Friday, October 16, 2009
बस चाह थी सूखने की
आंसू का कतरा-कतरा बहकर फर्श पर गिरा है। बूंद को कोई संभाल न सका। शुष्क आंखों में गीलापन, लबालब पानी है भरा। खारा पानी है वह। क्या नमक मिला है? नहीं दर्द भरा है।
पलकों को भिगोया है। सिलवटों को छुआ है, उनका सहारा लिया है। गंतव्य मालूम नहीं, फिर भी आंसू बहा है होता हुआ किनारों को छूकर, सरपट दौड़ा है। चमक थी अनजानापन लिए, सिमेटे ढेरों अल्फाज - कुछ जिंदगी के, कुछ अनकहे। रुढककर थमा नहीं। रास्ता जानने की फुर्सत कहां। बस चाह थी सूखने की।
-harminder singh
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
गंतव्य मालूम नहीं ...बस चाह थी सूखने की।
ReplyDeleteकितना कुछ है इन पंक्तियों में!
बी एस पाबला
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआह!! काश!! हम पोंछ कर सुखा पाते उन्हें..
ReplyDeleteसुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!
-समीर लाल ’समीर’
bahut hi gambhir abhivyakti.
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