बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Sunday, December 20, 2009

बर्दाश्त करने की हद

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मैंने सादाब से पूछा कि उसके अब्बा को पुलिसवालों ने कब तक थाने में रखा। इसपर सादाब का चेहरा लाल हो गया, वह बोला,‘‘कमबख्तों ने बहुत मारा अब्बा को। गालियां दीं, जो जी में आया वह कहा। पुलिसवाले शराब पीते रहे, सिगरेट सुलगाते रहे। अब्बा के बालों को पकड़कर एक सिपाही बोला कि अब खुश है तू। अब्बा के मुंह से खून बह रहा था। उनकी पीठ चमड़े की बेल्ट की चोट से छिल गयी थी। ऐड़ियां सूज गयी थीं और पैर की तलियां खून से लथपथ थीं। ऐड़ी से खून पैर के किनारे होता हुआ अंगूठे के सहारे जमीन पर टपक रहा था। अब्बा बेहोश हो चले थे। पुलिसवालों ने अब्बा की पीठ पर शराब की आधी बोतल उडेल दी। अब्बा तिलमिला उठे। फिर बेहोश हो गये। शायद वह समय कठिन था। कठिन इतना कि सहना मुश्किल था। हम बर्दाश्त करते हैं, लेकिन हर किसी की हद होती है। हद तक उतना खराब नहीं रहता। हद पार होने पर बहुत कुछ बदल जाता है। अब्बा को सड़क किनारे बेहोशी की हालत में फेंक दिया गया। अम्मी बेखबर थी। अब्बा रात में रिकशा चलाते थे। दिन में कुछ घंटे मजदूरी करते थे। परिवर का पेट पालने के लिए क्या नहीं कर रहे थे हमारे अब्बा।’’

सादाब की बातें दिल को झकझोर रही थीं। मैं भावुक हो गया था। सादाब के परिवार को कितना कष्ट हुआ होगा। कष्ट हमें जीवन से रुसबा होने पर विवश कर देते हैं। आंखों के गीलेपन में एक गहराई थी जिसे मैं देख रहा था। फिर कई बूंदें छलकीं जिनसे कुछ तसल्ली मिली। अक्सर घने दर्द के बाद इसी तरह राहत मिलती है। हृदय की वेदना सिमटी रहती है- उसका बाहर आना जरुरी है। पिघलती हुई कोई चीज बूंद बनकर ही तो गिरती है। विचार पिघलते हैं ताकि मन हल्का हो सके, हृदय का भार कम हो सके।

-harminder singh

to be continued........

Saturday, December 19, 2009

गलतियों की गुंजाइश रह ही जाती है




समंदर गहरा है और पानी खारा। यहां मछलियां नहीं मचलतीं क्योंकि वक्त ने इसे अभिशापित कर दिया। मुझे मालूम नहीं मैं कितना हंसा हूं, लेकिन इस समुद्र में नहाया नहीं। लगता है स्नान का समय करीब है क्योंकि मुझे इसका एहसास हो रहा है।

मेरी मर्जी आजतक नहीं चली। किसी ने सुनी नहीं मेरी। हालात पहले भी वही थे, आज भी वैसे ही हैं। फर्क पड़ा है तो उन्हें झेलने की क्षमता का। नहीं झेल पा रहा इस दर्द को मैं। यह दर्द जितना अपनों ने दिया है, लगभग उतना ही दर्द खुद का शरीर दे रहा है।

चाहता हूं जल्द विदाई हो। आखिर बुढ़ापे में विवशता के सिवा मुझे मिला क्या? अंगुलियों की उभरी हुई नसों को देखता हूं तो पीड़ा होती है। खुद से कहता हूं कि अच्छा होता मैं जन्म ही न लेता। न होती यह दशा, न दर्द का साथ होता, न अपनों की झिड़क, न परायों सा व्यवहार।

क्या जीवन का सिला मिला। कुछ भी तो नहीं। मैं वाकई डर कर सिमट जाता हूं। कई दिनों से पता नहीं क्यों भयभीत सा रहने लगा हूं। अंधेरा पहले भी डराता था, अब खुद से डर जाता हूं।

‘जल्द आओ मुझे मुक्ति दो इस शरीर से’ - यही दुआ मनाता हूं। दुआ करता हूं भगवान से कि मुझे माफी दो किये पापों की जिनका प्रायश्चित मैं न कर सका। शायद बुढ़ापा इसलिए ही है ताकि इंसान को प्रायश्चित का मौका मिल सके।

जितना स्वाद जवानी ने लिया उतना कष्ट बुढ़ापे में भोगना पड़ता है। ऐसा मैंने कई जगह सुना है। अच्छे कर्म हम कितने ही क्यों न करते हों, गलतियों की गुंजाइश रह ही जाती है।

-harminder singh

Friday, December 18, 2009

खराब समय





मां अभी बाजार से आयी नहीं थीं। बता गयी थीं कि चाबी पड़ोस में रहने वाली सावित्री को दे कर जाऊंगी। खाना बनाकर गयी थीं, सिर्फ मुझे दूध गरम करना था। पुष्पा आंटी भी उनके साथ बाजार गयी होंगी। उन्हें घंटों घूमने की आदत है। वे सब्जी घरीदे हुए मोल-भाव इतना करती हैं कि सब्जी वाला पक जाता है। भीड़ होती है तो एक-आध सब्जी यूं ही चुपके से उठकर थैले में रख लेती हैं। मैंने अपनी मां से कई बार कहा कि वे पुष्पा के साथ न जाया करें। वह किसी दिन उन्हें भी बाजार के भाव पिटवा देगी। मगर मां को मेरी बात सुननी ही नहीं है। बस मैं उनका कहना मानता रहूं।

  मैंने स्कूल की ड्रेस निकाल कर रिमोट अपने हाथ में ले लिया। नेत्रा बैठकर प्रोजेक्ट तैयार करने लगी। मैंने उसे फिर टोका, बोला,‘‘अभी स्कूल से आयी है। अरे, छुट्टियां लंबी हैं, टी.वी. देखते हैं साथ बैठकर।’’

  ‘‘मैं दूसरे कमरे में जा रही हूं। आप टी.वी. देखो। फिर स्कूल खुलने से दो दिन पहले होमवर्क करते हुए इधर-उधर दौंड़ना।’’ नेत्रा ने कहा।

  ‘‘मैं आज मौज करुंगा। कल से टाइम-टेबल बनाकर पढ़ाई शुरु होगी।’’ मैंने कहा।

  ‘‘ऐसा शायद कभी हो।’’

  ‘‘क्यों?’’

  ‘‘शायद आप कहते ही रह जाओ और छुटि~टयां बीत जाएं।’’

  ‘‘नहीं, ये सच नहीं है।’’

  ‘‘तो, फिर सच क्या है भैया?’’

  ‘‘सच यह है कि मैं पहले वाला स्टूडेंट नहीं रहा। बदल गया हूं।’’

  ‘‘हां, तुम्हारी लाल नाक से तो यही लगता है।’’

  ‘‘ज्यादा मत बोलो नेत्रा।’’

  ‘‘ठीक ही कह रही हूं प्यारे भैया।’’

  ‘‘नेत्रा।’’ मैं चिल्लाया।

  ‘‘भैया।’’ नेत्रा आंखें घुमाते हुए बोली।

   ‘‘तुम सिर पर चढ़ती जा रही हो। तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारा बड़ा भाई हूं। भाई का सम्मान करना सीखो।’’

   ‘‘ओह, मैं भूल गयी थी। पर तुम्हारी नाक.......।’’ नेत्रा मुझे चिढ़ाती हुई दूसरे कमरे में दौड़ गयी। मैं सोफे पर खिसयाया सा बैठा रहा।

   ‘‘मां ने इसे बिगाड़ कर रखा है। पिताजी कुछ कहते नहीं।’’ मैंने खुद से कहा।

  ‘‘भैया दूध गरम कर दो।’’ नेत्रा की आवाज आयी।

  तभी मैं रसोई की ओर दौड़ा। मां आ गयी और दूध गरम नहीं हुआ तो खैर नहीं। टी.वी. को आन छोड़ आया। उधर दूध गरम हो रहा था, इधर मैं रिमोट लेकर टी.वी. का आनंद ले रहा था।

  नेत्रा फिर चिल्लायी,‘‘भैया टी.वी. मत देखते रह जाना। कहीं दूध उबल न जाए।’’

  मैंने उसकी कही अनसुनी कर दी। कुछ ही देर में मां आ गयी। मैं तब भी टी.वी. पर नजरें गढ़ाये था। मानो खो गया था मैं कहीं।

  ‘‘नालायक, एक भी काम ढंग से नहीं करता।’’ मां  मेरे कान पर चिल्लायी।

  मां ने पीछे से मेरा कान पकड़ कर कहा,‘‘तू कब सुधरेगा। दूध आखिर उबाल की दिया। यहां बैठकर टी.वी. देख रहे हैं साहब।’’

  टी.वी. शो का आनंद मां की डांट ने पल भर में स्वाह कर दिया। मुझे बिखरा दूध पोछे से साफ करना पड़ा। लगातार तीन दिन से मेरे दिन खराब थे।

  उसी वक्त मेरी दादी आ गयीं। नेत्रा ने उनसे कहा,‘‘देखो, भैया रोज कोई न कोई ऊटपटांग हरकत कर रहे हैं। आज दूध उबाल बैठे।’’

  ‘‘बच्चा है।’’ दादी ने मुस्कराकर कहा।

  मां बोली,‘‘आप नहीं जानती अम्मा, इसकी नासमझी भरी हरकतों में तंग आ चुकी।’’ मां ने मेरी नाक की तरफ देखा और बोलीं,‘‘यह देखो, फिर किसी टीचर से मार खा कर आया है।’’

  ‘‘कोई बात नहीं जानकी। बच्चे ज्यादा दिन ऐसे नहीं करते।’’ दादी ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

  ‘‘मैं इसे गांव ले जाऊंगी। तू एक महीने आराम से रहना।’’ दादी बोली। ‘‘क्यों बेटा चलेगा न।’’

  मैं दादी से लिपट गया। दादी मुझे बहुत लगाव करती थीं। नेत्रा से उन्होंने ज्यादा बात नहीं की। इसका कारण यह भी रहा कि मां ने नेत्रा को कभी खुद से अलग नहीं होने दिया और मुझे दादी के साथ गांव जाने से मना नहीं किया।

  शाम को विनय हमारे घर आया। उसने मुझे अपना नया बल्ला दिखाया। मेरी आंखें बड़ी हो गयीं। मैंने विनय से कहा,‘‘कितने का है?’’

  विनय बोला,‘‘पैसों की फिक्र मत कर। मामा आये थे। मैंने जिद की, दिलवा दिया। वैसे उतना सस्ता भी नहीं है। चल खेलने चलते हैं।’’

   मैंने गेंद को बल्ले से उछालना शुरु किया।

  ‘‘बल्ला काफी अच्छा है। वजन काफी कम है।’’ मैं बोला।

  ‘‘आंटी से मुझे भी पिटवायेगा क्या?’’ विनय ने कहा।

  ‘‘रुक, कुछ गेदें और उछाल कर देखूं।’’ मैंने कहा।

  अचानक गेंद बल्ले से छिटक कर मेज पर रखे कांच के फूलदान से जा टकराई।

  मेरे मुंह से निकल पड़ा,‘‘मर गए।’’

  फूलदान फर्श पर गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। विनय मेरी मां के गुस्से को जानता था। वह तुरंत बल्ला मुझसे छीनकर वहां से रफूचक्कर हो गया। मैंने तेजी से टुकड़ों को इकट्ठा किया और एक पोलीथिन में भरकर खिड़की से बाहर फेंक दिया। मैं निश्चिंत था कि किसी को पता नहीं चला कि फूलदान का क्या हुआ? तभी मां दौड़ी आयी और मुझसे पूछा,‘‘कांच टूटने की आवाज कहां से आयी थी? और विनय दौड़कर घर से बाहर क्यों भागा?’’
 
  मैं चुप्पी साध गया। तभी मां को कांच के टुकड़े मेज पर गिरे दिख गये। जल्दी में मैं मेज साफ करनी भूल गया था। मां का पारा गर्म हो गया।

  ‘‘फूलदान कहां है?’’ मां चिल्लाई।

  ‘‘टूट गया।’’ मैं मरी आवाज में बोला।

  ‘‘ओह! क्या किया तूने?’’

  ‘‘धोखे से.........हो गया।’’

  ‘‘धोखा, तुझे उसकी कीमत पता थी? कितना महंगा था वह। कहता है, धोखा हो गया।’’ मां का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। उनके हाथ में झाड़ू थी। उन्होंने मेरे दो-तीन झाड़ू जड़ दीं। मैं रोने लगा।

   शोर सुनकर दादी आ गयीं। मेरे पास आकर खड़ी हो गयीं और बोली,‘‘जानकी कांच ही तो टूटा है। बेटे से कीमती था क्या?’’

  मां ने कहा,‘‘अम्मा, इसने जानकर तोड़ा है। इसे आज मैं कड़ी सजा देकर रहंूगी।’’

  ‘‘बच्चों से चीजें नहीं टूटेंगी तो क्या हम तोड़ेंगे। अरे, बच्चे छोटी-छोटी गलतियां कर देते हैं। उन्हें नजरअंदाज करना सीखो। मारपीट से क्या फायदा? समझाकर देखो तो सही।’’ दादी बोली।

  ‘‘समझा ही रही हूं। पूरी जिंदगी कहीं समझाती न रह जाऊं इसे। समझाने से सुधर गया होता, तो आज कांच न टूटता अम्मा।’’ मां बोली। ‘‘जब देखो, तब नुक्सान ही करता रहता है। क्या भगवान आसमान से आकर इसे समझाए?’’

  मुझे दादी पुचकार रही थी। मैं अभी तक आंसू बहा रहा था। मुझे दुख इस बात का हो रहा था कि मैं ही क्यों नुक्सान की जड़ बन रहा हूं। शायद मेरी किस्मत मेरा साथ नहीं दे रही। लगता है मैं बद-किस्मती हो गया था, लेकिन कुछ समय के लिए। दादी मुझे गांव ले गयीं। किताबों को मैं साथ नहीं ले जाना चाह रहा था, मगर मां के कहने को टालना नामुमकिन था। मैं सोच रहा था कि मां मुझे अपने से दूर रखकर सुकून से रह सकेगी और पिताजी भी।

  गांव में तीन दिन बीत गये, पता ही नहीं चला। मां का दोपहर फोन आया, बोलीं,‘‘तेरी याद आ रही है।’’ मां की आवाज भर्रायी थी। मैं मां को कठोर हृदय समझता था, लेकिन मां के हृदय की वेदना समझने में युग बीत जाएं, वह भी कम हैं। जितने दिन मैं गांव में रहा, मां मुझे रोज फोन करतीं। शायद मां का प्यार ऐसा ही होता है।

-harminder singh



अगले अंक में पढ़िये:
दुलारी मौंसी

Thursday, December 17, 2009

मुसीबतें हौंसला देती हैं

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मैंने काकी से पूछा,‘‘विपत्ति का भी कोई मतलब होता है। मुसीबतें क्या हमें हौंसला देती हैं?’’

इसपर काकी बोली,‘‘तुम्हारे प्रश्न सुनने में मामूली लगते जरुर हैं, लेकिन उनमें गहराई छिपी होती है। परेशानियां जीवन से जुड़ी हैं। अब हर काम आसान होता जो जीना बिल्कुल नीरस हो जाता। अगर स्वाद एक-सा हो तब आम और अमरुद में फर्क ही क्या रह जायेगा? इसी तरह जीवन कई रंगों से भरा है। इसके स्वाद निराले हैं। जब हम खुशी से रह सकते हैं तो दुख होने पर घबराहट कैसी? मुसीबतें रास्तों को कठिन जरुर बनाती हैं। लेकिन इनसे काफी कुछ सीख मिलती है।’’

‘‘विपत्ति के समय इंसान कोई अपने-पराये का भेद पता लगता है। उसे इस कारण कई मसलों को खुद सुलझाना पड़ता है। तब वह सोचता है कि उसे अकेले मैदान में मुकाबला करना है। इसलिए वह हौंसले से लड़ता है। हौंसला हममें होता है, और मुश्किल के वक्त हमें खुद की पहचान अच्छी तरह हो जाती है। हमारी क्षमता का ज्ञान जब हम जानने लगेंगे तो जीना उतना कठिन नहीं होगा।’’

‘‘परेशानियों को अपने नजदीक पाकर हम खुद में जस्बा पैदा करते हैं ताकि उनसे पार पा सकें। इरादे मजबूत हैं तो परेशानियां उतनी कमजोर नहीं बनातीं। मैं यह जरुर कहना चाहूंगी कि हम यदि हर बात का मायना समझें तो विपत्ति का मतलब भी यकीनन समझ आ जायेगा।’’

काकी पुराने दिनों को याद करती है। वह कहती है,‘‘हमारा परिवार बुरे दौर से गुजरा। मैं उन दिनों पढ़ रही थी। पिताजी बीमार हो गये। उनकी नौकरी चली गयी। मेरी फीस को पैसा नहीं था। एक और पिताजी की महंगी दवाईयां, उसपर से घर का खर्च। मां ने रिश्तेदारों से मदद मांगी। एक-दो बार किसी ने मुंह नहीं सिकोड़ा। बाद में हम अकेले पड़ गए। तब मां ने छोटी नौकरी की। उसका हौंसला बढ़ता गया और उसने घर की चौखट में न रहकर बाहर कदम बढ़ाये। मां को रिश्तेदारों ने ताने दिये। पर वह घबराई नहीं। न होने से अच्छा, कुछ होना होता है। मेरी मां अगर उस समय पीछे हट जाती तो कहानी कुछ और होती। उसने परेशानी में जाना कि वह खुद क्या कर सकती है? उसका हौंसला समय के साथ मजबूत हुआ। लेकिन जो व्यक्ति बुरे वक्त को नियति मानकर चलते हैं, वे पीछे छूट जाते हैं। उनकी स्थिति खराब से भी बेकार हो जाती है। मैंने पाया कि हमारे जीवन में विपत्ति का बड़ा हाथ होता है क्योंकि वह हमें जीने का मतलब सिखाती है, अच्छे-भले का ज्ञान कराती है और हौंसले से लड़ना सिखाती है। तभी इंसान को जीवन की कीमत का पता लगता है।’’

काकी के सफेद बालों में फीकापन था। यह बुढ़ापे की देन है और बुढ़ापा अपने साथ बहुत कुछ परिवर्तित करता है। काकी को खैर कोई मलाल नहीं। वह जीवन की सच्चाई का सामना मुस्करा कर कर रही है।

वह आगे कहती है,‘‘मैंने संकट को कभी संकट नहीं माना। मुझे पता है यह लंबा नहीं होता। इसकी उम्र कम होती है। लेकिन सुख-दुख का अनुभव भी इसी समय हो जाता है। अगली बार के लिए मुकाबला करने की क्षमता को हम अपने अनुभव के आधार पर विकसित करते हैं। जो गलतियां पूर्व में हो चुकी होती हैं, उन्हें न दोहरा कर हौंसले के साथ आगे बढ़ते हैं। हौंसला जीवन का आधार भी है। बिना इसके जीवन की जंग नहीं जीती जा सकती। तो जीवन यह कहता है कि वह असंख्य उतार-चढ़ाव से भरा है। उसमें गोते खाने पड़ते हैं और नाव किनारा मांगती है चाहें वह उसे पहचानती न हो। संघर्ष हर पल मौजूद है। इसके बिना जीवन संभव भी तो नहीं।’’

-harminder singh

Wednesday, December 9, 2009

पुलिस की बेरहमी




सादाब की कहानी अभी पूरी कहां हुई थी। यह उसके जीवन का सच था जो शब्दों के द्वारा बयान किया जा रहा था। उसके एक-एक शब्द को मैंने सहेज कर रखा है ताकि उन्हें अपनी यादों के साथ मिला सकूं। सादाब ने आगे कहा,‘‘उस समय मैंने सोचा था कि मैं बड़ा आदमी बनूंगा। अब्बा रिक्शा चलाते थे। जितनी मेहनत, जितनी सवारियां, उतने पैसे नसीब होते। गरीबों का जीवन दुश्वारियों से भरा होता है। गरीब होना संसार का सबसे बड़ा दुख है। एक-एक पैसे की कीमत कितनी होती है, यह भला गरीब से ज्यादा कौन जान सकता है। हम भूखे कई बार सोये हैं। अम्मी ने हम बच्चों को गोद में बिठाया, कहानी सुनाई, थपका और सो गये। आदत हो गयी थी भूख से लड़ने की भी। भूख संघर्ष करना सिखाती है, जीवन से लड़ना सिखाती है, हताशा और निराशा को अपनाना सिखाती है। हम भी धीरे-धीरे सीख रहे थे।’’

आज रात बहुत हो गई। मैं बहुत कुछ लिख चुका हूं। मन करता है सादाब के बारे में उसका कहा और लिखूं। उसने कहा,‘‘पुलिस वालों ने मेरे अब्बा को एक बार बहुत मारा था। अम्मी उस रात अब्बा के पास बैठी रही थी। अब्बा से एक पुलिस वाले ने माचिस मांगी। उनके पास नहीं थी। वे बीड़ी-सिगरेट-शराब से दूर रहते थे। पांच वक्त की नमाज छोड़ते नहीं थे। लोग उन्हें सच्चा मुसलमान कहते। अब्बा से उस पुलिसवाले ने कहा कि सामने पान की दुकान से माचिस लेकर आ। सीधे-स्वभाव वे एक माचिस ले लाए। फिर उसने कहा कि सिगरेट कौन लाएगा? उसने एक भद्दी गाली दी। अब्बा बोले कि तुमने माचिस को कहा था। इसपर उस पुलिसवाले ने उनके एक चांटा जड़ दिया। अब्बा कमजोर थे, पीछे के बल गिर पड़े। कुछ देर बाद रिक्शा का हैंडल पकड़ उठ खड़े हुए। नीचे मुंह कर रिक्शा ले जाने लगे। पुलिसवाले ने उनकी पीठ पर हाथ मारकर कहा कि अब सिगरेट लेकर आ। अब्बा ने इंकार कर दिया। वे ऐसी नशे की चीजों को हाथ नहीं लगाते थे। न ही उन लोगों के पास बैठते थे जो नशा करते। उस पुलिसवाले ने अब्बा का रिक्शा एक किनारे खड़ा करवा दिया। अब्बा के मुंह पर जोर का थप्पड़ फिर जड़ दिया। अबकी बार अब्बा खड़े रहे। उनका चेहरा लाल हो गया था। उन्हें भी बहुत गुस्सा आ रहा था। उन्होंने अपनी दोनों मुट्ठियां भींच ली थीं। अब जैसे ही पुलिसवाले ने उनपर हाथ उठाया उन्होंने उसे रोक लिया। पुलिसवाला सन्न रह गया। तभी पुलिस की जीप वहां आकर रुक गयी। अब्बा वैसे ही खड़े रहे। पुलिसवाले ने जीप के अंदर झांका और थोड़ी देर बात की। अब्बा उन्हें देखते रहे। कुछ देर में अब्बा को पुलिसवाले जबरदस्ती जीप में डालकर ले गये। आखिर वर्दी के सामने एक गरीब आदमी कर ही क्या सकता है? थाने में ले जाकर उन्हें एक बड़ी टेबल पर उलटा लिटा दिया गया। उनके हाथ-पैर कस कर बांध दिये गये। अब्बा बार-बार उनसे रहम की भीख मांगते रहे। मगर जालिम हंसते रहे, ठहाके लगाते रहे। वे चार पुलिसवाले थे। उनके चेहरे को अब्बा कभी नहीं भूल सकते थे। यह गरीब की किस्मत थी कि वह मजबूर था। इंसान की मजबूरी का कुछ इंसान ही फायदा उठा रहे थे। कैसी बीत रही होगी अब्बा पर? मुझे उस वाकये को अपनी अम्मी से सुनकर बड़ा गुस्सा आता था। अम्मी कई बार अब्बा के बारे में हमें बताती थी।’’

जारी है....

-harminder singh

Monday, December 7, 2009

राज पिछले जन्म का




मैं पिछले जन्म में क्या था? यह मैं नहीं जानता। शायद इसके लिए मुझे एनडीटवी इमेजिन के शो में जाना होगा जहां रवि किशन हमारे पिछले जन्म का राज खोल रहे हैं। मुझे इन बातों पर हंसी भी आती है और कई बार गंभीर भी हो जाता हूं।

  सच मैं क्या मेरा कोई इससे पहला जन्म भी था? मैं क्या था? पशु, पक्षी या इंसान। मैं जब लोगों से पिछले जन्म के बारे में पूछता हूं, तो अधिकतर इस पर यकीन करते हैं। वे सहज भाव से कहते हैं,‘हां, पिछला जन्म होता है।’ वैसे बूढ़ी काकी इस बात से सहमत है, लेकिन मुझे कन्फ्यूजन है और आगे भी रहेगा। अरे, भई मैं कई किताबें इस बारे में पढ़ चुका हूं। मैं किसी भी तरह के ‘भूत’ को नहीं मानता। हां, मजाक में यह जरुर कहता हूं कि मेरे पांव उल्टे बिल्कुल नहीं।

  जब कोई बच्चा अधिक चंचल होता है तो हमारे परिवार में अक्सर कहा जाता है,‘जरुर पिछले जन्म में हंगामेबाज रहा होगा।’ माता-पिता जब अपने बच्चे से अधिक परेशान हो जाते हैं तो खीज कर कहते हैं,‘जरुर पिछले जन्म के बदले लेने आया है।’

  मेरा भाई बचपन में मेरे पास जब सोता था, तो वह सोते-सोते लात मारता था। तब मेरी मां कहती थी,‘’शायद पहले यह घोड़ा या गधा रहा होगा।’ हमारी हरकतों के कारण भी हमें पिछले जन्म से जोड़ा जाता है। हमारा शरीर खत्म हो जाता है, फिर आत्मा मंडराती रहती है, बिना दिमाग के। उसे कोई शरीर मिल गया उसमें घुस गयी और हम फिर से वापस आ गये, नये रुप में। ये बातें मुझे बिल्कुल वकवास लगती हैं।

  मैंने पिछले जन्म की कहानी बताने वाली कई फिल्में देखी हैं। ‘ओम शांति ओम’ को कोई कैसी भूल सकता है। एक बेबस ‘फिल्मी’ मां कहती है,‘बेटा तू आ गया।’ उसके बेटे का चेहरा पहले जैसे ही था। उसका बेटा ‘ओमी’ से ‘ओम कपूर’ बन चुका था। वह ‘शांति’ की मौत का बदला लेता है, हमशक्ल ‘शांति’ के साथ मिलकर। ‘कर्ज’ पुरानी हो या नयी, उसमें भी कहानी पिछले जन्म की थी। फिर तो मुझे भी काफी घूमना चाहिए क्या पता मुझे पिछला जन्म याद आ जाए।

  शायद खंडहरों में घूमा जाए या फिर गांवों में। क्योंकि हमारी फिल्मों में तो पिछले जन्म की यादों को ताजा करने का सबसे बेहतर तरीका ये ही हैं।

  हम कहते हैं कि इंसान के सात जन्म ही होते हैं। इसलिए विवाह में फेरे भी सात होते हैं ताकि बंधन सात जन्मों तक बना रहे। बूढ़ी काकी ने कहा था,‘शायद पिछले जन्म के अधूरे कामों को पूरा करने के लिए हमें फिर से जन्म लेना पड़ा। इस बार जरुर आयें हैं हम इस वादे के साथ कि कोई बात अधूरी न रहे।’


जंग जारी है

मच्छरों से बचने की हमारी कोशिशें नाकाम होती जा रही हैं। मच्छर पहले से अधिक शक्तिशाली होते जा रहे हैं। उनके डंक से तिलमिलाहट पहले से ज्यादा हो रही है।

  काफी साल गुजर गये, जब हम ‘कछुआ छाप’ जलाते थे और मच्छर भगाते थे। साल बीते, मच्छरों ने उसका मुकाबला किया। जीत मच्छरों की हुई, कछुआ चल बसा। कछुए की मैयत में शायद कुछ नरम दिल मच्छर शामिल हुए होंगे।

  मार्केट में इंसान नये हथियार लाया जो इस पैने डंक वाले ‘पिद्दी जीव को खत्म कर सके। इंसान की लड़ाई मच्छर से जारी है। आगे भी जारी रहेगी क्योंकि हम इन्हें खत्म नहीं कर पायेंगे। हांलाकि कुछ इंसान भी मच्छरों की तरह हैं जो मौके-मौके पर हमें डंक मारते रहते हैं। इसका मतलब है कि जब इंसान खत्म होगे, मच्छर तभी विदा लेंगे। तब तक यह जंग जारी रहेगी।

-harminder singh

Friday, December 4, 2009

क्या पता यह आखिरी किनारा हो?

रेत को बहते हुए देखा है मैंने इन नंगी आंखों से। देखा है मैंने पानी को जबरदस्ती करते हुए। तब रेत संघर्ष करती है, पानी उसपर चोट। परिचय होता है यर्थाथ का। कमल की पंखुड़ियां फिसल कर किनारे आ जाती हैं। रेत वहां भी चिपकी है। पानी सूख गया, रेत अभी भी वहीं है।

शांत लगती है, मगर उथलपुथल है कितनी। स्वीकार करना होगा कि उलझन पुरवाई में कभी नहीं खोती। समझना होगा कि एक दिन सब कुछ बह जाएगा, तब न पुरवाई होगी, न पानी लड़ेगा।

किनारों की असमंजस स्थिति मुझे नासमझ बना रही है। पर मैं साफ नहीं धुंधला देखता हूं। क्या पता यह आखिरी किनारा हो?

-harminder singh

Thursday, December 3, 2009

गर्मी की छुट्टियां

कक्षा में शोर मच रहा था। मैं विनय से बातों में मग्न था। तभी शोर थम गया, मैंने ध्यान दिया। विनय अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। मैं सिर झुकाये बोले जा रहा था। अचानक मेरे गाल पर किसी ने तमाचा जड़ा। सामने प्रिंसिपल खड़ी थीं। मैंने गाल पर हाथ लगाया और सकपकाया खड़ा रहा।

  ‘मेरे आफिस आओ।’ प्रिंसिपल ने कहा।

  मैं पीछे-पीछे चल दिया। अबतक गाल काफी लाल हो चुका था। प्रिंसिपल ने मुझे खरी-खरी सुनाई। कर क्या सकता था,  चुपचाप सुनता रहा। घर में माता-पिता की डांट, स्कूल में भी डांट।

  विनय ने पूछा,‘क्या कहा प्रिंसिपल ने?’

  ‘मम्मी-पापा को बुलाकर लाना होगा।’  मैं बोला।

  ‘फिर तो समस्या हो गई।’

  ‘घर में पता लगेगा, खैर नहीं आज मेरी।’

  ‘मैं तेरे घर जाकर अंकल-आंटी को समझाने की कोशिश करुं।’

  ‘नहीं रहने दे। मैं खुद संभाल लूंगा।’

  रास्ते भर मैं यही सोचता रहा कि कल मां को बहुत गुस्सा आ रहा था। पिताजी भी कम नाराज नहीं थे। लगता है आज खाने के भी लाले पड़े जाएं। ऊपर से पिताजी की पिटाई का डर बराबर सता रहा था। चिंता ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था। बस में नेत्रा मुझसे पूछती रही,‘तुम घबराये हुए क्यों लग रहे हो भईया?’ उसने मेरा गाल देखा जो हल्का सूजा था। मैंने बहाना कर दिया कि खेलते हुए गिर गया था। मगर घबराने की वजह नहीं बताई। मैं चाहता नहीं था कि नेत्रा को मालूम पड़े क्योंकि वह घर तक हजार सवाल पूछ लेगी। दो दिन बाद गर्मी की छुटिट्यां होने जा रही थीं। जब मैं छुटिट्यों का विचार अपने दिमाग में लाता तो प्रसन्न हो जाता। लेकिन प्रिंसिपल की बात बार-बार मुझे चिंतित करती जा रही थी। दो चीजें एक साथ हो रही थीं- एक मैं सोच कर मुस्करा रहा था और दूसरा, मैं सोचकर इतना ही दुखी हो रहा था।



घर से स्कूल-3
बचपन की मजेदार कहानियां


 
  शाम को नेत्रा सहेलियों संग खेलने चली गयी। पिताजी अभी आये नहीं थे। मां सब्जी काट रही थीं।

  मैंने कहा,‘स्कूल में आपको और पिताजी को बुलाया है।’

  मैंने कह तो दिया, लेकिन मन में अजीब सी उथुलपुथल हो रही थी कि कहीं मां को क्रोध न आ जाए। मां ने मेरी तरफ देखा और बोलीं,‘क्यों, क्या हुआ?’

  मैंने पूरी कहानी एक सांस में बता दी।

  ‘तू नहीं सुधरेगा।’ मां गुस्से में बोलीं।

  ‘इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। वो अचानक प्रिंसिपल आ गयीं। मैं क्या करता?’ मैंने सफाई देनी चाही।

  मां पर कोई असर नहीं होता दिख रहा था। वह तमतमाई हुई थी।

  ‘मुझे लगता है तुझे स्कूल में पढ़ना ही बंद कर देना चाहिए। लगातार दो दिन से स्कूल में सजा मिल रही है।’ मां ने कहा।

  ‘आने दे तेरे पापा को। आज तेरा फैसला करेंगे।’ मां ने कहा।

  ‘पर मैं तो......।’ मैं आगे बोला।

  मां ने सब्जी काट ली थी। तभी नेत्रा भी आ गयी। उसने मुझे मां की डांट खाते सुन लिया था।

  वह बोली,‘भईया आज बस में परेशान था। मैंने पूछना चाहा तो इतना ही बताया कि खेलते हुए गिर गया था। गाल पर मामूली सूजन थी।’

  ‘गाल पर सूजन।’ मां को हैरानी हुई। ‘लगता है बुरी तरह पिटा है नालायक।’ मां का पारा बढ़ता जा रहा था।

  तभी नेत्रा बोली,‘मां, पानी लाऊं।’

  ‘रहने दे। इसने मेरा जीना मुहाल कर दिया है।’ लंबी सांस लेते हुए मां बोली। ‘तू मन लगाकर पढ़ रही है और यह निकम्मा....बस क्या कहूं.....कुछ नहीं।’

  ‘अब बैठा हुआ यहां क्या कर रहा है? जाकर पढ़ ले।’ मां ने कहा।

  मैंने प्रण किया कि पढ़ाई में मेहनत करुंगा। नेत्रा की तरह स्कूल से आकर पहले अपना होमवर्क समाप्त करुंगा। सभी विषयों का टाइम-टेबल बनाकर पढ़ा करुंगा। इन छुटिट्यों में आधा कोर्स निबटा कर ही चैन आयेगा मुझे। विचारों की पुड़िया खुल चुकी थी। पर मैंने ऐसा पहले भी अनेकों बार सोचा है। मेरी योजनायें अमल में आने से पूर्व ही धराशायी हो गयीं। यह मैं अच्छी तरह जानता था। पर इस बार मैंने निश्चय किया कि मैं पीछे नहीं हटने वाला।

  पिताजी थके हुए घर आये। उनके चेहरे पर गुस्सा था। मेरी हालत पतली हो गई। मुझे काटो तो खून नहीं। मां ने पिताजी को कदम रखते ही कहानी बतानी शुरु कर दी। फिर क्या था, पिताजी ने मुझे कमरे में बुलाया। मैं रात भर करवट बदलता रहा। शरीर दुख रहा था। टांगों में उतना दर्द नहीं था क्योंकि दो बार ही वहां छड़ी घूमी थी। नेत्रा ने मेरी पीठ पर ‘बाम’ मसला था। वह बातें कैसी भी करती हो, पर है मेरी सबसे प्यारी बहन। हम प्रेम के बल पर ही एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। रिश्ते वाकई मायने रखते हैं और खून के रिश्ते ऐसे ही होते हैं।

  छुटिट्यां होने में अब एक दिन शेष था। पिताजी ने प्रिंसिपल से मुलाकात की। उन्होंने कहा कि आगे से यदि मेरी कोई हरकत आती है तो मुझे बिना झिझक के स्कूल से निकाल दें। मुझे पिताजी से यह उम्मीद नहीं थी। शायद उनके कहने की वजह यह थी कि उन्हें भी मुझसे कोई उम्मीद नहीं थी। दोनों तरफ उम्मीदों का खेल था।

  मैडम मौली ने कहा,‘छुट्टी में मौज-मस्ती होगी, मगर पढ़ाई को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। रोज गणित के सवाल करने हैं। इससे अभ्यास बना रहेगा।’

  आखिरी दिन मैं काफी प्रसन्न नजर आ रहा था। मैंने कुछ दिनों से चिंतित मन को ठीक खुद ही कर लिया था।

  मैडम मौली ने एक बार कहा था,‘खराब बातों को याद नहीं रखना चाहिए। उन्हें भुलाना ही बेहतर है। अच्छी बातें जिंदगी भर भी याद रह जाएं तो कोई बुराई नहीं।’ मैंने उन पक्तियों को दिमाग में बैठा रखा था।

  विनय स्कूल के गेट के बाहर खड़ा मेरा इंतजार कर रहा था। वह बोला,‘तुमने बड़ी देर लगा दी। कहां रह गये थे?’

  वह चौंककर बोला,‘अरे! यह क्या? तुम्हारे चेहरे को क्या हुआ? फिर किसी टीचर ने तुम पर हाथ उठाया क्या?’

  ‘कुछ मत पूछ।’ मैं दुखी मन से बोला।

  ‘तेरी नाक से खून बह रहा है। ला साफ कर दूं।’ विनय ने रुमाल निकालते हुए कहा।

  ‘मैं पानी पी रहा था कि पीछे से किसी ने जोर का धक्का दिया। मेरा मुंह पानी की टोटी पर जाकर लगा।’ मैंने बताया। ‘लेकिन घर जाकर मां-पिताजी का फिर लेक्चर सुनने को मिलेगा।’ मेरी चिंता बढ़ गयी।

  ‘लगता है इस बार पूरी छुटि~टयां बेकार जाने वाली हैं।’ मैंने कहा।

  ‘मैं शिमला जा रहा हूं।’ विनय बोला।

  तभी पीछे से विमल ने मेरे कंधे पर हाथ मारकर कहा,‘छुटिट्यों में किधर घूमने का इरादा है?’

  ‘’शायद इस बार नहीं।’ मैंने कहा।

  विमल ने मेरी नाक देखकर कहा,‘यह तुम्हारी नाक लाल हो गयी है। किसी टीचर की बुरी नजर लग गयी क्या?’

  मैं चुप रहा। कंधे पर बस्ता टांग बस में चढ़ गया। मैं नाक पर हाथ लगाकर खिड़की की तरफ बैठा था। तभी नेत्रा ने कहा,‘तुम्हें काफी होमवर्क मिला होगा। मुझे तीन प्रोजेक्ट दिये हैं। साइंस में नदियों के प्रदूषण के बारे में प्रोजेक्ट तैयार करना है। तुम मेरी इस बार मदद कर देना। हरबेरियम फाइल के लिए पत्ते जमा खुद कर लूंगी।’

  नेत्रा नन्हीं सी जान और इतने काम। हद है स्कूल वालों से भी है। कम से कम छुटिट्यां तो चैन से मनाने दें।

  ‘नेत्रा, तुम्हें लगता नहीं कि तीसरी क्लास के हिसाब से इतने प्रोजेक्ट कुछ ज्यादा हैं।’ मैंने कहा। तबतक मैंने खिड़की की तरफ मुंह किया हुआ था।

  ‘लेकिन यह मुझे लंबी छुटिट्यों के लिए कम लगता है। मैं फिर बोर हो जाऊंगी’ नेत्रा गंभीर होकर बोली।

  उसने आगे कहा,‘तुम्हारे क्या प्रोजेक्ट हैं, बताओगे।’

  आखिर कब तक मुंह छिपाने की कोशिश करता। गर्दन में भी दर्द शुरु हो गया था। नेत्रा की ओर देखकर कहा,‘घर जाकर बात करना।’

  ‘पर भईया तुम्हारी नाक कितनी लाल हो रही है।’ वह बोली हैरानी से।
  ‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही मामूली चोट है।’ मैंने कहा।
  वह नीचे मुंह कर मुस्करा रही थी।

-harminder singh

-अगले अंक में पढ़िये- खराब समय
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...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com