बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Thursday, November 6, 2008

उड़ती-चलती जिंदगी




जिंदगी जीने का मुकाम सिखा रही है। यह हंस रही है और मुस्करा रही है। आने वालों को आना है तो आओ, बाकियों को छोड़ती जा रही है। नये जीवन के नये रुप का स्वागत जोर शोर से हो रहा है। उड़ते पंछियों की तरह मदमस्त है जिंदगी लेकिन कहीं उदास भी है।

कोई बात ऐसी नहीं जो न कहे सके जिंदगी। जीने के कई तरीके हैं। कोई कैसा जीता है, तो कोई ऐसे। खुशी और दुख के कारणों को सीखने के लिये पैदा होना जरुरी है। पैदाईश है तो मौत से बचके निकलना नामुमकिन। काफी जोड़ हैं जिन्हें समझना आसान नहीं। रचियता की रचना बेजोड़ है।

कई रंगों से भिगोकर रचनाकार ने तय किया कि क्यों न कोई बेशकीमती चीज बनाई जाये। उसने जीवों का संचार किया। तब से आज तक जीवों का एक बहुत बड़ा संसार है। हम रुकते हुये अच्छे नहीं लगते क्योंकि गति जीवन देती है। किसी के लिये यूं ही शांत रहना आसान नहीं। इसका मतलब कोई रुका हुआ नहीं। नींद में होते हैं तो सपने गतिमान हैं। उनकी गति और पहुंच यहां तक नहीं। न जाने कितनी दूर तक जाते हैं सपने और हमें ले जाते हैं। कल्पनाओं को साकार करने का बेहतर और सुलभ तरीका हैं सपने। दिन में सपने देखने का मन करे तो देखो लेकिन साकार होते हुये सपने अच्छे लगते हैं।

जिंदगी चलती फिरती किताब है जिसके पन्ने कोरे हैं। जितना जिये उतने पन्ने भरे गये बाकि कोरे हैं। इस किताब को कभी भरा नहीं जा सका। इसके कुछ पन्ने जीवन के रंगों से रंगे हैं तो कुछ बेरंग हैं। रुकी थमी यादों के कई पाठ सलीखे से लगे हैं। लिखावट पर किसी का ध्यान नहीं जाता। इतना कुछ पढ़ने को हैं कि पढ़ने में कई जीवन कम पड़ जायें। वाह! क्या कमाल है जिंदगी।

हंसती हुई अच्छी लगती है जिंदगी। रोना उसे संभालने के लिये साथ रहता है। दोनों में प्रेम है और यह रिश्ता अटूट है। कभी न टूटने वाला तथा इतराता हुआ रिश्ता। बचपन से लेकर आजतक तो इन्होंने संभाला हैं हमें। दुखी तो रोये, खुशी इतनी हुई तो रोये। खुशी के आंसू आये। हो गया न हंसना-रोना एक साथ।

उन पलों का शुक्रिया जो कुछ सिखा गये। जीवन तो जैसे-तैसे चल रहा है मगर तेजी के लिये किसी का सहारा चाहिये। खुद को मैंने तलाश किया। आप शायद हैरान हों लेकिन हम ही तो हैं जो खुद को चलाते हैं तेज भी, धीमे भी।

उम्मीदों की टोकरी को सिर पर अभी भी उठाये हैं। शायद इसी ख्याल में कि इक दिन यह टोकरी फूलों की बरसात करेगी। बरसात का इंतजार है और एक ओर उम्मीद की टोकरी आकर टिक गयी है। न जाने कितनी टोकरियों का वजन है, पता नहीं चलता। भला उम्मीदों का भी कोई वजन होता है। वे तो हल्की-फुल्की हैं, शांत हैं, चुप रहती हैं पर पूरी होने पर बहुत चहकती हैं।

जीवन के पहलू कई हैं जिनकी शुरुआत कीजिये तो खत्म होने का नाम नहीं लेंगे। वैसे अनंत का कोई छोर नहीं होता। जीवन को अंत होते हुये भी इसका अंत नहीं। जिंदगी रुकती नहीं, चलती है, न खत्म होती है। यह एक ऐसा ख्याल है जो निरंतर है।

समझ से परे है जीवन, समझना बस से बाहर है। मैं तो यहीं ठहर गया, वह नहीं ठहरा। रहस्य वह जो न समझा जा सके। इसलिये जीवन एक रहस्य है जिसकी शुरुआत तो है लेकिन अंत का पता नहीं। कल्पना से भी परे है और बहुत सी बातों को संजोये है जीवन।

-harminder singh

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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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