बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

LATEST on VRADHGRAM:

Friday, March 19, 2010

हर पल जीभर जियो

[boodhi+kaki+kehete+hai_vradhgram.jpg]


‘‘छोटी-छोटी खुशियां हमारे लिए कितने मायने रखती हैं। जरा सी खुशी पाकर हम फूले नहीं समाते। असल में इसका असर गहरा होता है। सीधा हृदय पर जाकर लगता है। लोग दिल से खुश होते हैं, तो कितना अच्छा लगता है। आंखें भर आती हैं। पलकें भीग जाती हैं। सच्चे अर्थों में इंसान खुश होता है।’’बूढ़ी काकी बोली।

काकी किसी विचार में डूब गयी। उसका चेहरा गंभीर हो चला था। मैंने उसकी हथेली को छूकर देखा। रेखायें गहरी थीं। दरारों के बीच की दूरी सिमटी कहां थी? बल्कि गहराई तिड़की हुई थी। शुष्क हथेली खुरदरेपन का अहसास कराती थी। चमड़ी में खिचाव की बात कब की खंदकों में दफन हो चुकी। इस समय घास के तिनके भी हाथ आ जाएं तो गनीमत है। खैर, कोशिश जारी है।

काकी फिर बोली,‘‘छोटी-छोटी चीजों को इक्ट~ठा कर उनसे कोई बड़ी चीज बनाई जाती है। हम यही करते हैं। खुशियों के कारण प्राय: मामूली होते हैं। किसी के लिए कोई बात खुशी लाती है, तो कोई किसी बात पर खुशी के आंसू बहाता है।’’

‘‘अक्सर इंसान इंसान के लिए खुशी बांटता है। कुछ उसे हासिल कर लेते हैं, कुछ वंचित रह जाते हैं। कई ऐसे भी होते हैं जिनके हिस्से की खुशी छिन चुकी होती है। वे वीरान संसार का हिस्सा खुद को समझने से परहेज नहीं करते। शायद यह उनकी आदतों में शुमार हो जाता है।’’

‘‘कुछ शायद दूसरों से इस कदर जुड़ाव महसूस करने लगते हैं कि उन्हें अपने हिस्से की खुशी देने की कोशिश करते हैं। ये वे होते हैं जो दूसरों की खुशी से अपनी खुशी हासिल करना चाहते हैं। कुछ खास लोगों को वे पता नहीं क्यों दुखी नहीं देखना चाहते। यह स्वत: ही होता है। दूसरों को यह अजीब जरुर लगता है, लेकिन उतना होता नहीं। वे सोचते हैं कि उन्हें संसार का सबसे बड़ा सुख मिल गया, पल भर में, सिर्फ हंसकर ही।’’

‘‘कुछ ऐसे भी होते हैं जो खुशी खरीदते हैं। जबकि हम यह जानते हैं कि न जिंदगी खरीदी जा सकती है, न उससे मिलने वाली खुशी। मैं कहती हूं इंसान हर पल को जीभर कर जीना सीखे। चूम ले रोशनी को ताकि सूरज निकलने का इंतजार न करना पड़े। दूसरों से लगाव करना सीखे वह। उनके शब्दों को समझे, मीठा बोले, तो कितना कुछ आसान हो जाए।’’

‘‘खुद से कहे कि वह हर पल को जीना चाहता है। इतना शानदार कि उसका चित्त हंसता रहे बिना अवरोध के। जिंदगी का क्या पता कब थम जाये। वह यह सोचे कि वह कितना खास है खुद के लिए, और उसकी एक मुस्कराहट उसके और दूसरों के जीवन में क्या कुछ बदल सकती है।’’

काकी ने जितना जीवन जिया खुद को खास मानकर जिया। वह जिंदगी के उस मोड़ पर खड़ी है जहां फर्श की दरारें दूरी बनाती जा रही हैं, इंतजार सिर्फ इंसान के धंसने का है।

-harminder singh

3 comments:

  1. वाकई, जिन्दगी का क्या पता कि कब थम जाये..

    ReplyDelete
  2. जितना जिए खुद को ख़ास मान कर जिए ...अब इससे ज्यादा क्या कोई जीए ...
    मौत तो जब आनी है आनी ही है ...तब तक हर पल ख़ुशी से जीए

    ReplyDelete
  3. आज 30 मार्च 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में आपकी यह पोस्‍ट संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में फर्श की दरारें शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।

    ReplyDelete

Blog Widget by LinkWithin
coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



[ghar+se+school.png]
>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

[horam+singh.jpg]
वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
[ARUN+DR.jpg]
वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com