बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, May 31, 2008

समाज कल्याण और विधवायें

पति तो कब के इस संसार से विदा हो गये। बच्चे अब कहां पूछते हैं? कोई नहीं कहता कि हमसे दो बातें करो। चैबीस घंटे मायूसी घेरे रहती है।

बुढ़ापे की लाचारी बहुत कुछ बयां कर रही है जिसे देखकर हर किसी का मन अंदर से जरुर हिलता है। लेकिन समाज कल्याण विभाग के कर्मचारियों का स्वभाव इतना रुखा और कठोर है कि ये बेचारी वहां कई बार आंखों से आंसू निकालने को मजबूर हो जाती हैं। जमाने की ठोकरे खाने का नसीब लेकर थोड़े ही पैदा हुयी थीं?

अब इनके लिये ऐसा समय आया था जब ये आराम से अपने परिवार में दो रोटी सुख की खा सकें। लेकिन अपनों ने पराया कर दिया। दर-दर की ठोकरें खाने की जैसे अब आदत बन चुकी है।
वृद्धों के लिये सरकार ने बहुत सी योजनायें चला रखी हैं, लेकिन भ्रष्ट अफसरों, दलालों और विचैलियों के कारण उन्हें धेला भी नहीं मिल पाता। अगर मिलता भी है तो उसमें से कमीशन काट लिया जाता है।


समाज कल्याण विभाग के दफ्तर के बाहर हर रोज विधवाओं की कतार लगती है। उनमें अधिकतर ऐसी विधवायें हैं जो काफी वृद्ध हैं तथा गुजर बसर भी मुश्किल से कर पाती हैं। सरकार से विधवाओं के लिये पैसा आता है। समाज कल्याण विभाग से जुड़े कर्मचारी उसमें से काफी रकम डकार जाते हैं। थोड़ा बहुत पैसा इन बेबस और लाचार विधवाओं को मिल पाता है। इनकी आवाज उठाने को कोई तैयार नहीं है क्योंकि इनसे किसी को कोई लाभ नहीं होगा।

कुछ वर्ष पूर्व विधवा पेंशन के लिये गयी एक वृद्ध महिला सुरमन की मौत हो गयी थी। पेंशन के लिये कर्मचारी आना-कानी करते रहे। सुरमन ने समाज कल्याण दफ्तर के कई चक्कर लगाये। पेंशन आज नहीं मिलेगी, अभी पैसा नहीं आया, कुछ दिन बाद आना- ऐसे सैंकड़ों बहाने बनाते रहे। बेचारी इसी तरह महीने में कई दफा दफ्तर आती रही। एक दिन वह वहां से लौटकर सड़क पार कर रही थी। उसकी निगाह भी कम हो चली थी। वह अंदाजा नहीं लगा पायी और एक चलते ट्रक से टकरा गयी। ट्रक का पहिया उसके दोनों पैरों पर उतर गया। अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया।

वृद्धों के लिये सरकार ने बहुत सी योजनायें चला रखी हैं, लेकिन भ्रष्ट अफसरों, दलालों और विचैलियों के कारण उन्हें धेला भी नहीं मिल पाता। अगर मिलता भी है तो उसमें से कमीशन काट लिया जाता है।

समाज कल्याण विभाग की जिम्मेदारी होती है समाज का कल्याण करना लेकिन वह अपने कल्याण में ही अधिक व्यस्त है।

एक वृद्ध महिला ने बताया,‘‘मैं यहां कई दिन से लगातार आ रही हूं। कई दिन से कल आना कहकर मेरी जैसी विधवाओं को परेशान किया जा रहा है।’’ यह आमतौर पर होता है। विधवायें आती हैं और सरकारी कर्मचारी उनकी नहीं सुनते।

समाज कल्याण कर्मचारियों के लिये इंसानियत का शायद कोई महत्व रह नहीं गया। दया नाम की कोई चीज तो बिल्कुल नहीं।

विधवाओं के दर्द को लिखा नहीं जा सकता, करीब से कुछ हद तक जाना जा सकता है। बहुत सी वृद्ध महिलायें थक हार कर बैठ गयी हैं। अब उन्हें इस संसार से कुछ नहीं चाहिये, जितने दिन कट जायें बहुत हैं। ऊपर वाले तक जल्द पहुंचने की हसरत के साथ चुपचाप दो हाथ जोड़कर बैठी हैं।

गुरमुख सिंह द्वारा

Saturday, May 24, 2008

उम्र को जीतते हबीब



उम्रदराज आंखों से निकलती मद्धिम रोशनी ने जीवन की शतकीय पारी में बहुत से उतार चढ़ाव देखे हैं। सफेद झक पलकों के बीच हबीब मियां जिंदगी के कई ऐसे दौरों के गवाह हैं जिन्हें सिर्फ इतिहास के पन्नों से समझा जा सकता है। उम्र के इस पड़ाव के बावजूद तकनीकी कारणों से उनका नाम भले ही गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिर्काड में शामिल नहीं किया गया हो, लेकिन वे खुद सवा सै से भी लंबे समय का जीता जागता दस्तावेज हैं। वे राजशाही के गवाह भी रहे हैं तो भारत में अंगे्रजी हुकूमत और उसके अंत के प्रत्यक्षदर्शी भी।


हबीब मियां ने अपना 139वां जन्मदिन नहीं मनाया। इसका कारण पिछले दिनों हुये जयपुर बम धमाके हैं।

अपने जीवन के बारे में हबीब मियां बताते हैं कि उनके अब्बा कल्लू खां जयपुर के राजा सवाई रामसिंह के दरबार में मुलाजिम थे। वे दरबार में मशक से पानी भरने का काम करते थे।


उम्र के इस पड़ाव पर भी उनके दिलो दिमाग में वे सभी बातें बातरतीब समायी हुयी हैं, जिनसे कभी वह रुबरु हुआ करते थे। अपने जीवन के बारे में हबीब मियां बताते हैं कि उनके अब्बा कल्लू खां जयपुर के राजा सवाई रामसिंह के दरबार में मुलाजिम थे। वे दरबार में मशक से पानी भरने का काम करते थे। खुद हबीब मियां ने जयपुर दरबार की सैन्य टुकड़ी मान गार्ड में अपनी नौकरी के दौरान दो राजाओं का शासन देखा। उन्हें ठीक से वर्ष का पता तो नहीं, पर वे बताते हैं कि जब पहली बार उन्होंने दरबार में नौकरी शुरु की तब महाराजा माधोसिंह द्वितीय गद्दीनशीन थे और जब सेवानिवृत्त हुये तो राजा मानसिंह द्वितीय राज कर रहे थे। मियांजी दरबार के बैंडवादन दल में क्लैरनेट वादक थे, जहां से वे 64 वर्ष की उम्र में वर्ष 1937 में रिटायर हुये।

इस तरह आज पेंशन पाते हुये हबीब मियां को 69 साल हो गये हैं। शुरुआती दौर में उनकी पेंशन महज 1 रुपये 66 पैसे थी, जो सात दशकों के सफर में दो हजार के आंकड़े को पार कर गयी है। पर हबीब मियां इक्कीसवीं सदी में छलंाग लगा चुके जमाने से खुश नजर नहीं आते। उस जमाने के बारे में कुरेदने पर वे यादों में खो जाते हैं और बताते हैं कि उस समय जयपुर की शान निराली थी। सड़कें आज की तरह डामर की तो नहीं थीं, पर खूबसूरती और मजबूती में इससे भी बढ़कर थीं। सफाई के लिये सुबह-शाम सड़कों पर पानी का छिड़काव किया जाता था। आज तो चैड़ा रास्ता है, वहां शेरों के पिंजरे रखे रहते थे और चारदीवारी के बाहरी इलाकों गलता, मोतीडूंगरी, मोहनबाड़ी और घाट की गुणी में शेर-चीतों का आतंक रहता था। वे बताते हैं कि अंधेरा होने के बाद इन इलाकों की तरफ जाने की कोई हिम्मत नहीं करता था।

इतनी लंबी उम्र के बावजूद हबीब मियां की सेहत आज भी काफी अच्छी है, हालांकि आंखों से वे कुछ लाचार अवश्य हो चुके हैं। उस जमाने के बारे में बताते हैं कि आज की बनिस्पत वह पुराना जमाना ही अच्छा था। लोग तहजीब के पाबंद और दीन-ओ-ईमान में बंधे हुये थे। माहौल बहुत ही सौहार्दपूर्ण था तथा हिंदु-मुस्लिम के नाम पर फिरकापरस्ती नहीं हुआ करती थी, बल्कि दोनों कौमें एक पिता की दो संतानों की तरह रहती थीं। गरीब से लेकर अमीर सभी तबकों पर ऐतबार किया करते थे और होली, दीपावली, ईद-बकरीद एवं बारवफात जैसे त्योहारों में हिंदु-मुस्लिम दोनों ही शरीक हुआ करते थे। हुकूमत और रियाया दोनों ही वतनपरस्त थे और जाति, मजहब और भाषाई आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं हुआ करता था। लोग कानून से डरते भी थे तो उसकी इज्जत भी करते थे।

उस दौर के खान-पान के बारे में पूछे जाने पर हबीब मियां भावुक हो जाते हैं और अनायस बोल पड़ते हैं,‘‘वाह क्या जमाना था वह भी।’’ वह बताते हैं,‘‘जब मैं बच्चा था तो मेरी जेबें काजू, बादाम और किशमिश से भरी रहती थीं। जिसे मैं यार-दोस्तों के साथ बांटकर खाता था। उस समय एक पैसे में इतनी मिठाई मिल जाती थी कि परिवार वालों के खाने के बाद भी बच जाती थी।’’

मियां जी बताते हैं,‘‘तब भले ही लोगों के पास आज के जितना पैसा नहीं हुआ करता था, लेकिन सस्ताई ज्यादा थी।’’ वह बताते हैं,‘‘तब एक-एक रुपये में आठ सेर तेल, पांच सेर बूरा तथा एक रुपये में दो सेर बादाम मिलते थे। घर में खाने पीने की कोई कमी नहीं थी और आज के पसंदीदा पेय चाय का कोई नामोनिशान नहीं था।’’

आज के दौर की तरक्की से हबीब मियां खुश तो नजर आते हैं, लेकिन सामाजिक ढांचे में बिखराव, नयी पीढ़ी में बुजुर्गों के प्रति बढ़ती बे-अदबी, सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती महंगाई और मजहब के नाम पर खून-खराबे की घटनाओं से वे विचलित नजर आते हैं। रोज नयी-नयी बीमारियों की उत्पत्ति पर हैरानी और खिन्नता जताते हुये वे बताते हैं कि उन्होंने कभी नीम-हकीमों का मुंह नहीं देखा। कुछ याद करते हुये मियां जी बताते हैं कि उनके जमाने में दो बीमारियों गांठ(प्लेग) और लाल बुखार का खौफ जरुर था। पर आज का इंसान एड्स, हैपेटाइटिस जैसी नयी-नयी बीमारियों से जूझने को मजबूर है।

by hari singh

Thursday, May 22, 2008

किशना- एक बूढ़े की कहानी (भाग-2)

किशना अब बहुत धनवान हो चुका था। अपना बंगला, गाड़ी, सब कुछ तो था उसके पास। सबसे बड़ी बात यह कि उसकी बेटी अब डाक्टर बन गयी थी। उसकी मेहनत रंग लायी। उसका शहर आने का लक्ष्य पूरा हो गया था।

धीरे-धीरे तीस बरस बीत गये। जो वस्तुयें नयी थीं कभी तीन दशक पहले आज पुरानी होने का अहसास कर रही थीं। उसकी जर्जर अवस्था को देखकर हृदय व्यथित हो रहा था। उन्हीं वस्तुओं में यदि आज किशना को रखा जाये तो कोई ज्यादति न होगी। किशना जर्जर और बूढ़ा हो गया था। उसकी खाल तक ढल चुकी थी। चेहरे पर झुर्रियां, पिचके गाल, जैसे कई दिन से नहाया नहो। ऐसा हो चला था किशना। वह उस पेड़ की तरह था, जिसकी जड़े तो हैं, पर उनमें नमीं नहीं।

किशना- एक बूढ़े की कहानी (भाग-2)
लेखक : हरमिन्दर सिंह
चित्रांकन- हरमिन्दर सिंह

‘‘आज समय मेरा नहीं है।’’
किशना ने अपने नौकर से कहा।

वास्तव में आज समय उसका नहीं था। वक्त की लगाम उसके हाथ से छूट चुकी थी। उसे पूछने वाला कोई नहीं था। खुद के बनवाए वृद्धाश्रम में भी उसे जगह नहीं मिली। आश्रय देने वाला आज स्वयं आश्रय के लिये तरस रहा था।


उसका चेहरा भी भयावना हो गया था, जो बच्चों को भयभीत करने के लिये काफी है। हारा हुआ, अपमानित सा, चिथड़ों में लिपटा किशना, आज एक कोने में सूखे पत्ते की भांति पड़ा था। हाथों की अंगुलियां जो कभी खेत में हल चलाती थीं, आज इतनी कमजोर हो चुकी हैं कि ठीक से हिल भी सकें। पैरों को लाठी का सहारा चाहिये, जो बिन लाठी के नहीं सरकते।

किशन की बेटी अब नहीं रही थी। एक हादसे में चल बसी, पति और दो बच्चे छोड़ गयी।

‘‘बेटा, जरा पा....पानी....द....देना।’’
लड़खड़ाती आवाज में किशना बोला।

’’बुड्ढे को पानी दे छोटे।’’ बड़ा लड़का बोला।

किशना के आगे कुल्हड़ कर दिया गया। उसने धीरे-धीरे ऊपर देखा और हाथ बढ़ाया। छोटे ने कुल्हड़ को ठोकर मार दी। पानी बिखर गया। किशना असहाय सा सारा दृश्य देखता रहा। आखिर वह कर भी क्या सकता था। वृद्ध होने का फल जो भगुतना था। वह प्यास से व्याकुल था। उसने फर्श पर बिखरा पानी तक चाट लिया।

भोजन भी उसे पत्तल पर परोसा जाता था, वो भी बचा हुआ बासी, जो अच्छे-अच्छों को बीमार बना दे। पता नहीं किशना यह सब कैसे झेल रहा था। उसकी हालत गली के कुत्ते से भी बदतर हो चली थी।

उसने सदा दूसरों की सहायता की। अपने समय में उसने स्कूल खुलवाये, वृद्धाश्रम बनवाए और भी बहुत नेक काम किये। घरवालों ने उसे आज निकाल दिया।

किशना अपने वफादार नौकर दीनदयाल के साथ जैसे-तैसे भतीजे के यहां चल पड़ा। अभी कुछ ही दिन पूर्व किशना ने अपनी वसीयत अपने भतीजे और जमाई के नाम जो की थी। जमाई ने तो अपना रंग दिखा दिया। उधर भतीजा भी कम न निकला। उसने तो किशना को भिखारी का दर्जा दिया। जब किशना उसके दरवाजे पर पहुंचा तो उसने पहचानने से इंकार कर दिया और,‘‘ये ले चवन्नी और दफा हो जा यहां से’’ कहकर किशना को चवन्नी थमा दी। हाथ में सिक्का देख किशना को स्वयं पर ग्लानि हुयी।

‘‘आज समय मेरा नहीं है।’’
किशना ने अपने नौकर से कहा।

वास्तव में आज समय उसका नहीं था। वक्त की लगाम उसके हाथ से छूट चुकी थी। उसे पूछने वाला कोई नहीं था। खुद के बनवाए वृद्धाश्रम में भी उसे जगह नहीं मिली। आश्रय देने वाला आज स्वयं आश्रय के लिये तरस रहा था।

कैसा दृश्य था वह, जब फटे हाल किशना तपती दुपहरी में टूटे चप्पल पहने, सड़क पर चला जा रहा था। दीनदयाल उसके साथ था। किशना थक कर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने कुर्ते की जेब टटोली, उसमें कुछ रुपये थे। दीनदयाल को रुपये थमाते हुये वह बोला,‘‘मेरा अंत समय आ गया है। ये किसी मंदिर में चढ़ा देना।’’

दीनदयाल चला गया और सीधा शराब की दुकान पर पहुंचा। आज उसने भी नमक का असर दिखा दिया।

उधर किशना अपनों को याद कर तड़प रहा था। वह रोना चाहता था, दर्द इतना था कि रो भी न सका। आंखों की नमीं सूख चुकी थी।

व्यथित किशना ने सिर पेड़ से सटा लिया। पता ही नहीं चला कब आंख लग गयी। आंख ऐसी लगी, फिर कभी नहीं खुली।

देखें कहानी का पहला भाग>>>>

Wednesday, May 21, 2008

ताकि सिलसिला यूं ही चलता रहे

उम्रदराज लोग अपना जीवन किस तरह जी रहे हैं। उनका हाल क्या है और वे किस तरह से जीवन को देख रहे हैं। इन सारे सवालों को ध्यान में रखकर वृद्धग्राम को बनाया गया। यहां बहुत से लोगों ने मुझे आभार दिया। मुझे सराहा गया इस पवित्र कार्य के लिये। यह बहुत बड़ी बात है कि लोगों ने अपनी टिप्पणियों में अपने दिल की बात को बयां किया और बताया कि किस तरह उनकी नजर में बूढ़ों का दुख है।


वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट

वृद्धों का पहला ब्लाग

सोमवार, 10 मई 2008

यह प्रसन्नता की बात है कि वृद्धों का पहला ब्लाग का प्रारंभ कर दिया गया है। हमने बहुत कुछ नजदीक से देखा हैऔर एहसास किया है कि एक दुनिया हमारे पास बसती है जिसमें बूढ़े हैं। ये ब्लाग समर्पित है ऐसे ही लोगों को जो जीवन भर संघर्ष करते रहे, आज का संघर्ष पहले से जुदा है।
पूरा पढ़ें>>>>



वृद्धग्राम एक ब्लाग अवश्य है, लेकिन मैं गूगल को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उनके कारण हम और आप एक दूसरे से मुखातिब होते हैं , चाहें दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों।

मेरे पिताजी को यह देखकर काफी खुशी हुयी कि मैं यह पवित्र कार्य कर रहा हूं. वैसे मैं अब अपने अखबार में भी कम लिख पा रहा हूं। सोच रहा हूं वहां भी एक वृद्धों का कालम शुरु कर दूं।

क्षेत्रीय समस्याओं पर मैंने बहुत लिखा है। अब ऐसे कार्य की शुरुआत कर चुका हूं जिसका संबंध बुढ़ापे से है। यह सच्चाई है और एक दिन सभी को बूढ़े होना ही है।

मैं उन सभी को धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने मेरे इस कार्य को परखा, समझा और सराहा। मैं उन का शुक्रिया अदा करना चाहूंगा जो वृद्धग्राम के नियमित पाठक हैं।

मैं यह सिलसिला जारी रखना चाहता हूं और आप का सहयोग बना रहे तो और अच्छा रहेगा.

डा. चन्द्रकुमार जैन ने ‘इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल’ शीर्षक पोस्ट पर टिप्पणी की,‘‘ये ब्लॉग तो श्रद्धा का पवित्र स्थल है. बहुत ज़रूरी और बेशक़ीमती प्रस्तुति.
हमारे बुज़ुर्गों ने जो कुछ दिया और जिया है उसे जानने.समझने और उनके प्रति दायित्वबोध विकसित करने की सख़्त ज़रूरत है.
निदा फ़ाज़ली साहब के एक शेर के माने हैं कि
माथे पर जिसके सिलवटें ज़्यादा हैं वह
इसी वज़ह से कि ज़िंदगी ने उस इंसान को कुछ ज़्यादा पहना है.
लिहाज़ा इन तज़ुर्बेकारों का लाभ हर पीढ़ी को उठाना चाहिए.’’

चन्द्र गुप्ता ने कहा था,‘’वृद्धों का अनुभव अगर नौजवानों की राह बने तो परिवार मजबूत होंगे समाज सशक्त बनेगा उसमें समरसता आएगी भारतीय समाज परिवार पर आधारित है. परिवार टूट रहे हैं, इस से समाज में टूटन आ रही है. यदि वृद्धों को सम्मान मिलेगा तो सब का भला होगा’’.

उड़न तश्तरी साहब की एक comment में हमेशा याद रखता हूं। उन्होंने पोस्ट ‘दो बूढ़ों का मिलन’ पर कहा था,‘‘बस सिलसिला बनाये रखिये।

आशा करता हूं कि यह सिलसिला यूं ही चलता रहे।

धन्यवाद,

हरमिन्दर सिंह

Tuesday, May 20, 2008

किशना-एक बूढ़े की कहानी, भाग-1

किशना खेत में हल जोत रहा था। जून की तपती दुपहरी में सूरज की लावा उगलती किरणें, बदहाल करती गर्मी की धरती पर बूंदे गिरती थीं। पसीना उसकी काया से छलक कर अतृप्त धरा को श्रम की बूंदों से तृप्त कर रहा था। उसके कुर्ते का गीलापन उसके कठिन परिश्रम की एक अदभुत झलक दर्शा रहा था। खेत जोतते-जोतते सूरज भी ढलने लगा। वह रेत पर बैठ गया और डूबते सूर्य को निहराने लगा।



किशना- एक बूढ़े की कहानी (भाग-1)


लेखक : हरमिन्दर सिंह
चित्रांकन- हरमिन्दर सिंह


किशना की भाभी ने ऐसे नाजुक समय में एक बच्ची को जन्म दिया और मृत्यु की अंतिम सांसें गिनने लगी।

‘‘किशना इस बच्ची को लेकर दूसरे गांव चले जाओ और इसका..........।’’
भाभी की डगमगाती आवाज सदा के लिये डूब गयी। वक्त के अभागे किशना के हाथों एक और चिता जली।

‘‘अनाथ बच्ची का भाग्य, ईश्वर की मर्जी थी।’’ लोग कहते हैं।



‘‘अरे, किशना।’’
पीछे से किसी ने पुकारा, मानो सोये किशना को जगा दिया हो।

किशना पीछे मुड़कर बोला,‘‘कौन, हरिया? कब आया तू?’’

‘‘अब ही आये हैं।’’

‘‘खाद और भैंस का चोकर तो लाया है ना।’’

‘‘हां भैया।’’ हरिया बोला।

किशना उठा और कुछ सोचने लगा। कुछ विराम के बाद बोला,‘‘हरिया, मैं शहर जाने की सोच रहा हूं। मुनिया पढ़-लिख जायेगी, बस।’’

‘‘विचार तो अच्छा है, मगर.........।’’
हरिया ने अपना वाक्य पूरा करना उचित न समझा।

कुछ रुककर किशना ने कहा,‘‘तू उसकी चिंता मत कर, मुनिया के लिये मैं दिन रात एक कर दूंगा। पर उसे लायक भर जरुर बनाउंगा। एक वो ही तो मेरा सहारा है।’’

मुनिया किशना की अपनी संतान नहीं है। वह उसे बहुत चाहता है। वह मुनिया को हर प्रकार का सुख देना और अच्छे नये कपड़े पहने देखना चाहता है। पर गरीबी तो उसे विरासत में मिली है, उससे कैसे बचे।

उसकी आकांक्षायें ऊंची जरुर हैं, उसका विश्वास है,’नामुमकिन नहीं।’ वह जीतोड़ मेहनत करेगा और मुनिया को पढ़ायेगा, चाहें इसके लिये कर्ज ही क्यों न लेना पड़े।

उसे वह दिन याद आते हैं जब सारे गांव में महामारी फैल गयी थी। लोग मर रहे थे। चारों तरफ मृत्यु नग्न-तांडव कर रही थी। किशना का परिवार भी इस कोप में विलीन हो चुका था। मां के बाद बाबूजी सब मृत्यु शैया पर चिता को समर्पित कर दिये गये। किशना की भाभी ने ऐसे नाजुक समय में एक बच्ची को जन्म दिया और मृत्यु की अंतिम सांसें गिनने लगी।

‘‘किशना इस बच्ची को लेकर दूसरे गांव चले जाओ और इसका..........।’’
भाभी की डगमगाती आवाज सदा के लिये डूब गयी। वक्त के अभागे किशना के हाथों एक और चिता जली।

‘‘अनाथ बच्ची का भाग्य, ईश्वर की मर्जी थी।’’ लोग कहते हैं।

‘‘इस बेचारी ने पैदा होते ही जननी मां तक की सूरत नहीं देखी, दूध क्या चखती।’’
किशना रुंधते गले से बोला।

गांव की वृद्धा ने व्यथित किशना को ढांढस बंधाते हुये कहा,‘‘बेटा अब तू ही इसका सहारा.........’’



" " " "



‘‘पिताजी, पिताजी, कहां खो गये, उठिये।’’
कुसुम की आवाज ने किशना को अतीत से परे कर दिया। किशना हड़बड़ाकर उठा और बोला,‘‘बेटी मुझे तेरा बचपन याद आ गया था। जब तू छोटी थी और आज........।’’


शेष कहानी अगली पोस्ट पर

Monday, May 19, 2008

ये भी कोई जिंदगी है

जमीन पर सोने वालों की भी भला कोई जिंदगी होती है। हजारों दुख होते हैं उन्हें, मगर बयां किस से करें? हजारों तकलीफों से जूझते हैं और जिंदगी की पटरी पर उनकी गाड़ी कभी सरपट नहीं दौड़ती, हिचकौले खाती है, कभी टकराती है, कभी गिर जाती है। एक दिन ऐसा आता है जब जिंदगी हार जाती है।

ऐसे लोगों में बच्चे, जवान और बूढ़े सभी होते हैं जिन्हें पता नहीं कि वे किस लिये जी रहे हैं। बस जीते हैं। कई बूढ़े अपने सफेद बालों को यह सोचकर शायद न कभी बहाते हों कि अब जिंदगी में क्या रखा है, दिन तो पूरे हो ही गये।
उन्हें जिंदगी का तजुर्बा होता है। ऐसे वृद्धों को कोई अच्छी निगाह से नहीं देखता, सब उन्हें गलत समझते हैं। उनके हालातों की तरफ कोई ध्यान नहीं देता। सड़क उनका घर, उनका सब कुछ होती है। वे कहीं भी गुजार सकते हैं। आखिर एक रात की ही तो बात है। अगले दिन कहीं ओर, किसी ओर जगह उनका आशियाना होगा, लेकिन वे बेफिक्र भी हैं।


यहीं गुजर जाती हैं जिंदगी

बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, ये जर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं।


वृद्धों को मैंने कई बार प्लेटफार्म पर देखा है। वे बिना उद्देश्य के जिये जा रहे हैं। उनका जीवन किसी के लिये उपयोगी नहीं रहा। इनमें से बहुत से ऐसे हैं जो अपनों ने घर से बेघर किये हैं। वृद्धग्राम की शुरुआत में इसी साल के प्रारंभ में करने की सोच रहा था, लेकिन मैं काफी समय तक इन उम्रदराजों का अध्ययन करता रहा। मेरी ऐसे लोगों से लंबी मुलाकातें भी हुयीं।

कुछ ने बताया कि उन्हें पता नहीं कि वे कहां के रहने वाले हैं। जब से पैदा हुये, जमीन पर सोये हैं, रुखी-सूखी खायी है और मोहताजी में जिये हैं। कई ने बताया कि उनका भी एक परिवार था, वे भी कभी शान से रहते थे। औलाद धोखा दे गयी, क्या करें। उनके आंसुओं के कतरे मैंने अपने जेहन में संभाल के रखे हैं, धीरे-धीरे वृद्धग्राम पर बहा रहा हूं।

एक वृद्ध बृजघाट मिले थे।(हरिद्वार की तरह की यहां से भी गंगा गुजरती है और गंगा स्नान का प्रत्येक कार्तिक पूर्णिमा को यहां विशाल मेला लगता है। बृजघाट उत्तर प्रदेश में स्थित है।) उनका नाम दीनानाथ है. वे काफी दुखी थे। वे बृजघाट के तट पर रामभक्ति में लीन रहते हैं। अपनों ने उन्हें कई साल पहले पराया बना दिया। वे उदास मन से कहते हैं,‘‘बहुओं के आने के बाद घर का माहौल बदल गया। दोनों बेटे उनकी ओर की कहने लगे। बेटी है नहीं, पत्नि को स्वर्ग सिधारे कई वर्ष बीत गये। मैं ठहरा बूढ़ा क्या कर सकता हूं, उन्हें मेरी जरुरत नहीं लगी। सो निकाल दिया घर से।’’ इतना कहकर वे रोने लगते हैं।

दीनानाथ जी आगे कहते हैं,‘‘मैं यहां चला आया। यहां कुछ आश्रम हैं, श्रृद्धालु आते रहते हैं। कुछ न कुछ मिल ही जाता है। अब इस बुढ़ापे में और चाहिये ही क्या, आसरा और दो वक्त की रोटी।’’

वे अब अन्य तीर्थस्थलों को देखना चाहते हैं। कहते हैं कि आखिरी समय में जितना भगवान का नाम लिया जाये उतना कम है।

बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, ये जर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

Sunday, May 18, 2008

विदा, अलविदा!

ये हंसी थी, खुशी थी,
अब करुणा बह रही,
नयनों की भाषा नहीं,
मुक्त नेत्रों से कुछ कह रही,

विदा, अलविदा,
सदा के लिये विदा,
क्या कहा, कुछ कहा,
यहां-वहां-कहां,
अकेला, निर्जन,
कुछ कह रहा,




स्व. खजान कौर









1914 - 30 march,2008


पूजनीय दादी जी की याद में ये कविता उसी दिन उपजी थी। वे मुझे बहुत प्रेम करती थीं, आज वे हमारे बीच नहीं हैं। ये कविता उन्हीं के लिये लिखी है। ऐसे ही मुस्करा रही हैं। वे जहां भी हैं, खुश होंगी।


वेदना की लहर,
समझा रही अपार,
सागर मद्धम गति का,
अश्रु जल का अंबार,
विदाई भली, दूरी बड़ी,
काया नहीं, जीवित चली,
अनंतता की ओर
मगर पुकार नहीं,

अनसुनी ध्वनि,
यम की गली,
वह चली,
बिल्कुल अकेली,
निष्ठुर नहीं,
फिर भी चली,
वहीं एकांत में,

मरघट तक सभी चले,
चक्षू आद्र हुये, नयन सजल,
कैसी दशा मन बैठे, ठिठके,
अब बस यहीं तक चले साथ,
पथ पार करेगा जीव पैदल,
यहीं रहा, यहीं का सब,

था क्या? क्या तेरा? किसका?
अकेला उड़ चला, ली विदाई,
लीन हुआ जो जहां का,
मगर व्यथा करुणा की
मन को कैसे रोके,
बार-बार कर रहा पुकार,
नहीं, लौटो अवश्य इक बार।


हरमिन्दर सिंह द्वारा

Saturday, May 17, 2008

दादी गौरजां

उनका युग अपना था। अंग्रेज अफसर भी उनसे घबराते थे। आवाज का रौब देखते ही बनता था। मर्दाना अंदाज था उनका। दादी गौरजां की बात ही निराली थी।

अपने भ्राता मुंशी निर्मल सिंह की ही भांति वे भी एक लाठी रखती थीं। मजाल है कि कोई कुछ कह दे। तुंरत जबाव देने की उनकी आदत के सब कायल थे। उनके चेहरे पर मुस्कराहट के भाव बहुत ही कम लोगों को नसीब हुये थे। चेहरा लाल सुर्ख था और चाल बिना थकी। उम्र का अंतिम पड़ाव था, लेकिन गांव वाले आज भी कहते हैं,‘‘उनके जैसी महिला मिलना मुश्किल है। वे जितनी बाहर से सख्त थीं, अंदर से मोम की बनी थीं। उनका दिल एक इंसान का दिल था। वे बहुत कुछ थीं।’’


ऐसी थीं दादी गौरजां

मिजाज सख्त था, लेकिन अंतर्मन मोम की तरह

अंदाज मर्दाना था और दूसरों के प्रति सेवाभाव भी

महिलाओं को वे हिदायत देती थीं कि हाथ-चक्की से आटा पीसो। इससे प्रसव के दौरान कठिनाई नहीं होगी।


वे कहा करती थीं-

‘‘हमें इस की चिंता नहीं कि वे(महिलायें) क्या कर रही हैं, हमें चिंता इस बात की है कि ये(पुरुष) क्या कर रहे हैं। अपनी घरवालियों को काम पर भेज निश्चिंत होने का ख्बाव छोड़ना होगा। स्त्री भी खाली नहीं बैठेगी, लेकिन खेती-किसानी में पुरुष से अधिक काम नहीं करेगी।’’





गांव में उन दिनों जब एक परिवार को रोटी के लाले पड़े तो पूरे गांव में ही थीं जो उनकी मदद किया करती थीं। दूसरों का दर्द उनका अपना दर्द था। नारियल का रस बड़ा मीठा होता है, देखने में सख्त जरुर लगता है।

गौरजां की यह खूबी रही कि वे जब तक रहीं गांव की महिलाओं को अनुशासन और साफ-सफाई का पाठ सिखा गयीं। गांव की बड़ी-बूढि़यां आज भी उन्हें उसी तरह याद करती हैं।

रेल का सफर वे बिना टिकट के करती थीं, चाहें कितना ही लंबा क्यों न हो। मजाल है कि कोई अंग्रेज अफसर उनसे कुछ कह सके। वे अधिकतर खड़ी-खड़ी सफर किया करती थीं, क्योंकि वे जानती थीं कि जिन्होंने टिकट लिया है उन्हें पहले बैठने का हक है।

मर्दों को उन्होंने कई बार डाटा भी कि वे अपनी महिलाओं को खेत पर अधिक देर तक काम न करवायें। वे कहती थीं,‘‘हमें इस की चिंता नहीं कि वे(महिलायें) क्या कर रही हैं, हमें चिंता इस बात की है कि ये(पुरुष) क्या कर रहे हैं। अपनी घरवालियों को काम पर भेज निश्चिंत होने का ख्बाव छोड़ना होगा। स्त्री भी खाली नहीं बैठेंगी, लेकिन खेती-किसानी में पुरुष से अधिक काम नहीं करेगी।’’

महिलाओं को एक बात और कहतीं,‘‘ तुम घर का चौका-बरतन तो करती हो। बार(फर्श जिसपर गोबर का लेप होता है) को ऐसा रखो की उस पर मक्खियां न बैठें और रड़का(झाड़ू की तरह कुछ लकडि़यों से बना) से सफाई करते रहा करो, इससे बीमारियां घर में कम चलेंगी। डाक्टर के पास कम जाना पड़ेगा। तुम भी चैन से बैठोगे, पैसे भी बर्बाद न होंगे।’’

उन्होंने 80 वर्ष की उम्र को परे कर अपना कार्य जारी रखा था। वे सुबह उठकर पशुओं को सानी(पशुओं का भोजन) करती थीं। बीच बीच में उन्हें देखती भी रहती थीं कहीं कोई पशु भूखा तो नहीं है या प्यास तो नहीं।

महिलाओं को वे हिदायत देती थीं कि हाथ-चक्की से आटा पीसो। इससे प्रसव के दौरान कठिनाई नहीं होगी। उनका मत था कि इस प्रकार से महिलाओं के संपूर्ण शरीर का व्यायाम हो जाता है जिसे वे ‘प्राकृतिक कसरत’ कहा करती थीं।

बहुओं को वे कहतीं,‘‘उनके कपड़े साफ रखो ताकि बालक साफ रहें।’’

लेकिन भगवान का खेल अजब होता है। वह कभी-कभी उन्हें दुख देता है, जिन्होंने लोगों को रहने का सलीखा सिखाया, उन्हें ज्ञान दिया। दादी गौरजां अपने अंतिम दिनों में लकवे से पीडि़त हो गयीं। वे चारपाई पर ही लगभग एक माह तक पड़ी रहीं, यूं ही बेबस और लाचार। उठने की कोशिश करतीं, आंखों से बातें करतीं, कभी-कभी एक-आद कतरा आंसू का भी बह निकलता।

उस दिन गांव में पहले की तरह रौनक नहीं थी। खेत पर आज लोग गये ही नहीं थे। मुंशी निर्मल सिंह की लाठी अपनी बहन के यहां एक कोने में टिकी थी। उस दिन मुंशी जी की आंखों में आसूं थे। उनके पुत्र मुंशी भोला सिंह आज काफी वृद्ध हो चुके हैं, जिक्र करते हैं,‘‘मुंशी जी(निर्मल सिंह) किसी ने रोते हुये देखे नहीं थे, चेहरे पर शिकन तक नहीं आती थी। उस दिन वे अपनी बहन की चारपाई के एक पाहे के पास बैठकर रो रहे थे।’’

दादी गौरजां के अंतिम दर्शन को अनेकों गांवों के लोग जुटे थे।

आज उन्हें गांव में आदर से याद किया जाता है। यह वह गांव है जिसके लोग अमेरिका, इंग्लैंड समेत कई देशों में बसे हैं। यह वह गांव हैं जहां वर्षों से दलितों को अपने साथ बिठाया जाता है, उन्हें आदर दिया जाता है। यह वह गांव है जहां एकता की मधुर हवा बहती है, महिलायें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल

मायने रखते हैं वो पल जब उन्हें नींद नहीं आती। वे सोने की कोशिश करते हैं। उनकी हड्डियां दर्द करती हैं और वे उठ बैठते हैं। प्रताप महेन्द्र सिंह की कद काठी अच्छी खासी रही है। कमर अब सीधी उतनी नहीं होती और हड्डियों पर खाल चिपक गयी है।

वे कहते अखबार में पढ़ी एक छोटी सी कहानी कहते हैं,‘‘एक राजा था। बहुत भला, दानी और पुण्य वाला। राज्य में एक बार अकाल पड़ा। भूख के मारे लोग बेहाल थे। राजा ने अपना सर्वस्व उन्हें दे दिया। अब वह दाने-दाने को मोहताज था। उसका सब कुछ लुट गया। वह दुर्बल हो गया, शरीर पर खाल की परत जमा थी। एक साधु ने उससे पूछा कि आप का यह हाल कैसे हो गया। राजा ने कहा कि मुझसे अपनी प्रजा का दुख देखा नहीं गया। मैंने अपना सब कुछ दान कर दिया।’’

यह कहानी छोटी है, लेकिन इसके पीछे वे अपनी तस्वीर की कल्पना करते हैं। वे राजा तो नहीं हैं, न ही उनकी कोई प्रजा।

बताते हैं,‘‘दुर्बल में भी उसी राजा की तरह हो गया हूं। हड्डियों मेरी दुखती हैं, शरीर में ताकत अब बची नहीं। रात में करव लेते हुयी भी परेशानी होती है। उठ बैठता हूं। फिर लेटता हूं। फिर बैठ जाता हूं। यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं। लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा।’’


प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं-

''लाचारी
और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।''







प्रताप महेन्द्र जी उम्रदराज हैं, एकांत में बैठते नहीं। यदि कोई उनके पास बैठता है तो बातें होती हैं और बहुत होती हैं।

भोरकाल में उठकर दूर तक घूम आते हैं। धीरे-धीरे यह दूरी कम हो रही है।

इक दिन वे हमसे दूर होंगे।

आज वे मुस्कराते हैं, बच्चों से खूब बातें करते हैं और ठिठोली भी।

किताबों से लगाव उस दिन से पैदा हो गया जब वे मुंशी निर्मल सिंह के संपर्क में आये। इन दिनों कई एतिहासिक किताबें उनकी खाट के पास रखी रहती हैं। चश्मा चढ़ाकर वे उन्हें पढ़ते हैं। हाथों की उंगलियां अधूरी हैं, फिर भी वे पन्ने उलटते हैं।

किसी जहरीली कीटनाशक को इन्होंने अपने दोनों हाथों से घोल दिया था। तब से इनकी उंगलियां आधी हो गयीं।

निर्मल जी को याद करते हैं। कहते हैं,‘‘मैं उनके साथ लाहौर गया था। वे मुझसे बेहद लगाव रखते थे। उनके भाषण आज भी जेहन में ताजा हैं। वे बोलते थे, सब सुनते थे, बिल्कुल ध्यान से। कई बेचैनों की बेचैनियों को उन्होंने दूर किया। वे सच्चे आदमी थे।’’

प्रताप महेन्द्र खुद ग्रामसेवक रहे। इनके बारे में कुछ बाते पहले भी लिखी जा चुकी हैं, देखें-‘‘दो बूढ़ों का मिलन’’। इनके दो पुत्र एक पुत्री हैं। पुत्र सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं।

टिकैत की किसान यूनियन की जब लहर चली थी, तो ये उसके सक्रिय सदस्य थे। सैंकड़ों लोग इनके घर एक साथ पधारते थे। सबका खाना-पीना महेंन्द्र सिंह के यहां होता था। खूब रौनक रहती थी। हरी टोपी वाले गांव में लगभग रोज नजर आते थे।

आज भी कई लोगों का भोजन इनके यहां बनता है। लोग उतने नहीं हैं, लेकिन कुछ साथी हैं पुराने जो इकट्ठे पिलखन(बरगद की तरह एक वृक्ष) की घनी छांव में बैठ जाते हैं। भोजन किये बगैर किसी को जाने नहीं देते।

वे गंभीरता से कहते हैं,‘‘बस बीत गया, जिसे बीतना था। पूरा हो गया, जिसे पूरा होना था। मैं भी वहीं चला जाउंगा, जहां सब जाते हैं। वह कोई नयी जगह थोड़े ही होगी।’’

उनकी बात सही है। वह जगह नयी नहीं है। वह जाना सच्चाई है।

एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-

‘‘इक दिन बिक जायेगा,
माटी के मोल,

जग में रह जायेंगे,

प्यारे तेरे बोल।’’



हरमिन्दर सिंह द्वारा

Friday, May 16, 2008

ऐसे थे मुंशी निर्मल सिंह

बुढ़ापे में जवान होने का साहस कौन कर सकता है, लेकिन मुंशी जी करते थे। वे अपने आप को अंतिम दिनों तक नौजवान समझते रहे। उनका शरीर ढल गया था, हाथों में जान बची नहीं थी, वे लाठी से सरकते थे, लेकिन गन्ने को चूसते हुये जवान ही लगते थे।

कमर का मुड़ाव इस ओर इशारा करता था कि अब दिन चलने के आ गये। एक ऐसी दुनिया में चलने के जहां से पता है, सब जानते हैं, कोई वापस आता नहीं। आती है उसकी याद और वे सब जो उसने यहां रहकर किया और कहा।

मुंशी निर्मल सिंह आर्यसमाजी थे। आर्यसमाज से बड़ा धर्म उनके सामने कोई था नहीं। बाद में सिख बनेवे। लाहौर में जाकर भाषण देते थे। सभाओं में उनके होने से रौनक रहती थी और अनुपस्थिति में वीरानी। वे कहते थे,‘‘आजकल हम बदल रहे हैं और बदल रहे हैं हमारे विचार। तो हम क्यों न इस बदलाव को अपनायें। तैयार हो जायें एक नये कल के सुनहरे उजाले के लिये जिसमें बहुत सी नयी मालूमातें करनी होंगी, क्या होता है और क्यों होता है।’’ शायद उन दिनों में वे अपने को एक ऐसा व्यक्ति मान कर चल रहे थे जो अपना तो शायद उतना नहीं, लेकिन दूसरों को काफी कुछ भला कर रहा है।


मुंशी निर्मल सिंह ऐसी ही थे

बुढ़ापे में भी तेज तरार्र और 97 वर्ष तक भी वे गन्ने चूसते थे

सभाओं की वे रौनक हुआ करते थे

दूसरों की सेवा करना धर्म समझते थे



दीपावली के दिन पैदा हुये थे, और होली के दिन संसार छोड़ गये। उस दिन रंग में वे भी रंग गये थे। लेकिन ये रंग तो न लाल था, ना हरा और न पीला। ये था एक ऐसा रंग जो भगवान के साथ उसके महलों में होली खेलने वालों को ही नसीब होता है



अखबार वाले उनके आगे पीछे रहते थे कि मुंशी जी कुछ लिख कर उन्हें भी देंगे। यह तब की बात है जब भारत आजादी के लिये संघर्ष कर रहा था। तब उर्दू के अखबार काफी संख्या में निकलते थे। वे उर्दू में लिखते थे। उनके भाषणों में बहुत कुछ धरती से जुड़ा रस छिपा होता है क्योंकि वे उस घर से आते थे जहां खेत-खलिहान लोगों के प्रिय थे और वे खेती प्रेम से करते थे।

एक बात वे कई बार कहते थे,‘‘अब तो लोग बिना टोपी और चादर के आ रहे हैं। ठंड में भी और गर्मी में भी। शायद वे भूल गये कि ये दोनों हमें उन दोनों से बचाते रहे हैं।’’

शब्दों की माला पहनकर वे आते थे और शब्दों का रस श्रोताओं के कानों में घोल जाते थे। साहित्य के वे पुजारी थे। आज भी उनके गांव में एक अलमारी का अवशेष मिल जायेगा जिसमें भिन्न भाषाओं की पुस्तकें जर्जर हालत में मिलेंगी। उनके परिवार के लोगों ने उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उन्हें उर्दू, हिंदी, पंजाबी, अंग्रेजी, रुसी आदि भाषाओं का ज्ञान था। उनके पास रुस से कई पत्र-पत्रिकायें आते थे। उनकी एक रुसी पत्रिका मेरे पास मौजूद है।

उन्होंने अपने गांव में सबसे पहले पानी की प्याऊ बनवायी। पानी पिलाने के लिये वाकायदा एक तनख्वाह पर नौकर रखा हुआ था।

उनकी कई बातें आपको समय समय पर बताता रहूंगा।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

Wednesday, May 14, 2008

सम्मान के हकदार

क्षेत्र में समाज-सेवा में जुटे जिन लोगों को डी.एम. ने सम्मानित किया उनमें ग्राम छीतरा निवासी 62 वर्षीय, सेवानिवृत्त अध्यापक मा. कृपाल सिंह ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने परिवार, गांव, देश और अपने पद पर बेहद कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, साहसी और समर्पित रहे हैं। उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने पर जो सम्मान मिला वे इससे भी बड़े सम्मान के हकदार हैं। यह उनके बड़प्पन की बात है कि उन्होंने हमेशा कर्तव्य को प्रधान रखा और कभी भी सम्मानित होने की इच्छा नहीं जतायी।

मुझसे अधिक उनके बारे में शायद कोई नहीं जानता। उन्होंने 1964 में बी.टी.सी. करने के बाद ग्राम छीतरा में कार्यभार ग्रहण किया। मैं उस समय तीसरी कक्षा में था। मेरा लेख कक्षा में सबसे गंदा था। इसकी जानकारी मिलते ही उन्होंने अपने हाथ से कलम बनाकर लिखना सिखाया। जो जानकारी में तीन वर्षों में नहीं कर पाया वह काम मा. साहब की कृपा से तीन दिन में हो गया। मेरा लेख कक्षा के बजाय पूरे स्कूल में सबसे बेहतर हो गया। मुझे अच्छी तरह याद है कि वे स्कूल में पूरा समय बहुत परिश्रम से पढ़ाते थे और हम सभी को निशुल्क टयूशन भी पढ़ाते थे।


बहुआयामी व्यक्तित्वः मा. कृपाल सिंह


1964 में बी.टी.सी. की परीक्षा पास कर छीतरा में कार्यभार ग्रहण किया

बालीबाल और कबड्डी के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे हैं

सर्वशिक्षा अभियान में ब्लाक समन्वयक रहे

सामुदायिक विभाग में काफी समय से सहयोग दे रहे हैं

बस्ती में पब्लिक स्कूल भी चला रहे हैं



उनके संचालन में हमारा स्कूल ब्लाक गजरौला का सर्वश्रेष्ठ स्कूल बन गया। केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि खेलकूद में भी हम जिला स्तर पर पहुंचे। हमारे गांव में उस समय जिला परिषद का केवल प्राथमिक स्कूल ही था। पांचवी पास करने के बाद जून माह की ग्रीष्म कालीन छुट्टियों में भी उन्होंने एक दिन की छुट्टी भी नहीं की तथा हमें अंग्रेजी भाषा का ज्ञान कराने में वे जुटे रहे। हमें उसका लाभ छठी कक्षा में प्रवेश के दौरान मिला। जो चीज हम पढ़ना सीखने को कक्षा में गये हमें वह पहले याद हो चुका था। हाई स्कूल तक मैं कक्षा में सबसे अधिक अंक बटोरने वाला छात्र रहा।

बालीबाल तथा कबड्डी के वे सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे हैं। बीते एक दशक से सर्वशिक्षा अभियान में वे ब्लाक समन्वयक रहे तथा इस दौरान शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया। सामुदायिक विभाग में वे काफी समय से सहयोग दे रहे हैं। साथ ही बस्ती में एक पब्लिक स्कूल भी वे चला रहे हैं। उनके स्कूल में छात्र स्वैच्छिक वर्दी पहनते हैं। कृपाल सिंह का कहना है कि गरीब छात्र अलग से कपड़े नहीं खरीद सकते अतः वे इन पैसों को पुस्तकें आदि खरीद सकते हैं। उनका दावा है कि वर्दी से शिक्षा पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता। हां जो भी वस्त्र पहने जायें वे साफ होने जरुरी हैं।

मा. कृपाल सिंह बहु आयामी व्यक्तित्व हैं। ऐसे लोग शिक्षा के क्षेत्र में आ जायें तो हमारा तथा हमारे देश के भावी कर्णधारों का भविष्य उज्जवल रहेगा।

गुरमुख सिंह द्वारा

दो बूढ़ों का मिलन

जब दो उम्रदराज लोग एक साथ बैठ जाते हैं तो बातें होती हैं उन लम्हों की और इन लम्हों की भी। काफी सारी बातें होती हैं। यादों के झरोखे खुल जाते हैं और बहुत ही फुर्सत से बैठे हुये मालूम होते हैं ये।

दो बूढ़ों के मिलन को मैंने नजदीक से देखा और समझा है। उनके पास क्या-क्या होता है कहने को और क्या नहीं। लेकिन कुछ वे कह पाते हैं और कुछ अनकही भी कह जाते हैं अपने भावों से। उनकी बातों में बहुत कुछ बहता है, नीर भी, लेकिन वे ढांढस बंधाये रहते हैं अपना और अपनों का भी।

ये वे थे जो जीवन की खट्टी-मीठी यादों के बीच एक दूसरे से बरसों बाद मिल रहे थे। खुशी थी, चेहरे पर चमक भी, पल-पल खुशगवार रहा होगा उनके लिये। मुस्कान से सलवटों को नया आकार मिल रहा था और वे कभी-कभी किसी बात, तो कभी किसी बात पर बीच-बीच में ठाठे भी मारते थे।


मुंशी भोला सिंह और स. प्रताप महेन्द्र सिंह


दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’


एक के सिर पर पगड़ी थी, केश थे। दूसरे के सिर टोपी थी। बेटी और बेटा इन्हें देखकर गदद थे और उनके बच्चे भी। इस माहौल का हिस्सा मैं भी था।

उनके पास उम्मीदों का एक चिट्ठा था जिसे वे कभी खोलते तो कभी खुद-ब-खुद बंद हो जाता। उठापठक थी, बेचैनी भी और अजब सा साम्य भी। उनमें से एक मुंशी भोला सिंह थे। इनके पिता मुंशी निर्मल सिंह जी अपने जमाने के संत लोगों में से एक थे। उनका व्यवहार अपने छह बेटों में बंट गया। एक बेटी का पति उसे तीन बच्चों की जिम्मेदारी देकर साधु बन गया। आज वे बूढ़ी हो चुकी हैं, लेकिन उनके पुत्र और पुत्रियां धन संपन्न और प्रसन्न हैं।
दूसरे थे रामपुर के छोटे से गांव बंजरिया के रहने वाले। स. प्रताप महेन्द्र सिंह सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं। वे पहले किसान यूनियन के सक्रिय सदस्य भी हुआ करते थे। लेकिन यूनियन की शैली और उसमें कई खराब लोगों के कारण वे उससे दूर हो गये। सज्जन हैं, व्यवहार में भी और अपने दो बेटों और एक बेटी को भी यही सिखाया है। वे आजकल ऊंचा सुनते हैं। बच्चे कहते हैं कि इलाज करा लो। पता नहीं क्यों वे जाते नहीं। बंजरिया से दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था। इन्होंने स्कूल खोल रखा है। कई बच्चों की फीस नहीं ली जाती क्योंकि वे उन घरों से आते हैं जहां रोटी के लिये बच्चे मांओं से अनुरोध करते हैं, तो उन्हें कुछ सूखे टुकड़ों से बहला दिया जाता है। खुद भूखी ही रह जाती हैं।

गांववालों को खेती नहीं आती थी। महेन्द्र सिंह पहले ज्योतिबाफुले नगर में जिला मुख्यालय अमरोहा से कुछ दूर एक गांव में बसते थे, लेकिन जमीन ज्यादाद बेचकर रामपुर के एक अति पिछड़े गांव में चले गये। गांव वाले आज भी कहते हैं,‘‘ये न आते तो हम खेती कभी न कर पाते।’’

महेन्द्र सिंह और भोला सिंह को पता ही नहीं चलता कब चाय ठंडी हो गयी। वे बातों में मशगूल थे। ये उम्र ही ऐसी होती है जब भावुकता और स्नेह कुलाचें मारता है। मन की बात बाहर निकलती भी उसी तरलता की तरह है और छिपती भी उसी तरह है।

झुर्रियों को देखकर उम्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुंशी भोला सिंह 85 वर्ष पार कर गये हैं, लेकिन चेहरे पर चमक बरकरार है। महेन्द्र सिंह की कमर उनका साथ नहीं दे रही यद्यपि उनकी और मुंशीजी की उम्र का फासला 5 वर्षों का है। मुंशी जी बड़े हैं महेन्द्र जी से।

तीन बेटे उन्हें स्नेह से रखते हैं या नहीं ये वे किसी से बताते नहीं। उनकी पत्नि का देहांत इसी महीने की शुरुआत में हो गया। उस दिन वे किसी ने पहली बार रोते हुये देखे थे। उनकी आंखें छलक आयी थीं। महेन्द्र जी उनसे पूछते हैं,‘‘बच्चों की दादी की मृत्यु के बाद ही आप पहली बार कहीं आये हैं।’’

वे मुस्करा जाते हैं। अट्ठास करने की अपनी पुरानी आदत को छिपा नहीं पाते। भोला सिंह ने अपनी जवानी में तीतर का शिकार बहुत किया है। ये मेरे हिसाब से क्रूरता है। मैंने उनसे इस विषय में बात की तो वे बोले,‘‘पता नहीं कैसे मैं यह करता रहा। आज मुझे अपने किये पर पछतावा होता है।’’

क्या हम ये कहें कि जवानी के क्रियाकलापों को भोगने के काल को बुढ़ापा कहते हैं?

खैर, दोनों का समय यादों से कट गया। कुछ तेरी याद, कुछ मेरी यादें। इनकी खुशी कैसी थी, और कैसे थे इनके अंर्तमन। समझ नहीं पा रहा कि बुढ़ापे में जर्जरता क्यों आती है? शरीर जबाव क्यों दे जाता है? सब का सब शिथिल पड़ने क्यों लगता है?

बहुत बुरा है या यह अच्छा है अगली दुनिया के लिये। अगला लोक कैसा होगा? क्या वहां भी हम इसी तरह होंगे? ये प्रश्न हैं कि खत्म ही नहीं होते।

बुढ़ों की दुनिया अपनी दुनिया है। उनका जीवन हमारे जीवन से जुदा है, क्योंकि वे अपनी अलग दुनिया के वासी होकर भी हमारे साथ मिलने को उतावले रहते हैं। हमारा साथ उन्हें नहीं मिलता, वे दुखी होते हैं।

बहुत सी बातें गठरी में बांध कर लाये थे दोनों। गठरी खुलती गयी और सिलसिला चलता रहा। बेरोकटोक, लगातार और मजेदार भी।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

Monday, May 12, 2008

बुढ़ापे का सहारा

बूढ़े हंसते नहीं हैं। हम यह कहते हैं। बूढ़े रोते भी हैं और हंसते भी हैं, वे कुछ पल के सुख को खुलकर जीने की तमन्ना रखते हैं। उनका व्यवहार अजीब लगता है उन्हें जो अभी बूढ़े नहीं हुये।

परिवारों में बूढ़ों की दुदर्शा किसी से छिपी नहीं है। उन्हें किस तरह और क्यों सताया जाता है, दुख पहुंचाया जाता है, और किस तरह वे जीते हैं। यह चर्चा का विषय है। उनके जीवन में रस समाप्त हो जाता है और वे चुपचाप रहते हैं। नीरस हैं, दुखी हैं, सताये हैं, फिर भी एक आस के साथ जीते हैं बूढ़े। एक आस जीवन की और उस दिन की जब वे यहां नहीं होंगे। कहीं भी होंगे लेकिन वे होंगे।


गरीबदास का दर्द

गुरीबदास हंसते नहीं हैं, रोते अधिक हैं। वे उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं।

उनका बेटा उनके साथ अभद्र व्यवहार करता है

वे रोते हुये कहते हैं,‘‘इससे तो बेऔलाद ही भला था।’’




आइये एक ऐसे वृद्ध से मिलते हैं जिन्हें आज तक सबने सम्मान दिया। उन्होंने स्वीकार किया। उनके इकलौते पुत्र ने उन्हें ऐसा समय दिखाया कि वे आज भी रोते हैं और कहते हैं,‘‘इससे तो बेऔलाद भला था।’’

फाजलपुर के गरीब दास को उनके आसपास पास के लोग भली भांति जानते हैं। वे एक मामूली इंसान हैं, लेकिन जितने लोगों के बीच वे रहते हैं उनके बीच उनका सम्मान है। सम्मान इतना कि वे लोग उन्हें बहुत बड़ा मानते हैं। उनके बेटे ने उनके लिये कुछ नहीं किया। वे आंखों में आंसू लिये रहते हैं।

हाल के कुछ दिनों में उनके साथ ऐसा हुआ है कि वे अब अपने आप से लड़ रहे हैं, अपने बेटे से कुछ कह नहीं सकते। इतना दुख है कि किसी से बताते नहीं और पहले ही आंखें गीली हो जाती हैं। अपनी संगिनी और पोते के साथ कुछ पल गुजार कर धन्य हो जाते हैं। उनकी मुस्कान मंद पड़ गयी है।

नाम के गरीबदास हैं और पुत्र की तरफ से भी गरीब। पिछले दिनों उनके बेटे ने उनके साथ मारपीट की और उन्हें बुरा-भला कहा। यह सब अखबार में भी छपा।

उनका बेटा शराबी है और नशे के लिये आयेदिन उनसे झगड़ा करता रहता है। यह दस्तूर पहले से चला आ रहा है। उनकी पत्नि उन्हीं की तरह कमजोर हो चली है। बहु भी पिछले साल गुजर गयी। आग से जली थी या जलायी गयी थी वह, पता नहीं चल सका। उसकी मौत संदेहास्पद थी। बेटे ने जमीन बेच दी। एक टेंट हाउस गरीबदास जी ने चला रखा है, उसपर भी यदि बेटा बैठता है तो वह दिनभर की कमाई को अपने नशे में उड़ा देता है।

औलाद ही है जो बुढ़ापे के लिये लाठी होती है और यदि चाहे तो बुढ़ापा तबाह कर देती है। गुरीबदास हंसते नहीं हैं, रोते अधिक हैं। वे उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं।

बुढ़ापे में मां-बाप को सहारा ही तो चाहिये। एक ऐसा सहारा जो उन्हें थोड़ा आराम दे सके। ये आराम है तो अल्प समय का लेकिन औलाद का सुख कुछ और ही होता है।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

दुख भी है बुढ़ापे का

जिनकी अंगुली पकड़ कर हमने चलना सीखा। जो हमारे माता-पिता हैं। आज हम बड़े हुये और वे बूढ़े। हमने उन्हें सहारा नहीं दिया, किनारा कर लिया। ऐसे अनेक वरिष्ठ नागरिक सम्मान समारोह में अपनों के गम से सराबोर थे। उन्हें अपनों का दुख था। उनकी बातों से यह मालूम हुआ कि वे अंदर से भरे पड़े हैं। शायद अब रोने की भी इच्छा नहीं होती।

नेहरु स्मारक इंटर कालेज के सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने दुख व्यक्त किया कि वृद्धों की उपेक्षा की जा रही है। उन्होंने भावुक होकर कहा,‘बेटे और बहुओं के व्यवहार इस प्रकार के हो गये हैं कि वे हमें बोझ समझ रहे हैं। हमारा सुख-दुख उनके लिये कुछ नहीं।’

वे अक्सर एक पान के खोखे पर आकर बैठ जाते हैं। पान खाते नहीं, सिगरेट और नशे से कोसों दूर हैं। बस एक-आद अपनी उम्र के मिल जाते हैं, उनसे घंटों बतियाते हैं। पान वाले भी एक बुजुर्ग हैं। बुजुर्गों के किस्से बहुत देर तक चलते हैं। मैंने फाटक से गुजरते वक्त कई बार देखा है उन्हें।


अपनों की दूरी

‘बेटे और बहुओं के व्यवहार इस प्रकार के हो गये हैं कि वे हमें बोझ समझ रहे हैं। हमारा सुख-दुख उनके लिये कुछ नहीं।’

गिरीराज सिद्धू,
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य


आज उनका एक लड़का उनसे बात नहीं करता। लेकिन वे अकेले नहीं हैं, मगर अपनों से दूरी का दुख तो होता है। इसे शायद वे मन में दबाये रहते हैं। कुछ पल की खुशी उन्हें बहुत कुछ दे जाती है और वे उसमें खुद को सम्माहित कर लेते हैं।

मैं दुखी हूं क्योंकि मैं उनके दुख को समझ सकता हूं। वे दुखी हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि बुढ़ापे में अब वे अकेले पड़ गये हैं। अन्य दो बेटों से वे उतने दूर नहीं हैं, लेकिन बुढ़ापे में मन कितना सा होता है, ये वे ही जान सकते हैं जिन्होंने उसे देखा है। गिरीराज जी तो अब उसे जी रहे हैं। बहुओं ने उन्हें दुखी कर दिया है।

बचपन और बुढ़ापा दोनों एक सीमा के लिये आते हैं, बिना रुके बहते हैं। बचपन की ठिठोली, चंचलता नहीं है, आज शांत रहने की इच्छा है, प्रेम की प्यास है। अपनों के प्रेम की, उनके स्नेह की।

समारोह में आये कई वृद्ध अपनी दास्तान पूरी तरह खुलकर तो नहीं बता सके लेकिन उनके विचारों से यह साफ झलक रहा था कि उन्हें गम भी है और हैरानी भी। गम इस बात का कि वे अपनों ने ही पराये कर दिये। हैरानी इसकी कि उन्हें इसका कतई भी अंदाजा नहीं था कि जिन्हें उन्होंने पाल-पोसकर लायक भर बनाया, वे आज उनसे किनारा कर रहे हैं।

बाप की उंगली और बचपन का प्यार कब बच्चे भूल जायें यह अहसास होने का पता नहीं लगता।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

Sunday, May 11, 2008

वृद्धों की सेवा में परमानंद

वृद्ध स्वयं भी हैं, औरों के लिये तन-मन-धन से संलग्न हैं वे। ऐसे लोग मिलते कहां हैं जो दूसरों के लिये जीते हों। लेकिन पेशे से चिकित्सक डा. रमाशंकर आज से नहीं बल्कि पिछले कई वर्षों से चिकित्सा समाज सेवा की तरह कर रहे हैं।

गेरुआ वस्त्रधारी संत आपने बहुत देखे होंगे लेकिन साधारण वेशभूषा में एक ऐसे संत भी हैं जो वास्तविक समाजसेवी तथा संत हैं। डा. रमाशंकर ‘अरुण’ के नाम से उन्हें सभी जानते हैं। बस्ती में उनका क्लीनिक है। वे 80 वर्ष के हो चुके लेकिन उनके स्वास्थ शरीर से वे साठ से कम ही लगते हैं। उनकी पुत्री उनकी एक मात्र संतान है, जो एक सुयोग्य चिकित्सा विशेषज्ञ हैं।

गृहस्थी संत हैं डा. अरुण

प्रति पूर्णिमा तथा अमावस्या पर ब्रजघाट जाकर लोगों को निशुल्क दवाईयां बांटते हैं

प्रतिदिन कई निर्धन लोगों को मुफ्त दवाई देते हैं

वृद्धों के लिये एक आश्रम की योजना बना रहे हैं जिसे वे शीघ्र पूर्ण करेंगे




कई वृद्धों को वे आज भी अपने यहां आश्रय दिये हुये हैं। शांत स्वभाव के हैं, और उनके पास बैठने से शांति का अनुभव किया जा सकता है। वे अब एक वृद्धाश्रम बनाने की योजना बना रहे हैं। इसके लिये कई समाजसेवी उनका साथ देने का तैयार हैं।

डा. अरुण गजरौला ग्राम सभा के प्रधान भी रह चुके हैं। लोगों का कहना है कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से काम किया। श्रमगढ़ी खादी ग्रामोद्योग के वे कई वर्षों तक कोषाध्यक्ष भी रहे तथा स्वेच्छा से यह पद भी छोड़ दिया। इस समय आप पूरे दिन बीमार लोगों को स्वास्थ्य लाभ कराने में संलग्न रहते हैं। प्रति पूर्णिमा तथा अमावस्या पर ब्रजघाट जाकर लोगों को निशुल्क दवाईयां बांटते हैं। दुकान पर भी प्रतिदिन कई निर्धन लोगों को मुफ्त दवाई दे देते हैं।

अत्यंत मृदुभाषी लेकिन न्यायपूर्ण बात करने वाले अरुण जी बिल्कुल निर्भीक और धार्मिक पुरुष हैं। जनहित के किसी भी काम में वे पीछे नहीं रहते।

जल्द ‘वृद्धग्राम’ पर हम मिलेंगे एक ऐसे व्यक्तित्व से जिन्होंने अपना जीवन दूसरों को उच्च आर्दश देने और उन्हें शिक्षा और अनुशासन का पाठ पढ़ाने में लगा दिया, लेकिन आज उन्हें दर्द है अपने बुढ़ापे का।

धन्यवाद उन सभी का जिन्होंने अपना मूल्यवान समय निकाला और ‘वृद्धग्राम’ पर आये।

हरमिन्दर सिंह द्वारा

Saturday, May 10, 2008

वृद्धों का पहला ब्लाग

यह प्रसन्नता की बात है कि वृद्धों का पहला ब्लाग का प्रारंभ कर दिया गया है। हमने बहुत कुछ नजदीक से देखा हैऔर एहसास किया है कि एक दुनिया हमारे पास बसती है जिसमें बूढ़े हैं। ये ब्लाग समर्पित है ऐसे ही लोगों को जोजीवन भर संघर्ष करते रहे, आज का संघर्ष पहले से जुदा है। आज यादें हैं, तन्हाई है, एकाकीपन है और बस कुछपलों की मिठास भी जो उन्हें अपनों को देखकर मिलती है।

सचमुच उनकी दुनिया वीरान है, लेकिन बहुत से ऐसे हैं जिनके अपने उनके पास हैं। हम ऐसे ही बुजुर्गों कीदुनियाको पास से देखेंगे जब वे हंसेंगे, हमें गुदगुदायेंगे और हमारे संग गायेंगे भी। कुछ ऐसी विभूतियों के बारे मेंबातकरेंगे जो बुढ़ापे में भी नौजवान की भांति खड़े हैं। ऐसे ही एक मा. होराम सिंह का हम यहां जिक्र कर रहे हैं।

ये लोग वरिष्ठ नागरिक हैं, उम्रदराज हैं, अनुभवी हैं, जानकार हैं और इन्होंने सिखाया है दूसरों को। ये अध्यापक हैं, डाक्टर हैं, अपने-अपने क्षेत्रा के माहिर। समाज को नये रास्ते पर लेकर गये हैं और उन्हें रास्ता दिखाया है जिन्हेंकहीं कोने में छोड़ दिया गया था। वे जुड़े हैं आपने काम में, संलग्न हैं सेवा-भाव से, शायद इसी सोच के साथ किथोड़ा सा माटी का कर्ज उतार सकें। आइये जानते हैं, मिलते हैं उनसे-


शिक्षकों के शिक्षक

मा. होराम सिंह

मास्टर साहब की उम्र 85 साल है पिफर भी कृषि कार्य मेंअधिकांश समय लगाते हैं


बेटा आइ..एस है, अब सेवानिवृत्त


मूढ़ा खेड़ा कालेज के . श्योराज सिंह और कृपाल सिंह उनकेशिष्य रह चुके हैं


छीतरा के मुंशी निर्मल सिंह उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं


मा. होराम सिंह

ग्राम बल्दाना निवासी मा. होराम सिंह को शिक्षा क्षेत्र में किये उल्लखेनीय योगदान के लिये जुबीलेंट ने सम्मानित किया है। उन्हीं के साथ उनके दो शिष्यों स. श्योराज सिंह तथा मा. कृपाल सिंह को भी सम्मानित किया गया। मा. होराम सिंह के बड़े सुपुत्र वीरेन्द्र सिंह आइ.ए.एस. हैं जो अब सेवानिवृत्त हो चुके। इसी से मास्टर साहब की दीघार्यु का पता चलता है। उनका स्वास्थ्य आजकल के नवयुवकों से बेहतर है। उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता कि वे इतनी लंबी आयु के हैं।

अपने अध्यापन काल में उन्होंने बहुत परिश्रम तथा लग्न के साथ पढ़ाया। उनके अनेक शिष्य आज भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। वे जहां कहीं भी गये लोगों ने उनका सम्मान किया। वे बहुत ही सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले महानुभाव हैं। उन्हीं की प्रेरणा और शिक्षा का प्रभाव था कि उनके बड़े पुत्र वीरेन्द्र सिंह आइ.ए.एस. बने।

मा. होराम सिंह बहुत ही सादगी से अपने गांव बल्दाना में जीवन व्यतीत कर रहे हैं तथा लंबी आयु के बावजूद कृषि कार्य में अधिकांश समय लगाते हैं।

ग्राम छीतरा निवासी स्व. मुंशी निर्मल सिंह उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं। अध्यापक के रुप में उन्होंने छीतरा के प्राथमिक विद्यालय का कार्यभार ग्रहण किया था। मा. साहब ने केवल छात्र-छात्राओं को ही नहीं बल्कि ग्रामीण लोगों के कार्य व्यवहार में भी सुधार किया। वे हमेशा न्याय का पक्ष लेते हैं। उनके जीवन आदर्शों पर लिखा जाये तो एक बड़ा ग्रंथ तैयार हो सकता है। यहां तो उनके बारे में एक अंश मात्र भी नहीं लिखा गया।

हरमिन्दर सिंह द्वारा
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coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com