिन में सब पढते हैं।’ दरअसल समय नहीं मिल पाता।

खैर छोडि़ये प्रश्न उत्तर का खेल। हम कई बुजुर्गों से जवान होते हुए भी पीछे हैं। मैने कई उम्रराज सुबह टहलते देखे हैं। पूर्व बेसिक शिक्षा अधिकारी नेत्र पाल सिंह से अभी तक दो बार सुबह के समय मुलाकात हुई। वैसे वे अक्सर मिलते ही रहते हैं। मैंने उनसे पूछा,‘‘आप इसी तरह रोज घूमने आते हैं।’’ उनका जबाव छोटा था,‘‘कभी इस राह निकल जाता हूं, कभी उस रास्ते।’’ उनकी बूढ़ी हड्डियां आज भी जवानी का एहसास कराती हैं। शायद उनसे मैं कुछ प्रेरणा ले सकूं।

मैं जिस समय टहलने निकलता हूं, उस समय मोहल्ले की मस्जिद के मुल्ला अजान लगा रहे होते हैं। कुछ दूरी पर चैराहे के पास बने मंदिर में घंटियों की गूंज सुकून पहुंचाती है। सुन्दर भक्ति संगीत बज रहा होता है। थोड़े कदम बढ़ाता हूं जो गुरुद्वारे में गुरुवाणी पढ़ी जा रही होती है। मन वाह! करने को करता है। मैं तो इसे कुछ मिनटों का धार्मिक पयर्टन कहता हूं। बाहें फैलाने का मन करता है, शांति, आनंद कितना है जिसे समेटा जा सके।

-by HARMINDER SINGH

गरमी

गरमी गरम करती गरम हवायें,
ऊष्मा की तपती लहरें चल जायें,
हर क्षण जब हो तीक्ष्ण प्रहार,
व्याकुल हों प्यासे, शीतलता अभाव,
तपिश को बहने दो, बहेगी वह,
आकार बड़ा, प्राणी-प्राणी कहेगी वह,
‘मेरा रुप विशाल, जल जाओगे,
दूंगी सबको शुष्कता, क्या पाओगे?
कुछ नहीं, कुछ नहीं होगा मेरा,
हे, मानुष-जीव कहां दंभ तेरा?’
छिपकर रहना सिखा दिया है,
नित्य है संघर्ष बता दिया है।

-हरमिन्दर सिंह

Thursday, June 18, 2009

जवानी और बुढ़ापा

उछलती हुई अभिलाषायें हमें बहुत कुछ बता देती हैं। उनका इशारा कई बार हमारी समझ से बाहर होता है। जवानी बुढ़ापे से पहले खूब हंसती-खेलती है। अंतिम दिनों की त्रासदी से पहले का यह जश्न अजीब नहीं होता। यह सच्चाई है कि जवानी कुलांचे मारती है और कहती है,‘मेरा क्या कहना? बस मैं ही मैं हूं।’

उधर बुढ़ापा जवानी को देखकर हल्की मुस्कान लाता है। कहता है,‘मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा हूं।’ पर बुढ़ापे की आवाज जवानी के कानों तक पहुंच नहीं पाती।

एक ओर जोश है, तो दूसरी तरफ निराशा से सना शरीर। दमकती आंखें और फड़फड़ाती बाती में बहुत फर्क होता है। खेल का योद्धा तीव्रता को हांकता हुआ आगे बढ़ता है। अनगिनत दास और दासियों का राजा। हुंकार भरता हुआ, मानो समय उसने मुट्ठी में कर लिया हो। भ्रम, बहुत बड़ा भ्रम उसके मस्तिष्क को जकड़े हुए है। आंखों की पट्टी नजर को धुंधला करती है। पर योद्धा तो हवा से बातें करता है। एक वेग जो थमता नहीं। वाह, अद्भुत शक्ती का परिचय।

उधर थकी आंखें पल-पल की कीमत जानने वाली। अब अंतिम पल का इंतजार है और आखिरी उड़ान की तैयारी। पेड़ पहले छायादार था, वक्त की मार न झेल पाया। सूखे ठूंठ की जर्जरता उसकी आखिरी निशानी है। जश्न कब के अलविदा कह चुके। नदियों का पानी कब का सूख चुका। सब सूना-सा लगता है। जीवन का अंतिम छोर बस सिमटने को है। कांपती अंगुलियां खिलखिला नहीं सकतीं, सिर्फ सिरे को स्पर्श कर सकती हैं।

विदाई की रस्म नहीं, बस चुपचाप जाना है। कभी ये था, कभी वो, किस्सा पुराना है। मंजिल नयी थी कभी, अब सिर्फ अफसाना है। बुढ़ापा सिलटों की गहराई को जानता है। जवानी अभी उनमें नहीं नहायी है। कमाल है, जौहर दिख चुका जाने कब का। जिंदगी ठगी हुई लगती है। वीरान गलियों का थका-हारा मुसाफिर रोशनी खो चुका है। जालों की अंगड़ायियां रह रहकर चिपकती हैं।

जवानी अंजान है, बुढ़ापा बेजान। शोर मचा था, अब थमा है। यात्रा की तैयारी है, अब किससे यारी है। बिछड़ने की बारी है, मगर मंद मुस्कान के साथ। स्मरण उन पलों का जो अनमोल थे, आज उनका कोई मोल नहीं। जीवन चला तो था खुशी-खुशी, अब जा रहा है दुखी-दुखी।

-harminder singh

Friday, June 12, 2009

रसहीनता का आभास

काकी को लगता है कि उसने जीवन को भरपूर जिया। उसने मुश्किलों को झेला, दुनिया के असल रंगों को करीब से देखा। हर उस चीज को देखा जिनसे जीवन प्रभावित होता है। उसने यह पाया कि बिना मुसीबतों के हल किए आगे नहीं बढ़ा जाता। वक्त का दायरा आज ऐसा है, लेकिन कल बदल जाए, तब क्या हो? तमाम जिंदगी उलझे रहते हैं हम। उलझनें हैं कि मिटने का नाम नहीं लेतीं।

बूढ़ी काकी को देखता हूं तो लगता है जैसे जीवन का सार इन सिलवटों में सिमटा है। झुर्रियां काया को बेजान बनाती हैं, पर यह सब यूं ही नहीं हो गया। संघर्ष के परिणाम किसी को भी थका सकते हैं। जीवन की लंबी लगने वाली लड़ाई अब छोटी मालूम पड़ती है। उम्र ढलने पर योद्धा निहत्था हो जाता है। ऐसा उसकी मजबूरी है क्योंकि जीवन में वक्त की बहुत अहमियत है। समय गुजरने के करीब है और दिन ढलने वाला है। पंछी को अपने घर जाना है।

सभी रसों का स्वाद पाकर, बाद में रसहीनता का आभास होता है। काकी कहती है,‘‘जीवन सुखों और दुखों से भरा है। यहां रंगीनियां एक ओर हैं, उनकी छटा निराली है। यहां रोते-बिलखते-तड़पते लोगों का मेला भी है। स्वाद की अनेक वस्तुएं हैं और आनंद मनाने के साधन भी। सब कुछ तो है हमारे पास।’’

‘‘विभिन्न तरह के जायकों से संसार भरा है और उसमें गोता इंसान लगा रहा है। रस का पान करते-करते जीवन छोटा लगता है क्योंकि ज्यादातर लोग उसे ही आनंद का असली रुप समझ लेते हैं। यह उनकी भूल होती है।

सिलवटें इकट्ठा होने पर अहसास होता है कि इतने स्वाद होते हुए भी जीवन रसहीन है। नीरसता और हताशा का माहौल बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। वक्त कई जायके दे जाता है- अनगिनत स्वादों से भरे।

जीवन का मखौल उड़ाने वाले प्राय: अंतिम समय पीछे मुड़कर देखते हैं। तब सारे आनंद विदा ले चुके होते हैं। वे कह चुके होते हैं-‘हमारा साथ यहीं तक था।’ देह को देखकर चौंकना स्वभाविक है। फिर थका-हारा व्यक्ति बीते दिनों की चमकीली रेत को सोचकर मायूस होता है क्योंकि आज उसके हाथ पर रेत को भी शर्म महसूस होती है।’’

मुझे लगने लगा कि काकी जीवन की सच्चाई को धीरे-धीरे ही सही, अपनी पोटली से बाहर निकाल रही है। जीवन यह कहता है कि वह तृप्ति की तलाश में यहां आया था, तलाश अधूरी रही, अतृप्त होकर जा रहा है।

-harminder singh

Tuesday, June 9, 2009

महिला आरक्षण से महिलाओं का उद्धार नहीं होगा

देश में आजकल राजनीति, विशेषकर संसद में पचास फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित किये जाने का मामला गरमाहट में है। कांग्रेस इसके लिए सदन से एक प्रस्ताव शीघ्र ही पारित कराना चाहती है। राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में भी इस पर जोर दिया। इसके लिए विभिन्न राजनैतिक दलों की अलग-अलग प्रतिक्रिया हैं। खासकर समाजवादी पार्टी महिलाओं के लिए संसद में आरक्षण की तो पक्षधर है लेकिन जैसा सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी चाहती है उसे सपा नहीं चाहती।

पचास फीसदी महिला आरक्षण के हिमायती यदि इसमें सफल रहे तो राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा मिलेगा। जिसका कोई भी लाभ महिलाओं को नहीं मिलेगा। आरक्षण लागू होने पर कुरसी पर विराजमान नेता सुरक्षित सीट से अपनी सगी संबंधी महिलाओं को आगे लाकर और भी मजबूत हो जायेंगे।

लोगों में शिक्षा के साथ राजनीति के क्षेत्र में आने का प्रचलन बढ़ा है। आजकल चुनाव लड़ना बहुत ही महंगा सौदा है। ऐसे में किसी निर्धन का चुनाव लड़ना केवल दिवास्वप्न ही नजर आता है। अत: वैध या अवैध कमाई करने वाले पूंजीपति ही चुनाव लड़ सकते हैं। यदि महिला आरक्षण बिल पारित हो गया तो ऐसे पूंजीपति अपनी पत्नि, पुत्री या भाभी या किसी निकटस्थ महिला को सुरक्षित सीट से चुनावी मैदान में उतारेंगे। जो लोग सियासत को अपनी पैतृक विरासत माने बैठे हैं, वे सत्ता पर अपनी पकड़ और भी मजबूत कर लेंगे। आम महिलाओं का फिर भी सत्ता में पहुंचना कोरी बकवास सिद्ध होगा।

राजद प्रमुख लालू यादव को ही देखें तो राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर परोक्ष रुप से उन्होंने सत्ता अपने हाथों में ले ली जबकि अदालत ने उन्हें अयोग्य तथा चारा घोटाले का दोषी मानकर जेल भिजवाया था। सिंहासन पर राबड़ी देवी को बिठाकर उन्होंने जेल से ही बिहार की सरकार चलायी।

पचास फीसदी महिला आरक्षण लागू होने से चंद घाघ नेताओं को ही लाभ पहुंचेगा। देश की महिलाओं को उससे कोई लाभ नहीं होने वाला।

जब प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री बनने से महिलाओं पर अत्याचार कम नहीं हुए तो पचास फीसदी आरक्षण से महिलाओं का क्या उद्धार होगा? दिल्ली सरकार में लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनीं शीला दीक्षित दिल्ली में महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार और हत्याओं को नहीं रोक पायीं। चौथी बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के बनने पर क्या शेष महिलाओं पर अत्याचार समाप्त हो गये? महिलाओं पर पुरुषों से अधिक दुराचार महिलाओं द्वारा ही होता है। वे अत्याचारी पुरुषों का साथ देती हैं। इस तरह के अपराध करने वाले या वाली सीमित संख्या में होते हैं। उसके लिए पूरे पुरुष वर्ग को अपराधी मानना बहुत ही बड़ी भूल है। यदि शत प्रतिशत सांसद भी महिलाओं को बना दिया गया, तब भी इस तरह के अपराध बंद नहीं होंगे। इसका कारण तो कुछ और ही है। महिलाओं के अधिकारों से उसका कोई लेना देना नहीं। यह एक सामाजिक कुरीति है जिसे समाप्त करने के लिए पूरी ईमानदारी और इंसानियत को जाग्रत करना होगा। अधिकांश पुरुष महिलाओं को पुरुषों से अधिक सम्मान देते हैं। क्या इसके लिए संपूर्ण पुरुष समाज को दोषी माना जा सकता है? हमारे समाज में अपनी पत्नि, मां, बहन या बेटियों की सुरक्षा तथा उनके मौलिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले अधिकांश लोग हैं। जो महिलाओं पर अत्याचार करते हैं, उनकी संख्या मुट्ठी भर भी नहीं। आरक्षण के बजाय अपराधी पुरुषों को सख्त से सख्त सजा का कानून सख्ती से लागू किया जाये तो मातृ-शक्ति के दुश्मनों का नाश असंभव नहीं। महिला आरक्षण महिलाओं को कोई लाभ देने के बजाय चंद लोगों को सत्ता अपनी बपौती बनाने का एक हथियार ही सिद्ध होगा।

-G.S. Chahal
editor
gajrola times

Monday, June 8, 2009

गधे की सवारी

हम कई लड़के इकट्ठे होकर कई बार उलजलूल योजनायें बना चुके थे। सफलता एक बार भी हाथ नहीं लगी। लेकिन हाथ-पैर को हिला-डुलाने में कई बार तकलीफें महसूस अवश्य कीं। खैर, अबकी बार किसी जानवर पर सैर करने का प्लान मेरे सहपाठियों ने तैयार कर लिया। योजना मंडली में केवल चार ही बंदे रह गये थे, क्योंकि बाकी ‘रिस्क’ लेना नहीं चाहते थे। उनका कहना था,‘‘अभी और जीना है।’’ हमने भी साफ कह दिया था,‘‘अगर सही सलामत रहे तो फिर मिलेंगे।’’ वैसे इतना खतरनाक काम हम करने नहीं जा रहे थे।

अंत में कुत्ते के नाम पर सबने सहमति जता दी। कुत्ते की सवारी करने का प्लान बहुत महंगा साबित होने वाला था। गधे के बारे में सोचा था, लेकिन एक दोस्त ने ऐसी कहानी सुनाई की हमारे रोंगटे खड़े हो गये। वह और उसका एक मित्र मोहल्ले के बाहर चरने वाले एक छोटे-से गधे के बच्चे को उल्लू बनाकर उसकी पीठ पर बैठना चाहते थे। जब तक उन्हें उसकी दुल्लती का ज्ञान नहीं था। दोपहर के समय तपती गरमी में अकेले गधे के पास भी पहुंच गये। साथ में एक हल्की कुर्सी भी थी, ताकि आसानी से सवार हुआ जा सके। एक पीठ पर बैठ गया, गधा शांत खड़ा था। दोनों बड़े खुश थे। तभी गधे की मां कहीं से आ गयी। बच्चा अपनी मां को देखकर दौड़ने लगा। एक मित्र जोकि गधे पर सवार था डर गया। दूसरा मित्र गधे की पूंछ पकड़ कर उसे रोकने लगा। गधा रुक गया, लड़के ने जैसे ही पूंछ छोड़ी, गधे ने इतनी तेज अपनी पिछली लात से प्रहार किया कि वह लड़का कई दिन तक घर से बाहर नहीं निकला। लात उसके जबड़े पर लगी थी। वहां कुछ दांत जरुर बिखरे थे। गधे के ऊपर बैठा लड़का सैर न कर सका। आज भी वह क्षण उसे याद आता है। ‘‘शायद मैंने सवारी गलत चुनी थी।’’ वह अपना मुंह खोल टूटे दांतों की ओर इशारा करते हुए कहता है।

मोहल्ले में सभी मित्र आ गये। मैंने उन्हें एक कुत्ते के बारे में बताया था। उसे प्यार से ‘टाइगर’ कहते थे। वह सीधा-सादा था, लेकिन ‘टाइगर’ बिल्कुल नहीं। पास ही एक बाग पड़ता था। वहां से रास्ता होकर सड़क तक जाता था। वह रास्ता खाली रहता। टाइगर को एक रोटी का टुकड़ा देकर वहां आसानी से ले जाया जा सकता था। हमने वही किया। पहले मैंने अपनी बहादुरी का परिचय देने का फैसला किया। मैं टाइगर के ऊपर सवारी के लिए तैयार था। अपने को जकड़ कर रस्सी से बांध लिया। कुत्ते के आगे मेरा मित्र रोटी का टुकड़ा लिए भागा। टाइगर ने दौड़ना शुरु किया। मैं वजन में हल्का था। मैं सवार था एक कुत्ते पर। पर यह क्या, मेरा संतुलन बिगड़ गया। मेरे पैर रस्सी से कस कर बंधे थे। टाइगर आगे-आगे दौड़ रहा था, मैं उसके पीछे घिसट रहा था। मेरी कमर घर्षण से तप चुकी थी। काफी देर बाद मेरे मित्रों ने टाइगर पर काबू पाया। सवारी करने की यह योजना भी फ्लाप हो गयी।

अगले दिन स्कूल में मित्रों ने योजना बनाई की क्यों न गधे की ही सवारी की जाये। अपने मित्र की सुनी कहानी और कुछ लागों के गधों के साथ घटे खटटे अनुभवों से मैंने इस योजना से हाथ खींच लिया। मेरे तीन मित्र इसपर अड़े हुए थे। मैंने कह दिया कि गधे की लात का वार बड़ा खतरनाक होता है, बच के रहना। शाम को मोहल्ले के मैदान में एक गधा उन्हें मिल गया। दो जने उसपर सवार हो गये, तीसरा मेरे पास खड़ा था। उन्हें मजबूती से रस्सी से बांध दिया गया ताकि गिर न सकें। मैंने एक डंडे से उसे हांक दिया। गधे पर सवार मित्रों ने कहा,‘‘अबकी बार जरा तेज से डंडा मारना।’’ मैंने पूरे जोश में आकर गधे की टांगों पर डंडा जमा दिया। गधे की चीख निकल गयी। ढेंचू-ढेंचू कर गधे ने दौड़ लगा दी। हमें पता नहीं चला कि गधा फिर उन्हें लेकर कहां गया। काफी इंतजार कर हम घर लौट गये।

अगली सुबह वे दोनों मित्र स्कूल नहीं आये। पता चला कि अस्पताल में भर्ती हैं। ‘‘हो गया वही जिसका डर था।’’ मैंने कहा। उन दोनों के हाथ उठ नहीं रहे थे, टांगों पर भी सफेद पट्टी बंधी थी। उनकी कथा कारुणिक थी। उन्होंने एक ही बात को कहा,‘‘पता नहीं कहां-कहां घसीटे गये। अगर बंधे न होते तो बच जाते।’’

आज भी जब उन्हें कहीं कोई गधा मिलता है, वे उसके आगे हाथ जोड़कर निकल जाते हैं।

-हरमिंदर singh

महिलाएं नहीं बदलेंगी

रेलगाड़ी के डिब्बे में कई महिलाएं सफर कर रही थीं। मेरे समीप एक अधेड़ महिला बैठी थी। उसकी दो बेटियां जिनकी उम्र 10 से 15 के बीच होगी अपनी मां से जिद कर रही थीं कि उन्हें जादुई अंगूठी चाहिए। मां ने पहले मना किया फिर दस रुपये के दो नोट निकाल कर दो अंगूठियां ले लीं। कुछ समय बाद उसने खुद भी एक अंगूठी खरीद अंगुली में पहन ली। उसके सामने दो बुजुर्ग महिलाएं बैठी थीं। उन्होंने भी देखादेखी अंगूठियां खरीद लीं। अंगूठी बेचने वाला व्यक्ति यह कह रहा था कि कोई ऐसी-वैसी अंगूठी नहीं है। काले घोड़े की नाल से बनी है। इससे गृह क्लेश, दुख और परेशानी कुछ समय में ही दूर हो जायेगी।

फिर खिड़की के बराबर में बैठी दो महिलाएं ने आपस में विचार-विमर्श किया। मुझे हैरानी हुई कि उन्होंने भी अपने लिए अंगूठियां लीं। वे पढ़ी-लिखी लग रही थीं।

अंधविश्वास को सबसे अधिक महिलाएं मानती हैं। यही कारण है कि वे अपने परिवार की शांति के लिए विभिन्न तरह के क्रियाकलापों में व्यस्त रहती हैं। जहां भी उन्हें लगता है कि यहां से कुछ उम्मीद है, वे वहीं मत्था टेक आयेंगी या प्रसाद चढ़ायेंगी।

यह सच है कि महिलाएं आसानी से भावनाओं में बह जाती हैं। उनकी मानसिकता है कि वे देखा-देखी बहुत कुछ कर जाती हैं। उनमें दूसरी महिला की बराबरी करने की आदत होती है या उससे आगे निकलने की अजीब होड़। अधिकतर महिलायें दूसरी महिला से इर्ष्या का भाव रखती हैं- ऐसा कई शोध खुलासा कर चुके हैं। महिलाओं को सबसे अधिक ठगा जाता है। इसका मतलब है कि वे कई मायनों में भोली होती हैं।

-harminder singh

Sunday, June 7, 2009

तो किसे अपना मानें?

रिश्तों के दायरे कभी इतने मजबूत हो जाते हैं कि गैर भी अपनों से बढ़कर हो जाते हैं। कभी अपने इतने बेगाने हो जाते हैं कि अपने खून के रिश्तों को तार-तार कर देते हैं या करने पर आमादा होते हैं। यह एक घर की कहानी नहीं लगती क्योंकि ऐसे मामले समय-समय पर सामने आ रहे हैं। रिश्तों के मायने शायद कोई रह नहीं गये। बेटियों को डरकर जीना पड़ता है, समाज से भी और अपनों से भी। उनका डर उन्हें सहमने पर मजबूत करता है। वे अपनों पर से विश्वास खो देती हैं। बेटियों का जीवन कभी आसान नहीं रहा। उनपर सदा चील-कव्वों की नजरें रही हैं। शिकार करने वाले भूखे भेड़िये उन्हें नोचने के लिए तैयार बैठे रहे हैं। मौका मिला नहीं कि शिकार पर हाथ डाल दिया। तब उनकी तड़पन और छटपटाहट को देखने के सिवा किया ही क्या जा सकता है। उनकी जिंदगी पल भर में वीरान कर देते हैं ऐसे भूखे भेड़िये और रह जाती हैं बस रोती-बिलखती लाश से भी बदतर जिंदगी ढोने को मजबूर बेटियां।

हाल ही में एक पति ने अपनी पत्नि की चाकुओं से गोद कर हत्या कर दी। चौंकाने वाली बात यह है कि एक पिता अपनी सगी बेटी पर बुरी नजर रखता था। इसका उसकी पत्नि ने विरोध किया तो उसे जान से हाथ धोना पड़ा। जब उसकी दोनों बेटियों को मां की मौत का पता चला तो उन्होंने अपने बाप को सरेआम पीटकर अधमरा कर दिया। यह घटना उ.प्र. के कुन्दरकी के गांव इमरतपुर की है।

अर्जनटिना में भी एक पिता ने तो अपनी सगी बेटी का कई साल तक यौनशोषण किया। मुंबई में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। ये मामले सामने आ गए। लेकिन उन मामलों का क्या जो अभी तक बंद दरवाजों में छिपे हैं। जब तक चीखों की आहट दूसरों तक पहुंचती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ऐसे पिताओं को जल्लाद से भी बदतर संज्ञा दी जाए, वह कम ही है। उन्हें ऐसी सजा दी जानी चाहिए जो दूसरों के लिए सबक हो। ऐसे लोग समाज को खराब तो करते ही हैं, साथ ही अपने स्वार्थ के लिए एक मासूम का जीवन भी बर्बाद कर देते हैं। ये हत्यारों से भी खतरनाक हैं। बेटियां आखिर किसके पास जाएं अपनी सुरक्षा के लिए क्योंकि उनका अपना घर तक उनके लिए सुरक्षित नहीं रहा। वे समाज से डरती हैं कि कहीं उनके परिवार पर बदनामी की कालिख न पुत जाए और यह सदा के लिए एक धब्बे की तरह हो जायेगा। मगर एक न एक दिन तो सच सामने आता ही है, तबतक कहानी बहुत खराब हो चुकी होती है।

हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां रिश्तों की बहुत अहमियत होती है। बाप और बेटी का रिश्ता पवित्र होता है। उसे आंच किसी कीमत पर नहीं आनी चाहिए। रोती आंखों और दुखी मन को देखने वाला कोई नहीं है। ऐसा आखिर कब तक होता रहेगा और हम केवल परिणाम का इंतजार करेंगे या सच सामने आने का। लेकिन तब तक तो बहुत कुछ बिखर चुका होगा। बेटियों को डर-डर कर कब तक जीना होगा? कब तक उनका शोषण होता रहेगा, बाहर भी और घर में भी? बेटियां फिर क्यों न कहें कि वे किसे मानें अपना?

-harminder singh
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...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com