बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, October 27, 2009

वाकई जीना उतना आसान नहीं



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मैं आज फिर से उदास हूं। मेरा एक साथी कैदी सादाब चुप सा रहने लगा है। पिछले कई दिनों से पता नहीं क्या हुआ कि वह मायूस रहता है। उसका चेहरा काफी शांत लगता है। मैंने उससे पूछा नहीं, लेकिन लगता है कि वह अंदर ही अंदर दुखी है। ऐसा होता है जब हम हृदय से अधिक सोचना शुरु कर देते हैं। हमारा मन कुछ सोचता है, दिमाग कुछ। तब अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मैं उसके हृदय को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता। इसलिए मैंने उससे बिल्कुल नहीं पूछा कि वह उदास क्यों है? हम ऐसा करते भी नहीं क्योंकि हर किसी का अपना व्यक्तिगत जीवन होता है जिसके बारे में हर कोई बताना भी तो नहीं चाहता।

सादाब काफी हंसता था। हालांकि वह खुश नहीं था, मगर वह हंस देता था। शायद इससे उसका दुख कम हो जाता था। उसकी एक मुस्कराहट से मुझे भी काफी राहत मिलती थी। ऐसा अक्सर होता था। कोई बात होती तो गंभीरता से उसपर वार्तालाप होता। जब कुछ अधिक गहरापन आ जाता तो वह अपनी हंसी को बीच में लाकर उसमें उथलापन ला देता। उसके विचार मुझे प्रभावित करते हैं। मैं सोचता हूं कि वह पहले मुझसे काफी कुछ कहता आया है, फिर कुछ दिनों से क्यों अपनी व्यथा नहीं बताना चाहता। मैं किसी को दुखी नहीं देखना चाहता।

इंसान इसलिए इंसान कहलाता है क्योंकि उसमें इंसानियत है और इंसानियत कहती है कि दूसरों की जरुरत पड़ने पर जहां तक हो सके मदद करो। उन्हें यदि किसी चीज की जरुरत है उसे उपलब्ध कराओ। मैं चाहता हूं कि वह इस तरह गुमसुम न रहे। उसने मुझे कई बार हौंसला दिया है। मैं भी कम हताशा से भरा नहीं, बल्कि अपने आसपास कई लोगों के कारण कभी-कभी बहुत कमजोर हो जाता हूं। इंसान कमजोर नहीं होता, उसे लोग ऐसा बना देते हैं। कुछ बातों का असर होता है, कुछ स्थितियों का, लेकिन हम खुद को विचारों से लड़ता हुआ असहाय पाते हैं। फिर कहते हैं कि जीना उतना आसान नहीं। वाकई जीना उतना आसान नहीं। शायद मरना भी कठिन है।

-harminder singh

Monday, October 26, 2009

ठेस जो हृदय तोड़े


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बूढ़ी काकी ने कहा,‘हम कई बार बिना सोचे-समझे बहुत कुछ कह जाते हैं। हमें अहसास नहीं हो पाता कि क्या कह दिया। लेकिन कुछ समय बाद मालूम पड़ता है कि शायद जो नहीं कहना चाहिए था वह कह दिया। जो नहीं करना चाहिए था वह कर दिया। इंसानों के साथ अक्सर ऐसा होता है।’

  ‘मैंने कई बार जाने-अनजाने बोल दिया। उस समय शायद मुझे नाप-तोल का वक्त न मिला हो, लेकिन शाम को सोते समय मुझे ख्याल आया कि आज कुछ गलत हो गया। मैंने किसी के हृदय को ठेस पहुंचा दी। जब हमें दर्द होता है, तब पता चलता है। दूसरों को दुख देना आसान है। मैं रात भर करवट बदलती रही। सोचती रही कि चंदा जो मेरी सखा थी, उसको कैसा महसूस हो रहा होगा।’

  काकी को बीच में रोक कर मैंने कहा,‘शायद बहुत बुरा लगा होगा उसे। ऐसे मौकों पर भला अच्छा कैसे लग सकता है?’

 मेरी बात को ध्यान से सुन काकी बोली,‘दिल तोड़ने आसन हैं, जोड़ने मुश्किल।’

 मैंने काकी को कालेज में मेरे साथ पढ़ने वाले राम और अंजलि का किस्सा बताया। इसपर काकी तपाक से बोली,‘राम के साथ अंजलि......कुछ अजीब नहीं लगता। ऐसा हो सकता था जैसे राम-श्याम, सीता-गीता, और राम....... बगैरह-बगैरह। आगे कहो।’

  मैंने बताना शुरु किया,‘न वे दोस्त थे, न दुश्मन, लेकिन राम को लगता था कि किस्मत ने उन्हें बस यूं ही मिला दिया। शायद इसलिए कि पिछले जन्म की कुछ बातें अधूरी रह गयी हों। खैर, राम कई बार जल्दबाजी में अंजलि को कुछ-न-कुछ अजीब बोल जाता। इसका असर अंजलि के चेहरे पर साफ झलकता। फिर काकी, बिल्कुल आपकी तरह वह रात को सोते समय दिन भर की बातों को याद करता, विचार करता। फिर अंजलि को याद करता कि ऐसा उसने क्यों किया कि किसी को बुरा लग गया हो। वैसे शब्दों की चोट हृदय पर काफी प्रभाव करती है। लेकिन राम अगले दिन या कुछ समय बाद अंजलि से बात कर स्थिति को फिर सामान्य बनाने की कोशिश में लग जाता।’

  काकी ने अपनी झुर्रिदार, कमजोर गर्दन को घुमाया। वह बोली,‘लोग ऐसा कर तो जाते हैं, पर बाद में उन्हें एहसास भी होता है। मुझे लगता है इंसान ऐसा ही करते हैं। कुदरत ने उन्हें ऐसी बुद्धि दी है, या समझ से परे है सब कुछ। वैसे, सोच समझकर बहुत कुछ आसान किया जा सकता है। चिंतन सबसे महत्वपूर्ण है। किसी के हृदय को ठेस क्यों पहुंचायी जाये? तुमने राम-अंजलि की बात बताई। उससे राम के व्यवहार के विषय में साफ मालूम लग जाता है। फिर अंजलि की भावुकता का भी पता लगता है क्यों तुमने कहा कि उसका चेहरा बदल जाता है। आगे तुम कहते हो कि राम ठेस पहुंचाकर मामला सुलझा लेता है। यह राम का व्यवहार अजीब नहीं लगता।’

  मैंने कहा,‘शायद यह भगवान की मर्जी है कि उन दोनों में विवाद नहीं हुआ। राम को भरोसा होगा कि भगवान सब संभाल लेगा। वैसे हमें आजतक वह ही तो संभालता आया है।’

  इसपर काकी ने कहा,‘इंसानों के विचार अगर ठीक तरह से चल रहे हैं तो कुछ नहीं बिगड़ने वाला। मुझे नहीं लगता कि हम कभी विचारों की लड़ाई से पार सकेंगे। हां, उन्हें एक व्यवस्था जरुर उपलब्ध करा सकते हैं। हमें सीखना होगा ताकि किसी को यह न लगे कि हम बुरे हैं। हमें सीखना होगा कि किसी का हृदय कभी न टूटे, कभी न दुखे क्योंकि इससे व्यक्ति भी बिखर जाता है। हमें नहीं कहना होगा वह शब्द जो वाण की तरह धंस जाए।’

  ‘शायद बहुत सी चीजें कही अच्छे ढंग से जाती हैं, लेकिन उन्हें उस तरह करना मुश्किल होता है।’

  इतना कहकर काकी ने विराम लिया। मैं उसकी आंखों को देखता रहा, कितनी शांत थीं।

-harminder singh

Sunday, October 25, 2009

बेहाल बागवां

पाला नाज से जिन्हें,
आज आंख दिखाते हैं,
सुनते नहीं, उलटे
जुबान लड़ाते हैं,

यह सिला मिला एक बागवां को,
बगीचा पाल कर,
उन्हें परवाह नहीं, खुश हैं ‘वे’,
बागवां को बेहाल कर,

दर्द को किस से कहे ’बेचारा’,
किस्मत को कोस रहा,
पड़ा एक कोने में,
मन मसोस रहा,

कुछ नहीं बचा अब,
सब छिना जा रहा,
कैसा खेल है ऊपरवाले,
‘वह’ पराया गिना जा रहा।

-harminder singh

Tuesday, October 20, 2009

स्वयं से लड़ना बहुत मुश्किल है


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यह सच है कि जीवन एक कहानी की तरह है। कहानी की शुरुआत होती है और वह समाप्त भी हो जाती है। यही सब तो हमारे साथ होता है। वे लोग ही आपस में मिलते हैं जिनकी कहानी एक तरह की होती है। वे लोग ही मित्र होते हैं जिनके विचार एक जैसे हों। अगर मित्र दुखी है तो वह हमारे दुख को अपना मानकर हमारा साथ देगा।

जो लोग मुझे मिले, जिन्हें मैंने अपने हृदय का हाल बताया वे सब मेरी ही तरह टूटे हुए और असहाय थे। वे मुझसे कहीं अधिक कष्टकारी समय को बर्दाश्त कर रहे थे, लेकिन उनकी ताकत क्षीण नहीं हो रही थी क्योंकि वे जीवन से हारना नहीं चाहते थे। उनके लिए जीवन संघर्ष का मैदान है। ‘इंसान वही होता है जो लड़ता हुआ मरे। संघर्ष करने की क्षमता हमारे भीतर मौजूद है। तुम कर कर तो देखो।’ अब्दुल ने मुझसे कहा था। शायद कुछ लोग कहकर कर जाते हैं, कुछ केवल कहते रह जाते हैं। अब्दुल ने तबाही का दर्द झेला। उसने खुद को संभाला। यह उसका संघर्ष था क्योंकि स्वयं से लड़ना बहुत मुश्किल है।

-harminder singh

Monday, October 19, 2009

जिंदगी कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है


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मैं ‘बेचारा’ कहलाना नहीं चाहता। इस शब्द से मुझे नफरत है। लोग कहते हैं कि मजबूर की मदद करो। मुझे लगता है कोई मजबूर नहीं। सब हालातों के हाथ कठपुथली हैं। इस हिसाब से सारा संसार किसी न किसी मौके बेचारा है। फिर मैं भी एक बेचारे से कम नहीं, लेकिन मैं खुद को बेचारा नहीं कहना चाहता। मैं हौंसले से जीवन की सच्चाई का मुकाबला करना चाहता हूं। पर यह कठिन लगता है। मैं अपनों से बहुत दूर हो कर भी उनके पास हूं, पर उनकी याद के सहारे धुंधले पड़ गए हैं। मेरा संसार रुका हुआ सा हो गया है, उधड़ा हुआ सा हो गया है। एक अजीब सी कशमकश फिर से उभरी है। शायद उभरती रहेगी टीस बनकर।

सहारे की तलाश जीवन भर रहती है। इंसान सहारा चाहता है। बिना सहारे के शायद जीवन अधूरा है। अपनों का सहारा मिलता है तो बहुत बेहतर होता है। मेरे पास कोई नहीं जो संभाल सके। जब हम निराश होते हैं, दुखी होते हैं तब हमें ऐसे व्यक्ति की तलाश रहती है जो हमें हौंसला दे सके और हमारे दर्द को समझ सके। मुझे कई लोग ऐसे मिले जो मेरे काफी करीब आये, लेकिन वे मुझसे दूर चले गये। उनकी कहानी भी मेरी ही तरह थी। जब कभी अधिक निराश होता हूं तो इस गीत को गुनगुनाता हूं-

‘जिंदगी कुछ भी नहीं,
तेरी मेरी कहानी है।’

-harminder singh

Sunday, October 18, 2009

एक बूढ़ा नदी से आंख मिलाता है




 नदी का रास्ता होकर गुजरता है मेरे गांव। मैं उस ओर नहीं जाता क्योंकि वह मुझे नहीं भाता। गांव वाले अक्सर कहते हैं कि वहां कई का जीवन थमा है। एक भय है, संशय भी, कहीं अगली बारी हमारी न हो।

मगर एक बूढ़ा वहां रोज घंटों बैठकर नदी से आंखें मिलाता है। उसे न भय है, न संशय। नदी जानती है कि एक मामूली लहर में वह ढह जायेगा। पर वर्षों से वह नहीं डूबा, न बहा क्योंकि उसे पास एक लाठी है- हौंसले की लाठी। वह कहता है,‘‘नदी झूठ बोलती है। भला बुढ़ापा इतना कमजोर कहां?’

बुढ़ापा जर्जर है, थका है, ऊबा है, पर लड़ाई जारी है खुद से और अपनों से।

बूढ़ा आगे कहता है,‘‘शरीर पुराना हुआ क्या हुआ, इंसान और मजबूत हुआ है।’’

तभी नदी का ऊफान उसे क्षति पहुंचा नहीं सका। तभी वह तना खड़ा है। तभी वह खोखले मुंह के साथ मुस्करा रहा है। तभी वह नदी से आंख मिला रहा है।

-harminder singh

Saturday, October 17, 2009

दीवाली पर दिवाला


























दीवाली का समय जैसे-जैसे,
करीब आ रहा था,
दम मेरा धीरे-धीरे,
निकला जा रहा था,
अकाल पड़ा है, पानी नहीं बरसा,
कैसे मनेगी दीवाली?
रंग-रोगन, मिठाई, नए कपड़े,
है मेरी जेब खाली,
कहती पत्नि देकर ताने,
‘ये लाओ, वो लाओ,
चरणों में रख दो,
पूरा बाजार ही उठा लाओ।’

बच्चों की समस्या अलग,
कष्ट पहुंचाने की,
कुछ मेरी जेब,
कुछ मुझे खाने की,
‘नहीं पापा हम एटम-बम,
रोकेट छोड़ेंगे जरुर’,
बच्चे मेरे हैं, मेरे जैसे,
नहीं उनका कसूर।

हद कर दी दीवाली ने,
दिवाला निकलवा दिया,
जेब में धमाका, कड़का कर,
कड़का बना दिया,
शपथ लेता हूं,
होगी नहीं आगे ऐसी बर्बादी,
शपथ तोड़ता हूं,
मैंने जो कर रखी है शादी।

-हरमिन्दर सिंह

Friday, October 16, 2009

बस चाह थी सूखने की



















आंसू
का कतरा-कतरा बहकर फर्श पर गिरा है। बूंद को कोई संभाल न सका। शुष्क आंखों में गीलापन, लबालब पानी है भरा। खारा पानी है वह। क्या नमक मिला है? नहीं दर्द भरा है।

पलकों को भिगोया है। सिलवटों को छुआ है, उनका सहारा लिया है। गंतव्य मालूम नहीं, फिर भी आंसू बहा है होता हुआ किनारों को छूकर, सरपट दौड़ा है। चमक थी अनजानापन लिए, सिमेटे ढेरों अल्फाज - कुछ जिंदगी के, कुछ अनकहे। रुढककर थमा नहीं। रास्ता जानने की फुर्सत कहां। बस चाह थी सूखने की।

-harminder singh

Thursday, October 15, 2009

मैं दीवाली देखना चाहता हूं



























बेताब है रोशनी,
दरार से झांकने को,
सही सलामत हूं मैं,
अकेला भी,
साथ नहीं कोई यहां,
सोच कहती है,
जलते दीये देखूं,
मोम का पिघलना देखूं।

कदमों को धीरे बढ़ा,
चलना चाहता हूं,
अंधेरे में रहा जीवन,
उजाला देखना चाहता हूं,
बीत गयी होली कब की,
रंगों में नहीं नहाया,
इस बार,
सिर्फ एक बार,
रोशनी में भीगना चाहता हूं,
लड़खड़ाते कदमों से ही सही,
सच कहूं,
मैं दीवाली देखना चाहता हूं।

-harminder singh

Wednesday, October 14, 2009

उर्मिला के पिता चल बसे

वे लाठी का सहारा लेकर चलते थे। उनकी आंखों की रोशनी सालों पहले छिन चुकी थी। दो बेटियों के पिता थे। और एक पत्नि के पति जो बेचारी वृद्धावस्था भोग रही है, लेकिन मानसिक रुप से लाचार है। उर्मिला के पिता दो दिन हुए, चल बसे। मेरी मां को सबुह यह सूचना उर्मिला की सास से मिली।

मैं सोच में पड़ गया कि लोग किस तरह बिना बताए चले जाते हैं। और पीछे छूट जाते हैं रोते-बिलखते परिजन। मौत का सच पीड़ादायक होता है। मातम की घड़ी कष्टकारी होती है।

जीवन का खेल खत्म होने के बाद इंसान का अस्तित्व नहीं रह जाता। रह जाती हैं बस यादें। उर्मिला अपने पिता को उतनी तवज्जो नहीं देती थी। जब वे घर आते वह उनके पास कम ही वक्त बिताती।

एक बार जब वे गजरौला आये, उर्मिला का पता पूछने लगे। चूंकि उन्हें दिखता नहीं था, इसलिए लाठी का सहारा लिए इधर-उधर घूमते रहे। गांव से किसी गाड़ी में बैठकर बेटी से मिलने आये थे। गाड़ी वाला उन्हें पास के मोहल्ले के किनारे छोड़ गया था। करीब दो घंटे पूछताछ के बाद वे उर्मिला के घर पहुंचे। किसी बच्चे की उंगली पकड़ रखी थी। उर्मिला का हाथ थामकर वे रो पड़े।

उर्मिला के यहां वे कुछ दिन रहे। उनके साथ मैंने उर्मिला को कभी बैठे नहीं देखा। हां, धेवता और धेवती जरुर अपने नाना संग चारपाई पर बैठकर घंटों बतियाते। वे खुश थे अपनों के बीच, लेकिन दुख भी था कि स्नेह कहीं अधूरेपन के छींटे दे गया था। उनकी सगी बेटी उनसे घुल-मिल नहीं रही थी। बूढ़े लोगों से दूरी का कारण उनका बुढ़ापा होता है। लगता था जैसे पराये घर सगी बेटी बिल्कुल पराई हो गयी थी। वे भरे मन से घर लौटे जरुर थे, लेकिन खुशी इसकी थी कि बेटी खुश है।

आज उर्मिला दुखी है। आज वह जी भर कर रोई है। उसने पिता को याद कर दहाड़े मारे हैं, छाती पीटी है। यह ढोंग नहीं था। दुख था अपने के बिछुड़ने का। किसी के दूर जाने का। शायद रिश्ते जिंदगी भर दरके हुए लगें, लेकिन अंतिम समय वे जुड़ जरुर जाते हैं।

-harminder singh

Tuesday, October 13, 2009

मुरझाये चेहरों का सूखा हिस्सा

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केवल मुरझाये चेहरों का सूखा हिस्सा बनने में ही फिलहाल बेहतर मालूम होता है। इसके अलावा इस घुटन में कुछ खास नहीं। कल की बातों को सोचना बेवकूफी लगती है। उनका समय बीत चुका। पुरानी कोई भी चीज हो, वह नयी कभी दिख नहीं सकती। वह हंस नहीं सकती, मुस्करा नहीं सकती, गुनगुना नहीं सकती। हां, अपने साथ घटने वाला तमाशा चुपचाप देख जरुर सकती है।

दूसरों को आपका दर्द मालूम नहीं होता। वे केवल उपहास करते हैं। मुझे चिढ़ाया जाता है। ऐसा कई बार हुआ है। कई कैदियों ने शाम के भोजन के समय मुझसे खींचातानी भी की। मैंने कुछ नहीं कहा। खामोशी कई बार हमें रोकती है। मैं किसी से कुछ कहना नहीं चाहता। मैं उन लोगों से अलग रहता हूं। वैसे मैं अच्छी तरह जानता हूं कि कुछ लोग दूसरों को दुखी करकर सुकून महसूस करते हैं। यह उनका आनंद है।

-harminder singh

Monday, October 12, 2009

सूखी भी, गीली हैं आंखें








‘खुशियां सिमट जाती हैं। जिंदगी एक खाली कटोरा लगती है। दौड़ती थी जो चीज कभी, आज रुकी सी लगती है। ऐसा लगता है जैसे कुछ थम सा गया है। बदला है, तब से अबतक बहुत कुछ बदला है। बदली है मेरी जिंदगी, बदली है हंसी। और बदल चुकी हूं मैं। मैं पहले जैसी नहीं रही, मगर मैं खुश हूं। संतुष्टि एक अलग एहसास कराती है। हमें जीने का सलीखा सिखाती है।’ इतना कहकर काकी ने पलकों में पुतलियों को छिपा लिया। कुछ क्षण वह मौन साध गयी। मैं उसके चेहरे पर बनती-बिगड़ती बनावट को गंभीरता से देखता रहा।

वृद्धों के चेहरे सिलवटों से भावनाओं को व्यक्त कर देते हैं। एक-एक लकीर अपनी कहानी कहती है- जरा गौर से पढ़िए या उनमें खुद को डुबोकर देखिए। हमें मालूम लग जाएगा कि बुढ़ापा क्या-क्या समेटे है।

आंखें खोलकर काकी ने मेरी तरफ देखा। मुझे बूढ़ी काकी की बूढ़ी आंखें ऐसी लगीं जैसे कुछ कहना चाह रही हों। उनमें एक संसार बसता है जो निराला बिल्कुल नहीं। एक ऐसा धुंधला संसार जो कोहरे से ढका बिल्कुल नहीं। जहां हरियाली है जरुर, पर सूखे पत्तों में कहीं छिप गयी है। माहौल उजाले भरा है, लेकिन घने अंधेरे ने कहीं से दस्तक जो दे दी है। सब जगह सूखी मिट्टी के टीले हैं। उनमें कहीं-कहीं उम्मीदों के छींटे पड़े हैं। ऐसा लगता है जैसे बहार आते-आते रुक गयी। बीच का काला बिन्दु गहरा होता जा रहा है। आसपास के इलाके को भी धुंधला करने की कोशिश की है। कहीं कोई चूक तो नहीं हुई, मालूम नहीं। सूखी नदियां इसी रास्ते बहती हैं। भावनाएं उमड़ कर बाहर तरल अवस्था धारण करती हैं। मन का बोझ हल्का हो जाता है। एक गहराई लिये लोक जिसमें झांकना मुमकिन है, लेकिन उसे नापा नहीं जा सकता। अथाह, विचित्र, नवेला, अनगिनत रहस्यों को छिपाये हुए। सफेदी पर उम्र ने परत चढ़ा दी है जिसका छुटना मुश्किल है। उजलेपन को फीका कर दिया है। मैं फिर भी उनमें छिपा उजाला ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा हूं। काकी का जीवन के प्रति नजरिया जो भी रहो हो, मैं उसकी आंखों को पढ़ने की असफल कोशिश करता रहा।

इंसान को वक्त ही कहां मिलता है कि वह चीजों की गहराई को जान सके। आंखों से आंखों को पढ़ने के लिए पूरा जीवन न कहीं बीत जाए। बीत न जाए वह सब जिसने जीवन को जीना सिखाया।

बूढ़ी काकी का मौन टूटा, वह बोली,‘बुढ़ापा खाली बैठने वाला नहीं। अनगिनत ख्वाहिशें विचरती हैं। कौन कहता है ये आंखें खामोश हैं? इनमें इतना कुछ समाया है कि खोज कभी खत्म ही न हो। शायद अब भी किसी को खोजती हैं। पलकें खुलती हैं, बंद हो जाती हैं। इंसान जागता है, सो जाता है। आधी-अधूरी इच्छायें पूर्ण करने की जद्दोजहद होती है। संसार को क्या दिया, कितना लिया। सब कुछ देखती हैं आंखें। सुख होने पर खुशी से भर जाती हैं। दर्द होने पर कराह उठती हैं आंखें। नाजुक हैं, फिर भी कितना कुछ सह जाती हैं आंखें। अनमोल हैं किसी के लिए कोई, और उनसे भी कीमती हैं उसकी आंखें। न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाती हैं। जो हम जुबान से नहीं कह पाते, वह निगाहें कह जाती हैं। चुप हैं आंखें, मगर कितना बोल जाती हैं। यहां शब्दों की गुंजाइश नहीं रह जाती, बल्कि हर कोई बात बिखर जाती है ताकि उसे समझा जा सके। कभी क्रोध को, तो कभी प्रेम को व्यक्त करती हैं आंखें। मेरे हिसाब से इनके जितना बेमिसाल कोई अंग नहीं। अजब-गजब का दर्शन कराती हैं। निरालापन-अलबेलापन समझाती हैं। इंसान को इंसान से मिलाती हैं। यह संसार सुन्दर है, हमने इसके रुप को अपनी आंखों से निहारा है।’’

नयनों की भाषा कमाल की है।

‘नयन नयन से मिलकर विचित्र संयोग बना बना रहे,
कहीं मधुर, कहीं कड़वा योग बना रहे।’

बूढ़ी काकी की यह उक्ति आंखों की भाषा के बारे में बताती है।

-harminder singh

Friday, October 9, 2009

हालातों के हाथ मजबूर

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हालातों को करीब हम खुद लाते हैं। हालात हमसे नहीं कहते कि हमें अपने साथ लेकर चलो। सोचने दो, मुझे बहुत कुछ सोचना है अभी। शायद पूरी जिंदगी सोचता ही रह जाऊं। काश, काश मैं कुछ कर पाता। अब क्या हो सकता है? नये जेलर ने मुझे घूरा था। उसने मुझे दो बेंत भी मारे। मेरी डायरी के पन्ने उलट-पुलट किये। फिर डायरी को एक कोने में फेंक दिया। मैंने इसका विरोध किया। उसने मेरा दो दिन का खाना रोक दिया। मैं गुस्से में हूं। हालातों के हाथों मजबूर इंसान भला कर भी क्या सकता है। हां, मैं यहां इतना अदना सा हो गया हूं, कुछ भी तो नहीं कर सकता। दीवारें हैं, इंसान हैं। उनके बीच में अंजानों की तरह नियति को कोस रहा हूं। चुप हूं क्योंकि यहां चुप रहने में ही भलाई है, सहने में ही भलाई है। एकांत नहीं है, मन शांत नहीं है। कठोरता और क्रूरता की आदत को रोकना नामुमकिन है। इन्हें मुस्कराना, प्रेम से पेश आना किसी ने नहीं सिखाया। जेलर के व्यवहार से मैं काफी निराश हूं क्योंकि मैं विवश भी हूं। विवशता में इंसान बंधे हुए हाथों का हो जाता है। उसका हौंसला सिर्फ चिल्लाता रह जाता है, बौखलाता रह जाता है, लेकिन अंदरुणी फड़फड़ाहट को सुनने वाला कोई नहीं होता है। केवल हम स्वयं ही सह जाते हैं, सहते रह जाते हैं। एकटक निहारते रह जाते हैं, इतना कुछ कहना चाहते हैं, कह नहीं पाते। मन घुटता रहता है और इसका निदान कहीं नजर नहीं आता। उपाय ढूंढते हुए..................बस कुछ हासिल नहीं हो पाता।

-harminder singh

Wednesday, October 7, 2009

क्या अपने इतने सस्ते होते हैं?












रिश्तों की कीमत भला क्या रह गयी? जब अपने ही अपनों की जिंदगियां खत्म करने पर उतारु हों, तो भरोसा किस पर किया जाए? रिश्तों का खून, जिंदगी का खात्मा और तड़पते लोग।

जे.पी. नगर (U.P) में इकौंदा और फौंदापुर में जो हुआ वह काफी वीभत्स था। पल भर में दो परिवार उजड़ गए। जहां दिमागी रुप से बीमार बताया जा रहा भूपेंद्र अपनी पत्नि और 12 साल के बेटे को मार डालता है, वहीं दो भाईयों ने मिलकर अपने सगे भाई और भाभी की हत्या कर दी। तीन साल के हर्षित को भी मरणासन्न किया। वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है।

ये चार मौतें कई सवाल खड़े करती हैं। उनके उत्तर मिले रहे हैं और कुछ शायद सदा के लिए दफन हो जाएं। ऐसा लगता है जैसे हमारे हाथ-बंधे हुए हैं। आसपास इतना कुछ घट रहा है, पर कुछ कर नहीं पाते। इसे समाज की विडंबना कह सकते हैं या लोग असहाय समझ रहे हैं स्वयं को या फिर वे अपनी कायरता का परिचय दे रहे हैं। जिस समय फौंदापुर में रोहता्श और उसकी पत्नि मुनेश के साथ खूनी खेल खेला जा रहा था, सारा गांव उनकी चीख-पुकार सुनता रहा। किसी भी गांव वाले में इतना साहस न हो सका कि वह हत्यारों को भगाने का प्रयास करता। इसे क्या कहा जा सकता है? इससे कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि हमें अपनी चिंता अधिक है। किसी के लिए दूसरे की जान की कीमत बिल्कुल नहीं। गांव वाले इतना जरुर जानते होंगे कि मासूम हर्षित ऐसे हालात में किस स्थिति में होगा?

रोहताश के परिवार को खत्म करने वाले और कोई नहीं उसके दो सगे भाई ही थे। चाकू से रोहताश को गोदने के बाद मुनेश के सिर पर गंडासे से प्रहार किया गया। हत्यारों ने तीन साल के हर्षित पर भी गंडासे से वार किया।

दूसरी ओर इकौंदा में भूपेंद्र ने दोपहर लगभग 3 बजे सो रही पत्नि सीमा का गला गंडासे से रेत दिया। टयूश्न पढ़कर लौटे छठी कक्षा में पढ़ रहे अपने इकलौते बेटे रोहन को भी गला रेत कर मार डाला। घर पहुंचकर उसने बाप के हाथ में खून से सना गंडासा देखा और मां को मृत अवस्था में देखकर उसकी चीख निकल गयी। जैसे ही वह जीने की तरफ दौड़ा, सिर पर खून सवार पिता ने उसे खींच लिया और कमरे में ले जाकर मौत की नींद सुला दिया। भूपेंद्र खून से सना घर से बाहर निकल आया। उसने गांव वालों को अपनी दास्तान बयां कर डाली।



कोई नहीं मिला अर्थी को कंध देने वाला

रोहताश और मुने्श की अर्थी को कंधा देने के लिए एक अदद व्यक्ति आगे नहीं आया। क्या उनका कोई रिश्ते-नाते का नहीं था? स्थिति को देखकर यही लगता था। किसी ग्रामीण में हिम्मत नहीं हुई कि वह उनकी अर्थी को कंधा दे सके। यहां तक कि दाह-संस्कार भी किराये का ग्रामीण लेकर कराया गया।

फौंदापुर गांव के कुद लोगों ने अपनी घटिया मानसिकता का परिचय देते हुए बाद में उसका सामान भी घर से बाहर फेंका।


मंजर कितना भयानक होगा?

हत्यारे रोहताश व उसकी पत्नि को मार रहे थे। वे तड़प रहे थे। उस समय का मंजर शायद बयान करना कठिन है। चाकू से गोदकर पति की उसकी पत्नि के सामने हत्या की गयी। उसकी स्थिति क्या रही होगी? बाद में उसके सिर पर गंडासे से प्रहार किया गया। मौत का यह सिलसिला तब तक चलता रहा जबतक हत्यारों को यकीन नहीं हो गया कि पूरा परिवार खत्म हो गया।

तीन साल के हर्षित को भी हत्यारों ने नहीं बख्शा। उसपर कातिलाना वार किया गया। मां जब जमीन पर गिरी तड़प रही थी, तब वह अपनी आंखों से अपने लाल को खून से लथपथ देख रही थी क्योंकि तब उसकी कुछ सांसें शेष थीं। उसका हाथ अपने इकलौते पुत्र की तरफ बढ़ रहा था, पर वह बेबस थी।

जिस तरह खून के छींटे पड़े थे, उससे लगता है कि दृश्य काफी दर्दनाक रहा होगा।



हां, दिल पत्थर के भी होते हैं

फौंदापुर में हुए खूनी खेल को देखकर तो यह कहा ही जा सकता है। इंसान इंसानों को देखकर पिघलते नहीं। उनका दिल पत्थर का हो जाता है। शायद ऐसे दृश्य को देखकर पत्थर भी पिघल जाते होंगे, पर फौंदापुर के ग्रामीणों का हृदय नहीं पिघला। रोहताश के घर चीख-पुकार हुई तो गांव के लोग छतों पर चढ़कर एक तमाशे की तरह देख रहे थे- इंसानों का संहार करते इंसानों का खूनी खेल। मासूम बच्चे को फर्श से उठाने को भी किसी का दिल नहीं पसीजा।




















पहले भी हुआ है रिश्तों का कत्ल

बावनखेड़ी की शबनम को भला कौन भूलना चाहेगा। उसने अपने प्रेमी संग मिलकर परिवार के सात सदस्यों को मौत की नींद सुला दिया। यह मामला पहली बार सुना गया था क्योंकि एक साथ किसी ने इनके लोगों को इकट्ठे नहीं मारा था।

कत्ल की रात शबनम ने चाय में नशीला पदार्थ डाला था। उसके प्रेमी सलीम के हाथ में कुल्हाड़ी थी। शबनम टार्च दिखाती रही, सलीम गर्दन रेतता रहा। ताहरपुर के इंटर कालेज के कला प्रवक्ता शौकत अली अपनी इकलौती सगी बेटी को अंत तक समझ नहीं सके। शबनम ने सबसे पहले अपने पिता का सिर बाल पकड़कर उठाया और सलीम से कहा,‘काट डालो।’ कुछ माह के मासूम अर्श का गला दबा दिया गया था, पर वह बाद में रो पड़ा। सगी बुआ शबनम ने उसे खामो्श करने के लिए अपने हाथों से उसका फिर से गला दबाया और वह कुछ ही पलों में तड़पकर शांत हो गया।

शबनम द्वारा 7 लोगों की हत्या के लिए जिम्मेदार होने के बाद मुरादाबाद की एक युवती ने अपने प्रेमी संग मिलकर अपने पिता को मौत की नींद सुला दिया। पिता उन दोनों के बीच बाध बना था। तब लड़की ने अपने प्रेमी से कहा था,‘उसने सात मार दिये, तू एक भी नहीं मार सकता।’

इसी तरह का एक ताजा मामला हरियाणा का भी था। रोहतक के एक गांव में एक प्रेमी-प्रेमिका ने मिलकर परिवार के सात सदस्यों की हत्या कर दी। उन्हें डर था कहीं वे उन दोनों को न मार दें।

source: gajraula times

Monday, October 5, 2009

शायद कुछ गुम गया है


























वृद्ध होना एक अलग दुनिया का अहसास है। यह सच है कि तब चीजें पहले जैसी नहीं रहतीं। पूरा माहौल बदल जाता है। शरीर कमजोर होने पर अक्सर व्यक्ति की सोच में परिर्वतन आ जाता है। बूढ़े शरीर को लगता है वह कहीं खो गया है। यह संसार सूनापन समेटे है और थकी आंखें उसमें चकाचौंध को दमकते देखती हैं, लेकिन बुढ़ापे की चादर में लिपटा इंसान बार-बार तन्हाई में जीता है।

बच्चों से नाता अटूट है। अब ऐसा क्यों लगता जैसे अपने बिछड़ रहे हैं या बुढ़ापा उनसे दूर रहने को विवश कर रहा है। उनकी याद आती है बस! बूढ़ा मन कहता है,‘चलो वक्त कट जाएगा यादों के सहारे।’ यादें मटमैली ही सही, पर इतनी तसल्ली है कि कहीं तो सुकून है। उन पलों की मिठास बूढ़ी हड्डियों में अजीब सी सिहरन ला देती है। कभी खोखला मुंह खुद-ब-खुद मुस्कान बिखेरता है। कभी निराश आंखें आशा से भर जाती हैं। यह वही नेत्र हैं जिनके बूते यादें आज कैद हैं। नीर का टपकना जायज नहीं क्योंकि नमीं कब की सूख चुकी। कभी-कभी गीली जरुर हो जाती हैं पुतलियां। तब कांपती अंगुलियों का स्पर्श कुछ बूंदों को छिपा लेता है।

मस्तिष्क भी थका है। विचार आपस में लड़ते-झगड़ते जरुर हैं, लेकिन उन्हें राह दिखाने वाला कोई मालूम नहीं पड़ता। शरीर को अपना पता नहीं रहता है। इंसान को दुर्बलता का आदि होना पड़ता है। यह उसकी मजबूरी होती है। ढलकती त्वचा के खुरदरेपन का उसे ज्ञान होता है।

बूढ़े व्यक्ति खुद को असहाय समझने लगते हैं। हर वक्त अहसास होता है जैसे कुछ गुम गया है। उनकी हालत ऐसी प्रतीत होती है जैसे किसी खोयी वस्तु की उन्हें तलाश है और वे उन्हें मिल नहीं पा रही। कई नौजवान, यहां तक की उनके अपने वृद्धों को कमजोर मानसिक स्थिति के व्यक्ति की संज्ञा देते हैं। वृद्धों के हाव-भाव हम जैसे नहीं इसलिए ‘जनरेशन गैप’ की समस्या का जन्म होता है। लड़खड़ाती टांगें और कांपते हाथ गवाह हैं कि सवेरा कभी रौनक लिये था। अब दिन ढलने की तैयारी में है। उदासी कहीं कभी छिपी थी, आज सामने खड़ी है।

कई स्थितियां बदली हैं जिन्होंने बचपन से बुढ़ापे तक का सफर तय कराया। अनगिनत अनुभवों को इकट्ठा किया, अनेक बाधाओं को पार किया। कष्ट सहे, और भी बहुत कुछ सहा। इंसान बूढ़ा हुआ, अपनों ने किनारा किया। अपनों के लिए वह जिया, अपना दर्द भुलाया। मगर दुनियादारी के दस्तूर ने उसे विरानी में छोड़ दिया। बुढ़ापा हारा नहीं। उसकी जंग जारी है वक्त के साथ। बुढ़ापा कमजोर नहीं। एक बार तन कर खड़ा होने की तमन्ना है, बस एक बार।

बूढ़ी हड्डियां वक्त के थपेड़ों की चोट सहती सरक रही हैं। उन्हें मालूम है अंधेरा कभी तो छंटेगा, पर संशय है कहीं पिंजरा खाली न हो जाए। कहीं पंछी की आस इस देश न सही, उस देश पूरी हो। ख्यालों की मंडी सजा ली है। सजावटी सामान पर धूल की मोटी परतें चढ़ी हैं। मोल-भाव कैसा? ख्याल बिकते नहीं।

बुढ़ापे को तंग करने वाले भी इंसान हैं और बुढ़ापा उन्हें भी कभी ढोना है, लेकिन क्यों वे सच्चाई समझ नहीं रहे। क्यों बुढ़ापे से बचने की कोशिश में हैं हम? क्यों जवानी बुढ़ापे से मुंह सिकोड़ती है? क्यों दादा या नाना को फालतू का बोझ कहा जाता है?

जब बुढ़ापा आना ही है, तो उससे शर्म कैसी? मैंने वृद्धों की नजदीकी का अहसास कर शांति का अनुभव किया। उनसे प्रेरणा ली और ये शब्द उन्हीं की सीखों से उकेरे जा सके।

वृद्धों से हर कोई बहुत कुछ पा सकता है। हमारे बूढ़े बेकार नहीं बल्कि खजाना हैं। हम उनसे जीवन की बारीकियां सीख सकते हैं। जिन रास्तों पर चलने की हम तैयारी में हैं, वे उनपर पहले चल चुके। इसलिए अनुभव के मामले में बूढ़ों का कोई सानी नहीं। उनके पास वक्त कम है। जितना उनसे प्राप्त किया जा सके वह कम है। हमारी समझ सदा उनसे कम रहेगी चाहें जितना चतुर बनने का अभिनय करें। वृद्धजनों को ताने, अपशब्द, पीड़ा आदि की आवश्यकता नहीं, उन्हें सम्मान चाहिए। जीवन की असली कमाई बुढ़ापे की कद्र कर हासिल की जाती है। क्यों हम देर करें? आज ही और अभी वृद्धजनों की सेवा में जुट जाएं। फिर देखें हमारी दुनिया कैसी बदलती है।

-हरमिंदर सिंह
email: gajrola@gmail.com

Sunday, October 4, 2009

जिंदगी मीठी है









‘‘मुझे उजाले की तलाश है। मन में एक आस है। अंधेरे में रहते-रहते खुद को भूल गयाी। मुझे जगना है उस सवेरे के लिए जो मुझसे कोसों दूर है। मुझे एहसास है कि मैं इतना थक गयी हूं कि आगे बढ़ नहीं सकती। मेरी पहचान गुम होती जा रही है। मैं हारती जा रही हूं। बुढ़ापा है, तन्हाई है। लेकिन मैं खुद को पीछे नहीं हटने दूंगी क्योंकि जिंदगी मीठी थी, मीठी है और अंतिम सांस तक रहेगी। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले की मिठास और अबकी मिठास में जमीन आसमान की दूरी है। यह दूरी कभी तय नहीं की जा सकती। वक्त पकड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि जिंदगी उसका मुकाबला करने के लिए नाकाफी है।’’ बूढ़ी काकी ने मुझसे कहा।

मेरी आंखें बंद हो गयीं। मैं स्वप्नलोक में काकी की कही बातों के अर्थ खोजने निकल पड़ा। इसी खोज के साथ कि बुढ़ापे में भी ‘जिंदगी इतनी मीठी क्यों?’

बूढ़ी काकी से इसे किसी दिन विस्तार से जानूंगा।

-harminder singh

Saturday, October 3, 2009

तन्हाई कुछ कहती है

[jail_diary.jpg]



सवाल जिंदगी में बहुत होते हैं। तमाम जीवन यही सोचने में लगता जाता है- यह हल है या वह। भ्रम की स्थिति बड़ी रोचक होती है। सवालों का घेरा निरंतर बढ़ता रहता है। हम सोचते बहुत हैं, करते उतना नहीं। जीवन एक बड़ा सवाल है। अपना जीवन तबाह होते हुए कौन देखना चाहेगा? मैं कभी ओरों को उनकी उलझनों से बाहर करता था। आज खुद उलझनों में उलझ कर रहा गया हूं। सवालों को हल करते-करते सब कुछ मिट जायेगा, मगर न सोच थमेगी, न सवाल, बेशक सांसें थम जायेंगी।

वीरानी को देखकर अजीब से सन्नाटे का अहसास होता है। मुझे लग रहा है सन्नाटा चारों ओर पसरा है। सब कुछ जैसे शांत हो गया है। मेरे आसपास कोई नहीं है, कोई भी तो नहीं। मैं अकेला हूं, सिर्फ अकेला। इस अकेलेपन में मेरे साथ कोई कैसे हो सकता है, क्योंकि जब इंसान अकेला पड़ जाता है तो उसका साया भी उससे दूर भागता है। हां, यही सब हो रहा है। सब मेरा साथ छोड़ गए। मुझसे मिलने आखिर कौन आया?

मेरा जीवन सूख सा गया है। तन्हाई अक्सर मुझपर हंसती है, कहती है,‘‘चलो हमारी दोस्ती लंबी चलेगी। ऐसे कम ही होते हैं जिनके पास इतना वक्त बिताना पड़े। तुम मिले हो, अच्छा है। तुम्हें किसी की तलाश थी और मैं खाली थी। अब सोच रही हूं, यहीं डेरा जमा लूं। मुझे तुम भा रहे हो। तुमसे लगाव हो गया लगता है। चेहरे से, और वैसे भी भले ही लगते हो। तुम प्रसन्न रहोगे तो मैं रुठ जाउंगी। तुम ऐसा नहीं करोगे। मुश्किल से कोई तुम्हारी इतनी कद्र करने की सोच रहा है, उसे दूर नहीं जाने दोगे। मन को छोड़ो, संसार को भूल जाओ। मुझसे नाता जोड़ो। कितना सुकून है मेरे साथ रहने में। कोई तुमसे रिश्ता नहीं रखता। एकदम शांत हो गये हो तुम। नीरसता तुम में समा गयी है। मेरी मानो मुझसे इतनी पक्की मित्रता कर लो कि तुम मुझसे कभी अलग न रह सको। भूलना भी चाहो, तो भूल न सको। विश्वास से कहती हूं, तुम इसपर गौर जरुर करोगे। मैं भी अकेली हूं, तुम भी। इंसानों के साथ रहने का अपना आनंद है। वास्तव में संसार को छूना और मुझे न जानना, ऐसा होता नहीं। मैं अकेलेपन की साथी हूं। तुम्हारा मेरा साथ इतना लंबा रहे कि तुम्हें मुझसे लगाव हो जाए। मैं यही चाहती हूं।’’

-harminder singh

Friday, October 2, 2009

पता नहीं क्यों?


























मैं मुस्कराना भूल गया,
पता नहीं क्यों?

तुम मुझसे दूर हो,
पता नहीं क्यों?

मैं इतराना भूल गया,
पता नहीं क्यों?

हंसी आकर क्या करेगी,
हसंना भी भूल गया,
पता नहीं क्यों?

मीलों चला य़ूं अकेला,
साथ तुम्हारा भूल गया,
पता नहीं क्यों?

लाठी खड़ी है कोने में,
पता नहीं क्यों?

शरीर कह रहा अब बस,
पता नहीं क्यों?

सदियां इतनी बीत गयीं,
पता नहीं क्यों?

विदा लेने जा रहा,
पता नहीं क्यों?

-harminder singh

Thursday, October 1, 2009

धुंधले पड़ गये हैं शब्द

काफी बूढ़ा हो चुका हूं। कहते हैं,‘कमजोरी बुढ़ापे की निशानी है।’ मैं लगातार चल नहीं सकता। थोड़ी दूरी पर किसी सहारे की जरुरत पड़ती है। बुढ़ापे को सहारा चाहिए। टांगे जबाव दे चुकीं, डर है कहीं लड़खड़ा कर गिर न जाऊं। तब बुढ़ापा और दुश्वार हो सकता है।

मुझे पता है मैं गली के बच्चों को देखकर थोड़ा मुस्कराता हूं। उनकी अठखेलियां मुझे ऊर्जा से भर देती हैं। एक पल को मैं खुद को भूल जाता हूं। मैं उनमें खो जाता हूं।

लोग मुझे मिलते हैं, उलझी हुई बातें होती हैं, पर ढेर सारी। कुछ समय आती हैं, कुछ उनके नहीं। फिर भी मन खामोश रहता है। ‘बूढ़ा ऊंचा सुनता है’- कहीं से आवाज आती है। मुझे बुरा नहीं लगता क्योंकि बुढ़ापा बेपरवाह है, लापरवाह नहीं।

चाय की दुकान पर सबुह अखबार पढ़ लेता हूं। तब चाय की चुस्की और.........., एक बिस्कुट भिगो कर खा लेता हूं। बीच-बीच में अपने कुरते से चश्मे को साफ करता रहता हूं। मोटी छपाई को आसानी से पढ़ लेता हूं। बारीक लिखे अक्षरों को पढ़ने के लिए अखबार को करीब लाना पड़ता है। थोड़े समय में शब्द धुंधले पड़ जाते हैं।

-harminder singh

इतना पाकर भी खाली हाथ है
















पतझड़ कैसा होता है, यह मैं जान गया हूं। पेड़ के सूखने पर उसे कैसा महसूस होता है। यह भी मुझे मालूम हो गया। इंसान और पेड़ सूखने पर एक जैसे लगते हैं। दोनों तरफ जर्जरता है, नीरसता है, और आखिरी वक्त का इंतजार। मगर एक जस्बा है जिसने सूखे ठूंठ को भी इतना बल दिया हुआ है कि वह बाधाओं से मुकाबला करने की रट लगाए है।

आंखों का धुंधलापन कहता है कि उम्र ढल गयी। हां, वक्त बीतता है तो इंसान पुराना हो जाता है। दूर की चीजें साफ नजर नहीं आतीं। सिर्फ आकृतियां दिखती हैं। पोता गोद में उछलता है। उसका उतावलापन मुझमें नयी ऊर्जा भर देता है। मैं बुढ़ापे को भूल जाता हूं। उसके साथ बच्चा बन जाता हूं। ‘‘बाबा मुझे ढूंढो।’’ दूर से कहीं मीठी आवाज आती है। अपनी कमजोर देह और धीमी नजरों से उसे खोजने की कोशिश करता हूं। ‘‘मैं यहां हूं।’’ वह दौड़कर दूसरी जगह छिप जाता है। सिलसिला जारी रहता है। दादा-पोता का मन बहलने का सिलसिला।

इंसानी रिश्तों की मजबूती का परिचय हमें कितनी आसानी से मिल जाता है। प्रेम की डोरी हमें किस तरह जोड़कर रखती है, यह शायद बुढ़ापे से बेहतर कौन जान सकता है। मैं इसका अर्थ समझ चुका।

अपनों के बीच कितना अपनापन है। मुझे लगता है मेरा बेटा संसार का सबसे अच्छा बेटा है। मुझे नाज है उसपर। उम्मीद है हर मां की कोख से ऐसा लाल पैदा हो। इकलौता है, लेकिन कभी नखरे नहीं दिखए। बहू ने मुझे अपने सगे पिता सा दुलार दिया- बहू नहीं बेटी है मेरी वह।

ऐसा अधिक होता है कि मेरे जैसे वृद्धों को अपनों का प्यार नहीं मिलता। मुझे स्नेह इतना मिला, लेकिन मेरा शरीर खुद से ऊबता जा रहा है। कई बार निराश हो जाता हूं। हम कभी-कभी परिस्थितियों के हाथों बिक जाते हैं। इतना कुछ पाकर भी लगता है जैसे हाथ खाली है।

-harminder singh
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>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
[old.jpg]

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
[kisna.jpg]
किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com