दिन निकलता है और छिप जाता है। ऐसा रोज होता है। यह समय कभी न खत्म होने वाला है। मैं खुद को अजीब सी उलझन में पाता हूं। मैंने उसे क्यों मार दिया? यह पछतावे का वक्त भी है। उस समय शायद मैं होश में नहीं था। मैं खुद पर काबू नहीं रख पाया। अब वक्त मुझे काटने को दौड़ता है। क्या करुं, कुछ समझ नहीं आता।अपराध की सजा होती है। मैं वही भुगत रहा हूं। एक कोठरी जो चार दीवारों से बनी है, उसका और मेरा साथ बढ़ता जा रहा है। कई साल बीत गये, वह चटका फर्श मुझसे कुछ नहीं बोला और दीवारें कभी हंसती नहीं।
समय ने बातों को छोटा कर दिया। शायद सिमट सा गया है बहुत कुछ, मैं भी। हां, मैं भी अब चुपचाप रहता हूं। मेरे साथ इस कोठरी में कई आये और गये। नयापन सुनहरे रंग के साथ आने की कोशिश कर रहा था, मैंने उससे जी चुराया। मैं ही तो था जो अपने बुरे वक्त को लाया। मैं ही तो था जो अब खामोशी से जीने को मजबूर हुआ। लहरों की फरमाइशें अनगिनत होती हैं, उनके थपेड़े कठोर, फिर उनसे बचकर अपनी कश्ती को दूर ले जाना चाहता था, पर ऐसा कर न सका। इसे विडंबना कहें तो बुरा नहीं।
मंगा ने एक बार मुझसे पूछा था कि मुझे अपने परिवार की याद नहीं आती। मैं उस समय काफी देर के लिए चुप्पी साध गया था। जब मंगा की सजा पूरी हो गयी, तब मैंने उससे घंटों बातें की। सब बोलता गया मैं, रोता गया मैं। न जाने कितनों को मैंने अपने दिल का हाल इस तरह बताया है। उसकी आंखें भी खुश नहीं थीं, जबकि वह आजाद था और खुली हवा में सांस लेने की उसकी तमन्ना पूरी होने जा रही थी। वह इतना मुझसे घुलमिल गया था, मुझे पता ही नहीं चला। मंगा मेरी तरह ही दुखी था। शायद उससे मेरा दुख देखा नहीं गया और वह सही मायने में मेरा दुख बांट रहा था। क्षोभ एक कोने से उठा था, दूसरा कोना उसे न चाहते हुए भी अपना समझ कर समेट रहा था। इस तरह मन हल्का और भारी होने की प्रक्रिया में दो व्यक्तियों को संतुष्टी अवश्य मिल रही थी। मैं उसे यह सब, घर–परिवार, बाल–बच्चे कुछ बताने वाला नहीं था। अचानक में मैं उसे अपनी कहानी बता बैठा। मेरे साथ यही होता आया है। अपना मन भारी है तो किसी अंजाने को अपना मान लेता हूं, मगर उसे ही जो मुझे समझता है।
कोई मुझसे मिलने आता नहीं। पहले–पहल पत्नि आती थी– ऐसा करीब दो साल तक हुआ। शायद उसका मन मुझसे उचट गया। बच्चे कितने बड़े हो गये होंगे, मैं यह भी नहीं जानता। बिटिया तो दो–तीन दरजे पहुंच गयी होगी और मोनू......। बड़ा शरारती था वह। अब भी उधम मचाता होगा। गुडि़या की चोटी खेंचता होगा। लाजो खुश होती होगी उन्हें देखकर। मेरी याद आती होगी उसे। फिर वह मुझसे मिलने क्यों नहीं आयी? क्या हुआ उसे? सब ठीक तो है।
खैर, जब मुझसे सब रुठ रहे हैं, तो रुठने दो। शायद बुरे वक्त के साथी कुछ ही होते हैं। एक अपराधी, हत्यारे की पत्नि कहलाना कौन चाहता है और बाप का नाम.......। नहीं, नहीं मैं नहीं चाहता ऐसा हो मेरे पीछे छूटे परिवार के साथ। वे मुझे न मानें, मैं उन्हें भूल नहीं पाऊंगा, कभी नहीं। जो उन्हें अच्छा लग रहा है करें, पर दुखी न हों, बदनामी का दाग न हो उनके सिर।
-जारी है........
-harminder singh


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ye to jeevan chakra hai.. is se door bhi to nahi raha ja sakta...
ReplyDeletebhaavuk mkar diya aapne............
ReplyDeleteumdaa aalekh
badhaai !
बहुत मार्मिक !!
ReplyDeleteएक कैदी की मनोदशा का मार्मिक चित्रण..जारी रहिए.
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