मुंबई में आतंकी हमले के बाद जहां राजनैतिक वाद-विवाद चल रहा है वहीं कुछ ऐसे लोग कुछ अधिक ही बोल रहे हैं जो देश में क्षेत्रीयता को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय एकता को तोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। शिव सेना प्रमुख और उनके भतीजे राज ठाकरे की करतूतों को पूरा देश अच्छी तरह जानता है। वे लोग कई बार उत्तरी भारत बल्कि बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ गरीबों पर इसलिये हमले करते रहे हैं कि वे काम के लिये मुंबई पहुंचते हैं। राज ठाकरे ने बीते दिनों इसी तरह के कई गरीब लोगों के साथ मारपीट की। जबकि इस हिंसा में कई नवयुवक मारे भी जा चुके हैं। दोनों ठाकरे अपनी-अपनी पार्टी को सेना नाम दिये हैं। बाल ठाकरे ने अपने समाचार पत्र में यह लिखा है कि भारत को पाकिस्तान पर चढ़ाई कर देनी चाहिये। उनसे पूछा जाना चाहिये कि उन्होंने भी शिव सेना बना रखी है। उन्हें अपने सैनिकों को यह काम सौंप देना चाहिये। वे बार-बार इसे बहुत बड़ी देशभक्ति कहते रहते हैं। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो दूसरों को युद्ध छेड़ने की सीख किस मुंह से दे रहे हैं। बल्कि ठाकरे को उनकी सेना का कमांडर बन कर मोरचे पर पहुंचना चाहिये। यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो क्या वे और उनकी सेना एक ढकोसला ही कहलायेगी। वे अपने कमजोर भाईयों पर तो अकारण ही हमला करवा देते हैं और देश पर हमला करने वालों के पास तक भी फटकने का साहस नहीं रखते। यदि वे वास्तव में ही मुंबई और देश हितैषी हैं तो उस समय ताज होटल क्यों नहीं पहुंचे जब देश के जवान आतंकियों से जूझ रहे थे। ठाकरे को मालूम होना चाहिये वहां मर-मिटने वालों में उत्तर भारत के भी जवान थे। मुंबई पर मालिकाना हक जताने वाले ठाकरे अथवा शिव सैनिक मुंह छुपा कर अपने घरों में क्यों छिपे बैठे थे? ठाकरे जैसे लोगों को सभी अच्छी तरह जान चुके। भले ही वे अपने को कुछ भी समझते हों।
यह बच्चों का खेल नहीं बल्कि आज के युग में दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों का युद्ध पूरी दुनिया के लिये ही बहुत बड़ा खतरा बन सकता है। ऐसे में बहुत ही गंभीरता से विचार करके एक-एक कदम उठाना पड़ता है। यही हमारी सरकार कर भी रही है। ऐसा नहीं कि हम कुछ नहीं कर रहे या कर नहीं सकते। सरकार कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती जिससे कोई खामियाजा भुगतना पड़े। युद्ध से पूर्व उसके परिणामों का आकलन करना एक बहुत बुद्धिमत्ता का काम है। यह केन्द्र सरकार की सूझबूझ ही है कि वह विश्व समुदाय के सम्मुख यह सिद्ध कर चुकी है कि पाकिस्तान ही दुनिया भर में फैल रहे आतंकवाद की जड़ है। ऐसे में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का यह कहना बहुत ही सटीक है कि पाक पूरी दुनिया के लिये खतरा है। ऐसे में विश्व के अधिकांश शक्तिशाली देश भारत के समर्थन में आ गये हैं। जबकि पिछली सभी सरकारों की नीतियों के कारण विश्व की शक्तियां भारत के बजाय पाकिस्तान के समर्थन में खड़ी हो जाती थीं। विश्व के सभी शक्तिशाली देश भी मुंबई हमले से आहत हैं और वे इस नतीजे पर पहुंच गये हैं कि पाक में आतंकवाद पनप रहा है। आतंकी प्रशिक्षित होकर वहां से भारत समेत कई अन्य देशों में पहुंच कर आतंक फैलाने को बेकसूर लोगों को निशाना बना रहे हैं। अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने भी जांच में यही पाया है कि यह हमला पाकिस्तान से भेजे आतंकियों द्वारा ही किया गया। एक जीवित पकड़ा आतंकी भी यही कह चुका कि वह पाकिस्तानी है और उसके मारे गये सभी साथी पाक में प्रशिक्षण लेकर यहां तबाही मचाने को आये थे।
बाल ठाकरे हों या राज ठाकरे उन्हें ऐसे अवसर पर कोई ऊल-जलूल बयान नहीं देना चाहिये। अन्यथा समय की मांग को जानकर उन्हें अपनी शिव सेना लेकर पाकिस्तानी सेना से भिड़कर यह सिद्ध करना चाहिये कि उनकी सेना वास्तव में ही एक देश-भक्त और बहादुर सेना है।
-Harminder Singh
Thursday, December 25, 2008
Wednesday, December 24, 2008
युवा हवा का रुख
युवाओं की स्थिति पतंग के समान होती है, इधर-उधर इतराती पतंग। तेज हवा के झोंके पर डोर छूटने का डर भी रहता है। उन्मुक्त गगन से बातें करने की चाह कई बार धरातल पर भी रहने को विवश कर देती है। संगति का प्रभाव उजड़ा सेवरा न फैला दे, इसलिये अंगारों से बचकर खेलने की सलाह काम आयेगी। अक्सर जल्दबाजी में बहुत कुछ थम जाता है
मैंने बूढ़ी काकी से पूछा कि युवा जीवन में अहम बदलाव हैं क्या? काकी मुस्कराई और बोली,‘जीवन पैर जमाना इसी समय सीखता है। एक बेहतर और टिकाऊ नींव इसी अवस्था बनकर तैयार होती है। हम जानते हैं कि मकान को धंसने से बचाने के लिये नींव कितनी उपयोगी है। कमजोर नींव के मकान अक्सर ढह जाया करते हैं।’
‘युवाओं की स्थिति पतंग के समान होती है, इधर-उधर इतराती पतंग। तेज हवा के झोंके पर डोर छूटने का डर भी रहता है। उन्मुक्त गगन से बातें करने की चाह कई बार धरातल पर भी रहने को विवश कर देती है। तभी कहा जाता है, जो गलत नहीं, कि इतनी तेजी अच्छी नहीं। रगों में रक्त का प्रवाह इस कदर गतिमान होता है कि जोश और जस्बे की कमी नहीं रहती। उम्मीदों के घोड़े दौड़ते हैं पंख लगाकर। नयी सोच, नई ऊर्जा का संसार रच रहा होता है।’
‘मोम की तरह मुलायम भी होता यह समय। हल्की सी गर्मी से मोम पिघलने लगता है तथा उसे किसी आकार में ढाला जा सकता है। यह समय आकार लेने का भी है। अपने आसपास के वातावरण से हम कितने प्रभावित होते हैं? विचारों का हम पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह भी सोचने योग्य विषय है। सांचा ढल जाता है, लेकिन सुन्दर और बेकार होने में देर नहीं लगती। निखार आ गया तो बेहतर, निखरे हुये पर दाग लग गया तो जीवन भर के लिये मजबूत छाप रह जायेगी। शायद ऐसे मौके पर खुद को कोसने का वक्त भी न मिले।’
‘कदमों को कीचड़ से बचाने की जरुरत पड़ेगी। निर्मल पैर ही अच्छे लगते हैं। संगति का प्रभाव उजड़ा सेवरा न फैला दे, इसलिये अंगारों से बचकर खेलने की सलाह काम आयेगी। अक्सर जल्दबाजी में बहुत कुछ थम जाता है। ठिठक कर चलने में कोई बुराई नहीं है। खेल-खेलने वाले कोई ओर होते हैं, भुगतने वाले कोई ओर। इस तरह बनी-बनाई बातें बिगड़ जाती हैं और यहीं से बिखराव की स्थिति उत्पन्न होती है। तब अपनों की याद आती है। अंत में सहारा भी वे ही बनते हैं।’
काकी के विचारों से मैं और अधिक प्रभावित होता जा रहा था। पता नहीं क्यों उसके शब्दों का मुझ पर गहरा असर पड़ रहा था। शब्दों की गहराई समझ में आ रही थी। यही कारण था कि काकी का एक-एक शब्द मुझे कीमती लग रहा था। शायद में बोलों को धीरे-धीरे चुनता जा रहा था।
-Harminder Singh
मैंने बूढ़ी काकी से पूछा कि युवा जीवन में अहम बदलाव हैं क्या? काकी मुस्कराई और बोली,‘जीवन पैर जमाना इसी समय सीखता है। एक बेहतर और टिकाऊ नींव इसी अवस्था बनकर तैयार होती है। हम जानते हैं कि मकान को धंसने से बचाने के लिये नींव कितनी उपयोगी है। कमजोर नींव के मकान अक्सर ढह जाया करते हैं।’
‘युवाओं की स्थिति पतंग के समान होती है, इधर-उधर इतराती पतंग। तेज हवा के झोंके पर डोर छूटने का डर भी रहता है। उन्मुक्त गगन से बातें करने की चाह कई बार धरातल पर भी रहने को विवश कर देती है। तभी कहा जाता है, जो गलत नहीं, कि इतनी तेजी अच्छी नहीं। रगों में रक्त का प्रवाह इस कदर गतिमान होता है कि जोश और जस्बे की कमी नहीं रहती। उम्मीदों के घोड़े दौड़ते हैं पंख लगाकर। नयी सोच, नई ऊर्जा का संसार रच रहा होता है।’
‘मोम की तरह मुलायम भी होता यह समय। हल्की सी गर्मी से मोम पिघलने लगता है तथा उसे किसी आकार में ढाला जा सकता है। यह समय आकार लेने का भी है। अपने आसपास के वातावरण से हम कितने प्रभावित होते हैं? विचारों का हम पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह भी सोचने योग्य विषय है। सांचा ढल जाता है, लेकिन सुन्दर और बेकार होने में देर नहीं लगती। निखार आ गया तो बेहतर, निखरे हुये पर दाग लग गया तो जीवन भर के लिये मजबूत छाप रह जायेगी। शायद ऐसे मौके पर खुद को कोसने का वक्त भी न मिले।’
‘कदमों को कीचड़ से बचाने की जरुरत पड़ेगी। निर्मल पैर ही अच्छे लगते हैं। संगति का प्रभाव उजड़ा सेवरा न फैला दे, इसलिये अंगारों से बचकर खेलने की सलाह काम आयेगी। अक्सर जल्दबाजी में बहुत कुछ थम जाता है। ठिठक कर चलने में कोई बुराई नहीं है। खेल-खेलने वाले कोई ओर होते हैं, भुगतने वाले कोई ओर। इस तरह बनी-बनाई बातें बिगड़ जाती हैं और यहीं से बिखराव की स्थिति उत्पन्न होती है। तब अपनों की याद आती है। अंत में सहारा भी वे ही बनते हैं।’
काकी के विचारों से मैं और अधिक प्रभावित होता जा रहा था। पता नहीं क्यों उसके शब्दों का मुझ पर गहरा असर पड़ रहा था। शब्दों की गहराई समझ में आ रही थी। यही कारण था कि काकी का एक-एक शब्द मुझे कीमती लग रहा था। शायद में बोलों को धीरे-धीरे चुनता जा रहा था।
-Harminder Singh
Friday, December 12, 2008
मच्छर मारना कोई अपराध नहीं
मच्छर मारने पर दुनिया के किसी भी कोने में सजा का प्रावधान नहीं। मतलब यह कि मच्छरों की कहीं सुनवाई नहीं। उनकी कोई अहमियत नहीं। वो कहते हैं ना-‘भला मच्छर की भी कोई औकात होती है।’
मच्छरों के हमले काफी खतरनाक होते हैं। खासतौर पर जब आप चैन की नींद सोने की कोशिश कर रहे हों। आमतौर पर चैन की नींद आजकल लोगों को उतनी नसीब नहीं हो रही।
मुझे बड़ी कठिनाई होती है जब मच्छर मेरे कान पर भिन-भिन करते हैं। मन करता है उन्हें जीवित न छोड़ूं। यह विचार हर उस ‘दुखियारे जन’ का है जो ‘मच्छर जाति’ के आक्रमण से व्यथित है। हम बखूबी जानते हैं कि हत्या करना पाप नहीं ‘महापाप’ है, लेकिन मच्छर को मारना मजबूरी है। इसका कुछ माक्रोन व्यास का मामूली डंक तगड़े से तगड़े इंसान को बदहाल कर देता है।
अहिंसा की प्रवृत्ति इंसानियत दर्शाती है, मगर ‘रक्त-प्रेमी’ इस जीव को मारने पर हमें कोई नहीं कहता कि हमने कोई अपराध किया है। हां, मच्छर मारना कोई अपराध नहीं। इसके लिये दुनिया के किसी भी कोने में सजा का प्रावधान नहीं। मतलब यह कि मच्छरों की कहीं सुनवाई नहीं। उनकी कोई अहमियत नहीं। वो कहते हैं ना-‘भला मच्छर की भी कोई औकात होती है।’ लेकिन हम शायद यह भूल गये कि इसके डंक की तिलमिलाहट हमें इससे डरने पर मजबूर कर देती है। तभी हम इस ‘आतंकी’ से अपनी सुरक्षा का प्रबंध करते हैं।
पहले कछुआ छाप जलाते थे, मच्छर भाग जाते थे। मच्छर समय दर समय शक्तिशाली होते गये। जमाना बदला, मच्छर भी और अब वक्त ऐसा है कि ‘कछुआ’ चल बसा, ‘स्प्रे’ आ चुके लेकिन मच्छरों का कद बढ़ता ही जा रहा है। पहले मच्छर छोटे हुआ करते थे, अब वे काफी बड़े हो गये हैं। उनके पैरों की लंबाई को देखकर मैं कई बार हैरान हुआ हूं। जैसे-जैसे किसी जाति को मिटाने की कोशिश की जाती है, वह उसका मुकाबला करने के लिये समय-दर-समय मजबूत होती जाती है। यही मच्छरों के साथ भी हो रहा है। वे शायद ही हमारा कभी पीछा छोडें। चांद पर हम जाने की तैयारी कर रहे हैं। भविष्य में लोग दूसरे ग्रहों पर जायेंगे तो मच्छर शायद वहां भी उनके साथ होंगे। ताजे खून से प्यास बुझाने वाले ये जीव काफी चालाक भी होते हैं। आप इन्हें मसलने के लिये हाथ बढ़ाइये ये फौरन वहां से उड़ जायेंगे। वैसे हल्की सी ठेस से इनकी जीवनलीला समाप्त हो जाती है।
मच्छरों की आदतें इंसानों से मेल खाती हैं। वैसे कुछ दुबले-पतले लोगों को ‘मच्छर’ कहा जाता है। मच्छर जहां पैदा होते हैं, वहीं रहने वालों का खून चूसते हैं। ये प्राणी रक्त के भूखे होते हैं। इतने भूखे की अधिक खून चूसने के बाद इनसे ठीक से चला भी नहीं जाता। ठीक वही हालात जो पेटू इंसानों की या ‘खव्वा’ टाइप लोगों की होती है।
मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि मेरे अच्छे-भले सपनों को इन्होंने नष्ट कर दिया। एक रात की बात है कि मैं आराम से हवाई यात्रा कर रहा था बिना हवाई-जहाज के। अचानक कहीं से एक मच्छर ने मुझे काटा। मेरा संतुलन गड़बड़ा गया। मैं गिरने ही वाला था कि सपना टूट गया। मैंने ईश्वर का शुक्रिया किया कि मुझे आसमान से गिरने और मरने से बचा लिया। लेकिन वास्तव में मैं पलंग से नीचे गिर गया था। तभी एक मच्छर मेरे कान पर भिनभिनाया। वह शायद यही गा रहा था-‘कहो कैसी रही।’
-HARMINDER SINGH
मच्छरों के हमले काफी खतरनाक होते हैं। खासतौर पर जब आप चैन की नींद सोने की कोशिश कर रहे हों। आमतौर पर चैन की नींद आजकल लोगों को उतनी नसीब नहीं हो रही।
मुझे बड़ी कठिनाई होती है जब मच्छर मेरे कान पर भिन-भिन करते हैं। मन करता है उन्हें जीवित न छोड़ूं। यह विचार हर उस ‘दुखियारे जन’ का है जो ‘मच्छर जाति’ के आक्रमण से व्यथित है। हम बखूबी जानते हैं कि हत्या करना पाप नहीं ‘महापाप’ है, लेकिन मच्छर को मारना मजबूरी है। इसका कुछ माक्रोन व्यास का मामूली डंक तगड़े से तगड़े इंसान को बदहाल कर देता है।
अहिंसा की प्रवृत्ति इंसानियत दर्शाती है, मगर ‘रक्त-प्रेमी’ इस जीव को मारने पर हमें कोई नहीं कहता कि हमने कोई अपराध किया है। हां, मच्छर मारना कोई अपराध नहीं। इसके लिये दुनिया के किसी भी कोने में सजा का प्रावधान नहीं। मतलब यह कि मच्छरों की कहीं सुनवाई नहीं। उनकी कोई अहमियत नहीं। वो कहते हैं ना-‘भला मच्छर की भी कोई औकात होती है।’ लेकिन हम शायद यह भूल गये कि इसके डंक की तिलमिलाहट हमें इससे डरने पर मजबूर कर देती है। तभी हम इस ‘आतंकी’ से अपनी सुरक्षा का प्रबंध करते हैं।
पहले कछुआ छाप जलाते थे, मच्छर भाग जाते थे। मच्छर समय दर समय शक्तिशाली होते गये। जमाना बदला, मच्छर भी और अब वक्त ऐसा है कि ‘कछुआ’ चल बसा, ‘स्प्रे’ आ चुके लेकिन मच्छरों का कद बढ़ता ही जा रहा है। पहले मच्छर छोटे हुआ करते थे, अब वे काफी बड़े हो गये हैं। उनके पैरों की लंबाई को देखकर मैं कई बार हैरान हुआ हूं। जैसे-जैसे किसी जाति को मिटाने की कोशिश की जाती है, वह उसका मुकाबला करने के लिये समय-दर-समय मजबूत होती जाती है। यही मच्छरों के साथ भी हो रहा है। वे शायद ही हमारा कभी पीछा छोडें। चांद पर हम जाने की तैयारी कर रहे हैं। भविष्य में लोग दूसरे ग्रहों पर जायेंगे तो मच्छर शायद वहां भी उनके साथ होंगे। ताजे खून से प्यास बुझाने वाले ये जीव काफी चालाक भी होते हैं। आप इन्हें मसलने के लिये हाथ बढ़ाइये ये फौरन वहां से उड़ जायेंगे। वैसे हल्की सी ठेस से इनकी जीवनलीला समाप्त हो जाती है।
मच्छरों की आदतें इंसानों से मेल खाती हैं। वैसे कुछ दुबले-पतले लोगों को ‘मच्छर’ कहा जाता है। मच्छर जहां पैदा होते हैं, वहीं रहने वालों का खून चूसते हैं। ये प्राणी रक्त के भूखे होते हैं। इतने भूखे की अधिक खून चूसने के बाद इनसे ठीक से चला भी नहीं जाता। ठीक वही हालात जो पेटू इंसानों की या ‘खव्वा’ टाइप लोगों की होती है।
मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि मेरे अच्छे-भले सपनों को इन्होंने नष्ट कर दिया। एक रात की बात है कि मैं आराम से हवाई यात्रा कर रहा था बिना हवाई-जहाज के। अचानक कहीं से एक मच्छर ने मुझे काटा। मेरा संतुलन गड़बड़ा गया। मैं गिरने ही वाला था कि सपना टूट गया। मैंने ईश्वर का शुक्रिया किया कि मुझे आसमान से गिरने और मरने से बचा लिया। लेकिन वास्तव में मैं पलंग से नीचे गिर गया था। तभी एक मच्छर मेरे कान पर भिनभिनाया। वह शायद यही गा रहा था-‘कहो कैसी रही।’
-HARMINDER SINGH
Friday, December 5, 2008
उनकी खिड़की के कांच अभी चटके नहीं

ये सब रुकना चाहिये क्योंकि एक-एक जिंदगी बहुत कीमती है। आतंकियों का खेल खेलने का तरीका बेगुनाहों को मौत के घाट उतार देता है। पल भर में सब तबाह हो जाता है। सुहाग उजड़ जाते हैं, अपने बिछुड़ जाते हैं और बसे बसाये आशियाने बिखर जाते हैं। यह इंसानियत को शर्मसार करने वाला कृत्य है।
तड़पते इंसानों को देखना बहुत की पीड़ादायक होता है, मगर उनपर जो बीत रही होती है वह इससे भी कई गुना दर्दनाक है। हम अब तक पूरी तरह नहीं समझ पाये कि यहां कोई भी सुरक्षित है। कभी भी किसी की जान जा सकती है क्योंकि हमारे आसपास हर समय मौत मंडरा रही है। सच यह भी है कि हम अपनी मौत से भाग नहीं सकते।
आतंकी कहीं कुछ भी कर सकते हैं। इस साल जो हुआ उससे यह बात और पक्की हो गयी है। उनके इरादे कितने खतरनाक हैं यह भी हम सब जान गये हैं। और यह भी कि उनके लिये केवल हम भेड़-बकरी हैं जिन्हें कब हलाल करना है या झटके से मारना है वे अच्छी तरह जानते हैं। फिर हम ठहरे हुये क्यों है? हमारी सुरक्षा व्यवस्था के जिम्मेदार हम खुद ही हैं क्योंकि जिनके हाथ हमारी सुरक्षा का जिम्मा है शायद उनकी खिड़की के कांच अभी चटके नहीं हैं।
-Harminder Singh
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| हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
![]() >>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
| दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
![]() | ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |


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