बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, May 17, 2008

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल

मायने रखते हैं वो पल जब उन्हें नींद नहीं आती। वे सोने की कोशिश करते हैं। उनकी हड्डियां दर्द करती हैं और वे उठ बैठते हैं। प्रताप महेन्द्र सिंह की कद काठी अच्छी खासी रही है। कमर अब सीधी उतनी नहीं होती और हड्डियों पर खाल चिपक गयी है।

वे कहते अखबार में पढ़ी एक छोटी सी कहानी कहते हैं,‘‘एक राजा था। बहुत भला, दानी और पुण्य वाला। राज्य में एक बार अकाल पड़ा। भूख के मारे लोग बेहाल थे। राजा ने अपना सर्वस्व उन्हें दे दिया। अब वह दाने-दाने को मोहताज था। उसका सब कुछ लुट गया। वह दुर्बल हो गया, शरीर पर खाल की परत जमा थी। एक साधु ने उससे पूछा कि आप का यह हाल कैसे हो गया। राजा ने कहा कि मुझसे अपनी प्रजा का दुख देखा नहीं गया। मैंने अपना सब कुछ दान कर दिया।’’

यह कहानी छोटी है, लेकिन इसके पीछे वे अपनी तस्वीर की कल्पना करते हैं। वे राजा तो नहीं हैं, न ही उनकी कोई प्रजा।

बताते हैं,‘‘दुर्बल में भी उसी राजा की तरह हो गया हूं। हड्डियों मेरी दुखती हैं, शरीर में ताकत अब बची नहीं। रात में करव लेते हुयी भी परेशानी होती है। उठ बैठता हूं। फिर लेटता हूं। फिर बैठ जाता हूं। यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं। लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा।’’


प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं-

''लाचारी
और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।''







प्रताप महेन्द्र जी उम्रदराज हैं, एकांत में बैठते नहीं। यदि कोई उनके पास बैठता है तो बातें होती हैं और बहुत होती हैं।

भोरकाल में उठकर दूर तक घूम आते हैं। धीरे-धीरे यह दूरी कम हो रही है।

इक दिन वे हमसे दूर होंगे।

आज वे मुस्कराते हैं, बच्चों से खूब बातें करते हैं और ठिठोली भी।

किताबों से लगाव उस दिन से पैदा हो गया जब वे मुंशी निर्मल सिंह के संपर्क में आये। इन दिनों कई एतिहासिक किताबें उनकी खाट के पास रखी रहती हैं। चश्मा चढ़ाकर वे उन्हें पढ़ते हैं। हाथों की उंगलियां अधूरी हैं, फिर भी वे पन्ने उलटते हैं।

किसी जहरीली कीटनाशक को इन्होंने अपने दोनों हाथों से घोल दिया था। तब से इनकी उंगलियां आधी हो गयीं।

निर्मल जी को याद करते हैं। कहते हैं,‘‘मैं उनके साथ लाहौर गया था। वे मुझसे बेहद लगाव रखते थे। उनके भाषण आज भी जेहन में ताजा हैं। वे बोलते थे, सब सुनते थे, बिल्कुल ध्यान से। कई बेचैनों की बेचैनियों को उन्होंने दूर किया। वे सच्चे आदमी थे।’’

प्रताप महेन्द्र खुद ग्रामसेवक रहे। इनके बारे में कुछ बाते पहले भी लिखी जा चुकी हैं, देखें-‘‘दो बूढ़ों का मिलन’’। इनके दो पुत्र एक पुत्री हैं। पुत्र सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं।

टिकैत की किसान यूनियन की जब लहर चली थी, तो ये उसके सक्रिय सदस्य थे। सैंकड़ों लोग इनके घर एक साथ पधारते थे। सबका खाना-पीना महेंन्द्र सिंह के यहां होता था। खूब रौनक रहती थी। हरी टोपी वाले गांव में लगभग रोज नजर आते थे।

आज भी कई लोगों का भोजन इनके यहां बनता है। लोग उतने नहीं हैं, लेकिन कुछ साथी हैं पुराने जो इकट्ठे पिलखन(बरगद की तरह एक वृक्ष) की घनी छांव में बैठ जाते हैं। भोजन किये बगैर किसी को जाने नहीं देते।

वे गंभीरता से कहते हैं,‘‘बस बीत गया, जिसे बीतना था। पूरा हो गया, जिसे पूरा होना था। मैं भी वहीं चला जाउंगा, जहां सब जाते हैं। वह कोई नयी जगह थोड़े ही होगी।’’

उनकी बात सही है। वह जगह नयी नहीं है। वह जाना सच्चाई है।

एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-

‘‘इक दिन बिक जायेगा,
माटी के मोल,

जग में रह जायेंगे,

प्यारे तेरे बोल।’’



हरमिन्दर सिंह द्वारा

3 comments:

  1. It is true. Ek din sabko mati ke mol hi bikna hai.

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  2. ये ब्लॉग तो श्रद्धा का पवित्र स्थल है.
    बहुत ज़रूरी और बेशक़ीमती प्रस्तुति.
    हमारे बुज़ुर्गों ने जो कुछ दिया और जिया है
    उसे जानने-समझने और उनके प्रति दायित्व-बोध
    विकसित करने की सख़्त ज़रूरत है.
    निदा फ़ाज़ली साहब के एक शेर के माने हैं कि
    माथे पर जिसके सिलवटें ज़्यादा हैं वह
    इसी वज़ह से कि ज़िंदगी ने उस इंसान को कुछ ज़्यादा पहना है.
    लिहाज़ा इन तज़ुर्बेकारों का लाभ हर पीढ़ी को उठाना चाहिए.
    ===================================
    इस पहल के लिए आभार.
    डा.चंद्रकुमार जैन

    ReplyDelete
  3. प्रताप महेन्द्र जी को मेरा नमन.

    ReplyDelete

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हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

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कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
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अपनेपन की तलाश

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बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
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कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
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इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
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