बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Friday, July 24, 2009

एक कैदी की डायरी

दिन निकलता है और छिप जाता है। ऐसा रोज होता है। यह समय कभी न खत्म होने वाला है। मैं खुद को अजीब सी उलझन में पाता हूं। मैंने उसे क्यों मार दिया? यह पछतावे का वक्त भी है। उस समय शायद मैं होश में नहीं था। मैं खुद पर काबू नहीं रख पाया। अब वक्त मुझे काटने को दौड़ता है। क्या करुं, कुछ समझ नहीं आता।

अपराध की सजा होती है। मैं वही भुगत रहा हूं। एक कोठरी जो चार दीवारों से बनी है, उसका और मेरा साथ बढ़ता जा रहा है। कई साल बीत गये, वह चटका फर्श मुझसे कुछ नहीं बोला और दीवारें कभी हंसती नहीं।

समय ने बातों को छोटा कर दिया। शायद सिमट सा गया है बहुत कुछ, मैं भी। हां, मैं भी अब चुपचाप रहता हूं। मेरे साथ इस कोठरी में कई आये और गये। नयापन सुनहरे रंग के साथ आने की कोशिश कर रहा था, मैंने उससे जी चुराया। मैं ही तो था जो अपने बुरे वक्त को लाया। मैं ही तो था जो अब खामोशी से जीने को मजबूर हुआ। लहरों की फरमाइशें अनगिनत होती हैं, उनके थपेड़े कठोर, फिर उनसे बचकर अपनी कश्ती को दूर ले जाना चाहता था, पर ऐसा कर न सका। इसे विडंबना कहें तो बुरा नहीं।

मंगा ने एक बार मुझसे पूछा था कि मुझे अपने परिवार की याद नहीं आती। मैं उस समय काफी देर के लिए चुप्पी साध गया था। जब मंगा की सजा पूरी हो गयी, तब मैंने उससे घंटों बातें की। सब बोलता गया मैं, रोता गया मैं। न जाने कितनों को मैंने अपने दिल का हाल इस तरह बताया है। उसकी आंखें भी खुश नहीं थीं, जबकि वह आजाद था और खुली हवा में सांस लेने की उसकी तमन्ना पूरी होने जा रही थी। वह इतना मुझसे घुलमिल गया था, मुझे पता ही नहीं चला। मंगा मेरी तरह ही दुखी था। शायद उससे मेरा दुख देखा नहीं गया और वह सही मायने में मेरा दुख बांट रहा था। क्षोभ एक कोने से उठा था, दूसरा कोना उसे न चाहते हुए भी अपना समझ कर समेट रहा था। इस तरह मन हल्का और भारी होने की प्रक्रिया में दो व्यक्तियों को संतुष्टी अवश्य मिल रही थी। मैं उसे यह सब, घर–परिवार, बाल–बच्चे कुछ बताने वाला नहीं था। अचानक में मैं उसे अपनी कहानी बता बैठा। मेरे साथ यही होता आया है। अपना मन भारी है तो किसी अंजाने को अपना मान लेता हूं, मगर उसे ही जो मुझे समझता है।

कोई मुझसे मिलने आता नहीं। पहले–पहल पत्नि आती थी– ऐसा करीब दो साल तक हुआ। शायद उसका मन मुझसे उचट गया। बच्चे कितने बड़े हो गये होंगे, मैं यह भी नहीं जानता। बिटिया तो दो–तीन दरजे पहुंच गयी होगी और मोनू......। बड़ा शरारती था वह। अब भी उधम मचाता होगा। गुडि़या की चोटी खेंचता होगा। लाजो खुश होती होगी उन्हें देखकर। मेरी याद आती होगी उसे। फिर वह मुझसे मिलने क्यों नहीं आयी? क्या हुआ उसे? सब ठीक तो है।

खैर, जब मुझसे सब रुठ रहे हैं, तो रुठने दो। शायद बुरे वक्त के साथी कुछ ही होते हैं। एक अपराधी, हत्यारे की पत्नि कहलाना कौन चाहता है और बाप का नाम.......। नहीं, नहीं मैं नहीं चाहता ऐसा हो मेरे पीछे छूटे परिवार के साथ। वे मुझे न मानें, मैं उन्हें भूल नहीं पाऊंगा, कभी नहीं। जो उन्हें अच्छा लग रहा है करें, पर दुखी न हों, बदनामी का दाग न हो उनके सिर।

-जारी है........

-harminder singh

4 comments:

  1. ye to jeevan chakra hai.. is se door bhi to nahi raha ja sakta...

    ReplyDelete
  2. bhaavuk mkar diya aapne............
    umdaa aalekh
    badhaai !

    ReplyDelete
  3. एक कैदी की मनोदशा का मार्मिक चित्रण..जारी रहिए.

    ReplyDelete

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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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