सब कुछ क्षीण हो गया है। अब ऐसा लगता है मानो हाथ थक गये, शरीर थक गया। यह तो अब तक का समय था, पता ही नहीं चला कब बीत गया। बीत गया सब कुछ, बस यादें शेष बची रह गयीं। यादें भी थकीं हुयीं हैं, उनमें ताजगी कहीं खो गयी है।
सोचने की फुर्सत ही फुर्सत है लेकिन फुर्सत अब नहीं है। बहुत कुछ बदलाव आ गये हैं। कई बातें ठेस पहुंचा जाती हैं, चुपचाप सहने की हिम्मत भी शायद बढ़ रही है। आदि हो चला है बुढ़ापा सहने का और सहने के सिवा है ही क्या? यहीं वक्त ठहर रहा है, गुजर रहा है वक्त, कितने दिन का और इंतजार। इंतजार कभी न खत्म होने वाला और जब खत्म होगा पता भी नहीं चलेगा।
पहले वक्त कम था, दिन छोटे, साल कई ऐसे ही गुजर गये। अब वक्त मानो ठहर कर डरा रहा है, रुक रहा है और कभी-कभी तो सब शांत सा लगने लगता है। परछाईं मुरझाई सी लगती है। अंधेरा बढ़ने की ओर है और उजाला थमने की ओर। कोने की शक्ल को कैसे भूला जा सकता है, वह अपना है। एक कोने की जगह ही तो चाहिये अब बस। वहीं थकी जिंदगी के बचे पल गुजर जायेंगे बस यूं ही। यह सब क्या है? पता भी तो नहीं। क्यों हो रहा है? पता नहीं। इतना पता है कि यह होता है और आगे भी होता रहेगा।
अंतिम दिन तो सबके आते हैं। आने की बारी को रोकना मुश्किल है, शायद उसके लिये भी जिसने वक्त बनाया है और वह तो बेबस है ही जो उसके आगे नाच दिखा रहा है। यह बेबसी का नाच है। बेबसी रोती है, हंसी का चेहरा अब नहीं है। शोरगुल को आना चाहिये था पर वह भी बचके निकलने की फिराक में है। क्या सब कुछ आपे से बाहर होता जा रहा है। उंगलियां रुक सी गयी हैं। सरकती नहीं बाहें अब और, पैर तो सहारा चाहते हैं। अपने रुठे नहीं है, अलग हो गये हैं।
विदाई अंतिम होगी यह भी सत्य है। सत्य यह भी है कि वक्त की लगाम छूट जायेगी और सितारा डूब जायेगा। सूरज अस्त होता हुआ एक जगह छिप जायेगा सदा के लिये।
-HARMINDER SINGH
Saturday, June 28, 2008
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
ब्लॉगिंग को जारी रखें,
ReplyDeleteमेरी शुभकामनाएं
bhut sundar likha hai. badhai ho. jari rhe.
ReplyDeleteअन्त सबका लगभग एक सा होगा परन्तु हम अन्त तक अन्त को झुटलाते रहते हैं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती