दुनिया को करीब से देखा है इन्होंने। दुनिया बोलती आंखों का सितारा है। मोह भी यहीं है और माया भी। बच्चे बड़े हो रहे हैं और नौजवान बूढ़े। यह तो होता ही आया है कि बीज उगता है तो दूसरा पेड़ बन कर गिर भी जाता है। उम्र का सारा खेल यह है। इसका कोई शातिर खिलाड़ी भी तो नहीं।
अपनों का मोह और उनकी करीबी बुजुर्गों को उनसे जोड़े रखती है। पर क्या वे जर्जर काया वालों से मोह करते हैं? शायद इसका जबाव न में अधिक मिले।
जब तक जवानी का दौर रहता है शरीर कुलांचे मारता है। सुबह का सूरज उगता है, दोपहर में पूरे वेग पर होता है और शाम को अस्त हो जाता है।
अस्त हो रहा है आज सूरज। किरणों की संख्या अनगिनत आज भी है, लेकिन उन्हें गिनने वाला कोई नहीं। यह कहना जरुरी हो रहा है कि बात करने वाले दूरी बना रहे हैं। ‘‘बूढ़ों वाली गंध आ रही है’’ कहने वालों की कोई कमी नहीं।
जोड़ गांठ कर रखी पूंजी और जमीन बंट गयी। ये ही होता है। होता बहुत कुछ है, बताने वालों की कमी है। अनेकों वृद्ध अपनों के शोषण का शिकार हो रहे हैं, बोलते नहीं हैं, बस सहते हैं। यही उनके आखिरी पलों की कहानी है।
जवानी बात करती है, कूदती फांदती है, इतराती है, लेकिन इस समय सब बेकार है। चुपचाप रहना ही बेहतर है।
-harminder singh
Wednesday, September 30, 2009
Tuesday, September 29, 2009
कैदी से नींद कुछ कहती है
थक सा गया हूं, बिल्कुल. अंधेरा मुझे घेरने की कोशिश कर रहा है। पता नहीं कहीं से कोई किरण उजाला ला देती है। मगर वह कुछ समय का होता है। हां, कुछ समय की छटपटाहट कम हो जाती है। कम होता है दर्द, कराहट और उलझनें। करवटें बदलकर रात भर जागने की आदत हो चुकी। खुद में सिमट कर रह गया हूं। पहले नींद कहती थी,‘मैं तुम्हारे पास आना नहीं चाहती। तुम पापी हो, हत्यारे हो। किसी के खून से तुमने हाथ लाल किये हैं। किसी को दर्द दिया है तुमने। तुम कैसे चैन में रह सकते हो? तुम्हें माफ नहीं किया जाना चाहिए। मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती। मैं ऐसा करना भी नहीं चाहती क्योंकि तुम्हारा व्यक्तित्व मैं पहचान चुकी हूं। तुम स्वयं को भगवान समझते हो। किसी की जान लेकर तुम बहुत खुश हुए। तुम सोच रहे होगे कि तुमने पुण्य का काम किया। नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं। संसार को ऐसे लोगों से घृणा करनी चाहिए। मैं करती हूं। मैं ऐसे बुरे इंसानों से दूर रहना बेहतर समझती हूं। पापी कहीं के।........अब बैठो तन के और अपनी बहादुरी का परिचय दो। किसी की चीखों को तुमने कैसे अनसुना कर दिया? उसकी पत्नि अपने पति को बचाने की जद्दोजहद कर रही थी और तुम..........। ..............और तुम उसे अंधों की तरह चाकू मार रहे थे। उसका खून टिप-टिप कर गिर रहा था और तुम्हारा खून उबाल ले रहा था। वह तड़प रहा था, तुम मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे। रक्त के छींटे जमीन को लाल कर रहे थे। तुम्हारा चेहरा आवेश में सुर्ख था। एक जिंदगी धीरे-धीरे मर रही थी। तुम उसे हाथ-पांव मारता देख रहे थे। तब तुम्हें दर्द नहीं हुआ। उसकी पत्नि उससे लिपट कर तुम्हें कोस रही थी। जानते हो एक सुहागिन की टीस कितनी पैनी होती है। हीरे की परत तक को छलनी कर देती है। उस स्त्री की चूड़ियां टूट कर बिखरी थीं। यहीं से उसके अरमान भी बिखर गये। उसका सिंदूर पोंछ दिया गया। कभी गहनों से लदी वह, कोरी मूरत लगती थी जिसके रंग छिन गये हों। दुखी थी वह, खूब रोयी थी वह। उसकी तो दुनिया तुमने एक क्षण में लूट ली थी। वह निर्जन वन का सूख पेड़ हो चुकी थी। उसकी हाय से क्या तुम बच सकते हो? नारी का प्रेम जानते हो, घृणा नहीं। वह जितनी नम्र है, उतनी कठोर भी। तुम उसकी पीड़ा को अब जान रहे हो या नहीं, लेकिन करनी को भुगतना पड़ता है। तुम इंसान होते ही ऐसे हो। संवेदनाओं की बात करते हो, दूसरों का दर्द तुम्हारे लिए बेमतलब का है। अपनी पत्नि का दुख जानोगे तो पता लगेगा। मोह का अर्थ कितना गहरा है, तुम क्या जानो? जब अपने बिछुड़ते हैं तब आंसुओं की कतार लंबी होती है। लंबा होता है वक्त क्योंकि तब कोई अपना हमसे रुठकर चला गया होता है।’
‘बहुत पीड़ा होगी तुम्हें। शायद बहुत पछतावा भी। तुम पापी हो। पाप तो हो चुका। ईश्वर पर दोष देने से कोई लाभ होने वाला नहीं क्योंकि उसे धोखा दिया नहीं जा सकता। सभी इंसान स्वार्थी हैं, तुम भी। आवेश तन कर खड़ा हो गया तो उसके हो लिए। कैसी मानसिकता है तुम्हारी? मुझे तुम पर दया नहीं आयेगी। भला हत्यारे पर दया किस मोल की? तुम जैसे इंसान दूसरों की रोशनी छीनकर उन्हें अंधेरे में रहने को मजबूर करते हो। अंधेरा काला होता है। सबको भय लगता है जब जीवन का एक किनारा सिकुड़ जाए। तुम्हें दब कर जीना होगा, घुट कर जीना होगा। यह इंसाफ ही तो होगा। फल भुगतने की बारी सबकी आती है- कुछ देर से, कुछ जल्दी हलाल होते हैं। तुम्हारी तड़पन देखने लायक होगी। समझ चुके हो शायद अपने वक्त की कहानी का अंजाम। घिसट-घिसट कर जीवन चलेगा। इसकी रगड़ तुम्हें अंदर तक छील देगी और दर्द इतना अधिक होगा कि रो भी न सकोगे। पीड़ा का अहसास खुद करने पर वास्तविकता का पता चलता है। पीड़ा को करीब से देखे स्वत: ही कराह उठोगे। भीतर छिपे शैतान को अपना दर्द दूर करने के लिए अब पुकारो। क्यों, असहाय हो गए न। लोग अक्सर भूल कर जाते हैं कि उनका किया सब सही है। तुमने यही किया- भगवान खुद को मान बैठे। एक स्त्री को विधवा बनाया। उसके बच्चों से उनका प्यारा पिता छीन लिया और पत्नि से उसका पति। क्या मिला, आखिर हासिल क्या हुआ? ओरों को भी तड़पाया स्वयं भी कष्टों को समेटा। यह भुगतना पड़ेगा। अपने जब दूर हो जाते हैं तब कष्ट इतना भारी होता है कि दुख समेटे नहीं सिमटता। इसे दुखों के पहाड़ से बड़ा कहते हैं। जिंदगी छीनना आसान है, उसे निभाना कठिन। तुमने खुद को ऐसे हालातों का मोहताज बना दिया कि अब सिवाय दुखों के कुछ नहीं। जियोगे, जरुर जियोगे, तुम्हें जीना पड़ेगा। भला तुम्हारे जैसा इंसान इतनी आसानी से मर कैसे सकता है? देखोगे वह जो पहले नहीं देखा, सहोगे वह जो नहीं सहा। हर जगह गमों का जाला होगा जो जकड़ कर रखेगा तुम्हें। उजाला ढूंढते फिरोगे, हाथ नहीं आयेगा। सवेरे की तलाश अधूरी रहेगी। उजड़े दिनों की शुरुआत हो चुकी। तैयार रहो, काले बादल कब आ जायें। यह होना ही चाहिए। बुराई का नाश किसी भी कीमत पर होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो बुराई सिर उठायेगी, चटकारा लेकर अच्छाई का उपहास करेगी। बुरों को उनके किए के परिणामों को तुरंत दिया जाये जिससे ऐसे दुष्टों का संहार हो सके। जीवन को तुम्हारे जैसे लोग खराब बना देते हैं। केवल आवेश को हल समझते हैं। तड़पो और तड़पो। जियो, अब पता लग जाएगा कि किसी को मारकर कैसे जिया जाता है। सच से कब तक भागते रहोगे। दौड़ कितनी भी लंबी क्यों न हो वह अंजाम तक जरुर पहुंचती है। तुम दौड़े हो, बहुत चले हो। अब पिंजरे में हो। जैसे एक पंछी कभी जिसकी उन्मुक्तता उसे कुछ भी करने की इजाजत देती थी, आज उसके दिन बदल गये हैं। वह दया का पात्र बनकर रह गया है। कोठरी में बंद एक निर्जीव सी वस्तु जिसकी चीखें अभी उतनी नहीं, आगे और बढ़ेंगी। पंखों की फड़फड़ाहट किसी काम की नहीं।’
‘आज वक्त ने तुम्हें भिखारी सा बना दिया है। कुछ क्या, कुछ भी तो नहीं है तुम्हारे पास। कटोर फैलाते हो कोई भीख तक नहीं देता। भिखारी, बेसहारा, मोहताज कहीं के। सूखी टहनियांे को अपना दुखड़ा रो सकते हो। वे हरी थीं, तभी सुनती थीं। जमाना तुमसे बचने की कोशिश कर रहा है। एक हत्यारे से मेल कौन करना चाहेगा? कौन दो शब्द कहना चाहेगा? कौन यह चाहेगा कि इसे हम कभी जानते थे? कौन तुमसे बात करेगा? कोई नहीं। शांत, मृत दीवारों से मित्रता नहीं की जाती। क्या करोगे? दीवारों से सिर पटक कर कुछ हासिल नहीं होगा। माथे को लहूलुहान करके देखो, पीड़ा कितनी होगी। खून का एक कतरा बहने पर कष्ट कितना होता है यह जानोगे। हृदय की हालत क्या होती है, यह भी जानोगे। पर तुम क्यों जानोगे, तुम्हें दूसरे का दर्द मालूम ही नहीं। मुझे घृणा है तुमसे, तुम्हारे इरादों से।’
लेकिन नींद अब उतना दिक्कत नहीं करती। उसे वास्तविकता का मैं अहसास करा चुका। लेकिन उसे अभी भी संशय है। शायद जिसका हल न उसके पास है, न मेरे।
-harminder singh
‘बहुत पीड़ा होगी तुम्हें। शायद बहुत पछतावा भी। तुम पापी हो। पाप तो हो चुका। ईश्वर पर दोष देने से कोई लाभ होने वाला नहीं क्योंकि उसे धोखा दिया नहीं जा सकता। सभी इंसान स्वार्थी हैं, तुम भी। आवेश तन कर खड़ा हो गया तो उसके हो लिए। कैसी मानसिकता है तुम्हारी? मुझे तुम पर दया नहीं आयेगी। भला हत्यारे पर दया किस मोल की? तुम जैसे इंसान दूसरों की रोशनी छीनकर उन्हें अंधेरे में रहने को मजबूर करते हो। अंधेरा काला होता है। सबको भय लगता है जब जीवन का एक किनारा सिकुड़ जाए। तुम्हें दब कर जीना होगा, घुट कर जीना होगा। यह इंसाफ ही तो होगा। फल भुगतने की बारी सबकी आती है- कुछ देर से, कुछ जल्दी हलाल होते हैं। तुम्हारी तड़पन देखने लायक होगी। समझ चुके हो शायद अपने वक्त की कहानी का अंजाम। घिसट-घिसट कर जीवन चलेगा। इसकी रगड़ तुम्हें अंदर तक छील देगी और दर्द इतना अधिक होगा कि रो भी न सकोगे। पीड़ा का अहसास खुद करने पर वास्तविकता का पता चलता है। पीड़ा को करीब से देखे स्वत: ही कराह उठोगे। भीतर छिपे शैतान को अपना दर्द दूर करने के लिए अब पुकारो। क्यों, असहाय हो गए न। लोग अक्सर भूल कर जाते हैं कि उनका किया सब सही है। तुमने यही किया- भगवान खुद को मान बैठे। एक स्त्री को विधवा बनाया। उसके बच्चों से उनका प्यारा पिता छीन लिया और पत्नि से उसका पति। क्या मिला, आखिर हासिल क्या हुआ? ओरों को भी तड़पाया स्वयं भी कष्टों को समेटा। यह भुगतना पड़ेगा। अपने जब दूर हो जाते हैं तब कष्ट इतना भारी होता है कि दुख समेटे नहीं सिमटता। इसे दुखों के पहाड़ से बड़ा कहते हैं। जिंदगी छीनना आसान है, उसे निभाना कठिन। तुमने खुद को ऐसे हालातों का मोहताज बना दिया कि अब सिवाय दुखों के कुछ नहीं। जियोगे, जरुर जियोगे, तुम्हें जीना पड़ेगा। भला तुम्हारे जैसा इंसान इतनी आसानी से मर कैसे सकता है? देखोगे वह जो पहले नहीं देखा, सहोगे वह जो नहीं सहा। हर जगह गमों का जाला होगा जो जकड़ कर रखेगा तुम्हें। उजाला ढूंढते फिरोगे, हाथ नहीं आयेगा। सवेरे की तलाश अधूरी रहेगी। उजड़े दिनों की शुरुआत हो चुकी। तैयार रहो, काले बादल कब आ जायें। यह होना ही चाहिए। बुराई का नाश किसी भी कीमत पर होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होगा तो बुराई सिर उठायेगी, चटकारा लेकर अच्छाई का उपहास करेगी। बुरों को उनके किए के परिणामों को तुरंत दिया जाये जिससे ऐसे दुष्टों का संहार हो सके। जीवन को तुम्हारे जैसे लोग खराब बना देते हैं। केवल आवेश को हल समझते हैं। तड़पो और तड़पो। जियो, अब पता लग जाएगा कि किसी को मारकर कैसे जिया जाता है। सच से कब तक भागते रहोगे। दौड़ कितनी भी लंबी क्यों न हो वह अंजाम तक जरुर पहुंचती है। तुम दौड़े हो, बहुत चले हो। अब पिंजरे में हो। जैसे एक पंछी कभी जिसकी उन्मुक्तता उसे कुछ भी करने की इजाजत देती थी, आज उसके दिन बदल गये हैं। वह दया का पात्र बनकर रह गया है। कोठरी में बंद एक निर्जीव सी वस्तु जिसकी चीखें अभी उतनी नहीं, आगे और बढ़ेंगी। पंखों की फड़फड़ाहट किसी काम की नहीं।’
‘आज वक्त ने तुम्हें भिखारी सा बना दिया है। कुछ क्या, कुछ भी तो नहीं है तुम्हारे पास। कटोर फैलाते हो कोई भीख तक नहीं देता। भिखारी, बेसहारा, मोहताज कहीं के। सूखी टहनियांे को अपना दुखड़ा रो सकते हो। वे हरी थीं, तभी सुनती थीं। जमाना तुमसे बचने की कोशिश कर रहा है। एक हत्यारे से मेल कौन करना चाहेगा? कौन दो शब्द कहना चाहेगा? कौन यह चाहेगा कि इसे हम कभी जानते थे? कौन तुमसे बात करेगा? कोई नहीं। शांत, मृत दीवारों से मित्रता नहीं की जाती। क्या करोगे? दीवारों से सिर पटक कर कुछ हासिल नहीं होगा। माथे को लहूलुहान करके देखो, पीड़ा कितनी होगी। खून का एक कतरा बहने पर कष्ट कितना होता है यह जानोगे। हृदय की हालत क्या होती है, यह भी जानोगे। पर तुम क्यों जानोगे, तुम्हें दूसरे का दर्द मालूम ही नहीं। मुझे घृणा है तुमसे, तुम्हारे इरादों से।’
लेकिन नींद अब उतना दिक्कत नहीं करती। उसे वास्तविकता का मैं अहसास करा चुका। लेकिन उसे अभी भी संशय है। शायद जिसका हल न उसके पास है, न मेरे।
-harminder singh
Monday, September 28, 2009
काली छाया
काली छाया,
काला कोट,
ओढ़कर आया कौन?
आंचल में रहा समेट,
आया कौन?
खेल का अंत हुआ,
जीवन जितना जिया,
अट्ठहास कैसा है?
इंसान अंजान बैठा,
बन रही योजनांए,
धीरे-धीरे बढ़ रही,
काली छाया।
-harminder singh
काला कोट,
ओढ़कर आया कौन?
आंचल में रहा समेट,
आया कौन?
खेल का अंत हुआ,
जीवन जितना जिया,
अट्ठहास कैसा है?
इंसान अंजान बैठा,
बन रही योजनांए,
धीरे-धीरे बढ़ रही,
काली छाया।
-harminder singh
Tuesday, September 22, 2009
जीना पूरा नहीं, मरना अधूरा है
जीवन का खेल ऐसा है जिसमें दुश्वारियां हर मोड़ पर मौजूद हैं। इंसान उनसे लड़ने की तैयारी तमाम जिंदगी करता है, लड़ता है, और जीत-हार का खेल खत्म नहीं होता। नित नई चुनौतियां उत्पन्न होकर रास्तों को इतना संकरा बना देती हैं कि हम उनसे गुजरते हुए भी घबराते हैं। घबराता इंसान है। वह खुद को इतना कमजोर समझ लेता है कि उसे जीवन से हताशा होने लगती है। इसे ही जीवन का बोझ कहा जाता है। असहाय सा, सहमा सा, सब कुछ सहता हुआ चलता है जीवन। रुक-रुक कर चलने वाली गाड़ी का मुसाफिर थका हारा ही होता है। उसके रास्ते वही होते हैं- कहीं किस्मत का बहाना होता है, कहीं उसका इक्का पराजित हो चुका होता है- शह मात का पुराना खेल। वह घायल हारे हुए सिपाही की तरह तिलमिला उठता है। अपमान का डंक उसकी पीड़ा को कई गुना बढ़ाता है। जख्मों पर समय नमक का काम करता है। चीखें आती हैं, और बहुत दर्द होता है। आंसू आंखों को नम करते रहते हैं।
मैं वक्त की चोट खाया मुसाफिर बन चुका हूं। नाव मझधार में है, किनारा ढूंढ रहा हूं। किसी का कंधा नहीं जो उसपर सिर रख रो सकूं। हृदय की वेदना को बयान करने में शब्दों का अभाव है। मैं डूब भी तो नहीं सकता। ऐसे हालात हैं कि जीना पूरा नहीं और मरना अधूरा है।
-harminder singh
http://artgram.blogspot.com
http://schoolive.blogspot.com
मैं वक्त की चोट खाया मुसाफिर बन चुका हूं। नाव मझधार में है, किनारा ढूंढ रहा हूं। किसी का कंधा नहीं जो उसपर सिर रख रो सकूं। हृदय की वेदना को बयान करने में शब्दों का अभाव है। मैं डूब भी तो नहीं सकता। ऐसे हालात हैं कि जीना पूरा नहीं और मरना अधूरा है।
-harminder singh
http://artgram.blogspot.com
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Monday, September 21, 2009
विवशता के सिवा कुछ नहीं
नये जेलर के बारे में सुना है कि वह काफी क्रूर है। उसके लिए कैदी केवल कैदखाने में सड़ने की कोई वस्तु है। मैं सहम सा गया हूं। मुझे घबराहट हो रही है। पुराने साहब ने विदा लेते समय मुझसे कहा था,‘भरोसा रखो, सब ठीक होगा।’ उनकी पोस्टिंग ऐसी जगह हुई है जहां उनसे मेरा संपर्क नहीं हो सकेगा। खैर, उनका कहा याद है।
भावनाएं जहां मर रही होती हैं, जीना वहां बेकार है। ऐसे जीवन का मोल क्या? मुझे लगने लगा है कि मैं यही न रह जाऊं। लाजो और मेरा संबंध शायद अब टूट सा गया है। उसका कहीं पता नहीं चला। मैं पता लगवाने के लिए जेल के कई बड़े लोगों के सामने गिड़गिड़ाया। किसी ने उसपर गौर नहीं किया। पिछले जेलर ने इतना बताया था कि पता कर रहे हैं। फिर कुछ समय बाद उनका तबादला हो गया। भला मेरे बीवी-बच्चों ने किसी का क्या बिगाड़ा है? भगवान उनका दुख मुझे दे दे। परिवार का स्मरण होने पर मैं तिलमिला जाता हूं। इंसान को अपनों की याद सबसे अधिक झकझोरती है। हम खुद को विवश महसूस करने लगते हैं। साथ जो लंबा हो, यदि बीच में छूट जाए तो दर्द बहुत होता है, तब दिल रोता है। मेरा हृदय भी आम इंसान वाला ही है। मैं किसी से कुछ कहना नहीं चाहता अब। बहुत हो गयी दुनियादारी की बातें। मुझे लगता है मेरा जीवन असमंजस के सिवा कुछ नहीं है। यह सब हालात के कारण उपजी स्थिति है। हालात आपके बस से बाहर की चीज हैं। ये व्यक्ति को कभी कैसा तथा कभी कैसा बना देते हैं। अपना जीवन यूं ही हालातों के हाथ में छोड़ा भी तो नहीं जाता। मैं ऐसा करने वाला नहीं था। पर क्या करुं करना पड़ रहा है। स्थिति बिगड़ते देर नहीं लगती। बनते-बनते बहुत कुछ बिगड़ जाता है और हम एक निहत्थे की तरह युद्ध भूमि में खड़े रह जाते हैं। वहां कोई अपना नहीं होता और पराजय की हंसी हमें भीतर तक चीरती जाती है।
-harminder singh
भावनाएं जहां मर रही होती हैं, जीना वहां बेकार है। ऐसे जीवन का मोल क्या? मुझे लगने लगा है कि मैं यही न रह जाऊं। लाजो और मेरा संबंध शायद अब टूट सा गया है। उसका कहीं पता नहीं चला। मैं पता लगवाने के लिए जेल के कई बड़े लोगों के सामने गिड़गिड़ाया। किसी ने उसपर गौर नहीं किया। पिछले जेलर ने इतना बताया था कि पता कर रहे हैं। फिर कुछ समय बाद उनका तबादला हो गया। भला मेरे बीवी-बच्चों ने किसी का क्या बिगाड़ा है? भगवान उनका दुख मुझे दे दे। परिवार का स्मरण होने पर मैं तिलमिला जाता हूं। इंसान को अपनों की याद सबसे अधिक झकझोरती है। हम खुद को विवश महसूस करने लगते हैं। साथ जो लंबा हो, यदि बीच में छूट जाए तो दर्द बहुत होता है, तब दिल रोता है। मेरा हृदय भी आम इंसान वाला ही है। मैं किसी से कुछ कहना नहीं चाहता अब। बहुत हो गयी दुनियादारी की बातें। मुझे लगता है मेरा जीवन असमंजस के सिवा कुछ नहीं है। यह सब हालात के कारण उपजी स्थिति है। हालात आपके बस से बाहर की चीज हैं। ये व्यक्ति को कभी कैसा तथा कभी कैसा बना देते हैं। अपना जीवन यूं ही हालातों के हाथ में छोड़ा भी तो नहीं जाता। मैं ऐसा करने वाला नहीं था। पर क्या करुं करना पड़ रहा है। स्थिति बिगड़ते देर नहीं लगती। बनते-बनते बहुत कुछ बिगड़ जाता है और हम एक निहत्थे की तरह युद्ध भूमि में खड़े रह जाते हैं। वहां कोई अपना नहीं होता और पराजय की हंसी हमें भीतर तक चीरती जाती है।
-harminder singh
Sunday, September 20, 2009
कितने अहम हैं कुछ लोग
‘कुछ लोग कितने अहम होते हैं। हमारे लिए उनका बहुत महत्व होता है। शायद हम उनकी वजह से खुद को कई मायनों में बदल देते हैं।’ बूढ़ी काकी ने कहा।
‘वक्त आने पर हमें आभास होता है कि हम क्या हासिल कर चुके। हमें उनका शुक्रिया करना चाहिए जिनसे हमारा जीवन प्रभावित होता है। बहुत कुछ पा लेते हैं इंसान इंसानों से। कई बार ऐसे लोगों से सामना हो जाता है जो पूरे जीवन को बदल देते हैं। ये वे होते हैं जिनपर भरोसा हम हद से ज्यादा कर लेते हैं। हम इंसानों में यह खासियत होती है कि जहां हमें किनारा दिखाई पड़ता है, हम उस ओर रुख कर देते हैं। जिनकी जिंदगी में दुख अधिक होता है, उन्हें सुख की तलाश रहती है। वे प्यार की मामूली छींट से खुद को पूरी तरह भिगो देते हैं।’ इतना कहकर काकी चुप हो गयी।
काकी ने मेरे बालों को सहलाया। उसके हाथ जर्जर जरुर हैं, लेकिन उसका स्पर्श पाकर अलग एहसास होता है। वृद्धों के हाथों में गर्माहट होती है जो हमें यह बताती है कि हमारा जीवन उनसे जुड़कर चलता है। उनकी नजदीकी को यदि हम समझें तो वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। जुड़ाव कभी कम नहीं होता। समय बीत जाता है, लगाव बढ़ता जाता है।
मैंने कुछ गंभीर होकर काकी से कहा,‘मैं उन लोगों को समझ नहीं पाता जो मुझसे लगाव रखते हैं। मुझे लगता है कि मैं उलझ गया हूं। मुझे अपनापन महसूस होता है। उनकी कमी खलती है जब वे हमें छोड़ कर चले जाते हैं।’
काकी थोड़ा मुस्कराई और बोली,‘हां, गम तो होता है दूसरों से बिछुड़ने का। हम भी कई मौकों पर नादान हो जाते हैं, और अंजाने में लगाव कर बैठते हैं। फिर मायूसी हमें घेरती है, हमारा पीछा करती है। हम उससे बचने की तमाम कोशिशें करते हैं। आखिरकार समय ही होता है जो मरहम का काम करता है।’
‘मुझे इतना पता है कि मैं खुद को खास समझती हूं। मेरे लिए वे भी खास हैं जो मुझे समझते हैं। तुम्हें नहीं लगता कि हमारी बहुत-सी चीजें उनसे जुड़ जाती हैं। एक की खासियत दूसरे को प्रभावित करती है।’
‘हम कई बार दूसरों से ज्यादा उम्मीद कर बैठते हैं। इसका कारण हमारा विश्वास होता है। और विश्वास उनपर किया जाता है जिन्हें हम उस लायक समझते हैं। कई बार ऐसा होता है कि हम विश्वास करना छोड़ देते हैं क्योंकि हम धोखा खा चुके होते हैं। धोखा उस तल में इंसान को छोड़ देता है जहां अक्सर छटपटाहट के पल उसे घेर लेते हैं। भरोसा करो, मगर ध्यान से।’
जीवन की परतों को काकी बड़ी चतुराई से हटाती है। ‘उसे इसमें महारथ हासिल है’- यह कहना अतिश्योक्ति नहीं। अनुभव इंसान को असली जीवन-दर्शन कराता है। मैं कितना छोटा, काकी कितनी बुजुर्ग। उम्र का फासला कितना ही क्यों न हो, बात विचारों के मेल से बनती है।
-harminder singh
‘वक्त आने पर हमें आभास होता है कि हम क्या हासिल कर चुके। हमें उनका शुक्रिया करना चाहिए जिनसे हमारा जीवन प्रभावित होता है। बहुत कुछ पा लेते हैं इंसान इंसानों से। कई बार ऐसे लोगों से सामना हो जाता है जो पूरे जीवन को बदल देते हैं। ये वे होते हैं जिनपर भरोसा हम हद से ज्यादा कर लेते हैं। हम इंसानों में यह खासियत होती है कि जहां हमें किनारा दिखाई पड़ता है, हम उस ओर रुख कर देते हैं। जिनकी जिंदगी में दुख अधिक होता है, उन्हें सुख की तलाश रहती है। वे प्यार की मामूली छींट से खुद को पूरी तरह भिगो देते हैं।’ इतना कहकर काकी चुप हो गयी।
काकी ने मेरे बालों को सहलाया। उसके हाथ जर्जर जरुर हैं, लेकिन उसका स्पर्श पाकर अलग एहसास होता है। वृद्धों के हाथों में गर्माहट होती है जो हमें यह बताती है कि हमारा जीवन उनसे जुड़कर चलता है। उनकी नजदीकी को यदि हम समझें तो वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। जुड़ाव कभी कम नहीं होता। समय बीत जाता है, लगाव बढ़ता जाता है।
मैंने कुछ गंभीर होकर काकी से कहा,‘मैं उन लोगों को समझ नहीं पाता जो मुझसे लगाव रखते हैं। मुझे लगता है कि मैं उलझ गया हूं। मुझे अपनापन महसूस होता है। उनकी कमी खलती है जब वे हमें छोड़ कर चले जाते हैं।’
काकी थोड़ा मुस्कराई और बोली,‘हां, गम तो होता है दूसरों से बिछुड़ने का। हम भी कई मौकों पर नादान हो जाते हैं, और अंजाने में लगाव कर बैठते हैं। फिर मायूसी हमें घेरती है, हमारा पीछा करती है। हम उससे बचने की तमाम कोशिशें करते हैं। आखिरकार समय ही होता है जो मरहम का काम करता है।’
‘मुझे इतना पता है कि मैं खुद को खास समझती हूं। मेरे लिए वे भी खास हैं जो मुझे समझते हैं। तुम्हें नहीं लगता कि हमारी बहुत-सी चीजें उनसे जुड़ जाती हैं। एक की खासियत दूसरे को प्रभावित करती है।’
‘हम कई बार दूसरों से ज्यादा उम्मीद कर बैठते हैं। इसका कारण हमारा विश्वास होता है। और विश्वास उनपर किया जाता है जिन्हें हम उस लायक समझते हैं। कई बार ऐसा होता है कि हम विश्वास करना छोड़ देते हैं क्योंकि हम धोखा खा चुके होते हैं। धोखा उस तल में इंसान को छोड़ देता है जहां अक्सर छटपटाहट के पल उसे घेर लेते हैं। भरोसा करो, मगर ध्यान से।’
जीवन की परतों को काकी बड़ी चतुराई से हटाती है। ‘उसे इसमें महारथ हासिल है’- यह कहना अतिश्योक्ति नहीं। अनुभव इंसान को असली जीवन-दर्शन कराता है। मैं कितना छोटा, काकी कितनी बुजुर्ग। उम्र का फासला कितना ही क्यों न हो, बात विचारों के मेल से बनती है।
-harminder singh
Thursday, September 17, 2009
यकीन मानिए कैदी भी इंसान होते हैं
रात को सोते समय करवट लेता हूं तो आजकल, आराम नहीं मिलता। कमर में कई बार दर्द होता है। यह सब समय की देन है जिसे सिर्फ भुगता जा सकता है। समय के आगे अच्छे-अच्छे और बड़े-बड़े सूरमा तक पस्त होकर चले गये। समय ने सबको हरा दिया, चाहें इसके लिए उसे कुछ भी करना पड़ा। जो बन पड़ा किया और जिस तरह बन पड़ा किया। किसी भी हद तक चाहें जाना पड़ा वह गया, लेकिन अहंकार, दंभ आदि का नाश करने का जैसे उसने व्रत ले रखा है। उसका चाबुक हर किसी पर पड़ता है और पंजा शक्तिशाली नहीं, महाशक्तिशाली है। इसके आगे भी यदि उसकी ताकत का बखान किया जाए वह कम है। उसकी शक्ति का अंदाजा लगाया नहीं जा सकता। इसका मतलब यह है कि समय से लड़ना बेमानी है। इंसान वक्त की ठोकरों से जूझता आगे बढ़ता जाता है, और फिर समय उससे कहता है लड़ते रहो, चलते रहो। दौड़-धूप की जाती है जब कोई मुकाम हासिल करना हो। हर किसी चीज को पकड़ा नहीं जा सकता। अधिक तेज चलती हवा काफी क्षति पहुंचा सकती है। कई बार नुक्सान इतना अधिक होता है कि हम टूट जाते हैं। तब अंधकार ही अंधकार नजर आता है। सूरज की एक किरण की रोशनी तब पता नहीं कितना उजाला फैला देती है, हम कह नहीं सकते। वह वक्त कोहरे सा धुंधला भी हो सकता है।
विचारों को मैं इकट~ठा नहीं कर सकता था। मेरा हौंसला टूट रहा था। अब मैं अपने आप को लिखता हूं तो संतोष मिलता है। यह मन को उतना दुखी नहीं करता, समझाता रहता है। होना भी यह भी चाहिए कि जब आप का मन विचारों की लड़ाई लड़ रहा हो तब उसकी वेदना को अक्षरों में उकेर दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। यह कुछ पल का सुकून होगा, लेकिन इसका भी महत्व होगा। मुझे किसी ने नहीं कहा कि मैं अपनी सच्चाई लिखूं। यह मेरी सच्चाई इसलिए है क्योंकि मन की सच्चाई है। विचारों की लड़ाई बाहर से शांत होता है, मगर अंदर की उथलपुथल बड़ी अजीब होती है। मेरे भीतर बहुत कुछ क्या, कुछ भी शांत नहीं है। कभी ऐसा हो जाता हूं, कभी वैसा। पता नहीं कैसा हो जाता हूं और क्यों हो जाता हूं? यह भी एक सच ही तो है। हम यह तो मानते हैं कि सच कभी छिपता नहीं। मैं जैसा सोचता हूं, वैसा लिखता हूं। मेरे आसपास माहौल कुछ अच्छा नहीं है, फिर भी मैं लिखने की आदत को छोड़ने वाला नहीं। एक यहीं तो मैं पूरी शांति महसूस करता हूं।
मुझे अब लोग उतने भले नहीं लगते। उनकी बातों का मुझे डर नहीं लगता। शायद वक्त के साथ नजरिया पहले सा नहीं रहा। लोगों की मुस्कराहट उतनी भली नहीं लगती। यकीन मानिए कैदी भी इंसान होते हैं। जमाने ने उनको मोड़ दिया या उन्होंने जमाने को मोड़ने की कोशिश की, यह मुझे मालूम नहीं, लेकिन उनकी रगें भी रक्त से भरी हैं जिसे बहने पर वे भी दर्द महसूस करते हैं। हां, रक्त बहाने वाले यहां कई हैं जो शायद उमz बीतने पर ही शांति से बैठें। उन्हें ईश्वर की मर्जी थी कि बुरे काम करो, बुरा भुगतो। यह ठीक नहीं है जब आप अच्छे काम कर भी बुरों की जमात में शरीक किये जायें। इसके पीछे समय का हाथ है। वह जो चाहेगा, वही होगा। तभी वह थमता नहीं, निरंतर बहता है।
आशांए धूमिल पड़ जाती हैं। ऐसा मुझे लग रहा है। मुझे एहसास हो रहा है कि मेरी जिंदगी इस कोने में ही बीत जाएगी। जेलर साहब का तबादला हो चुका। नये जेलर आये हैं। उन्हें मैं नहीं जानता। पहले जेलर ने मुझे एक आस बंधा दी थी, लेकिन ऊपर वाले को मंजूर नहीं, शायद बिल्कुल नहीं। वह यही चाहता है कि मैं दर्द से कराहता रहूं। इसी तरह तड़पता रहूं। बेबसी में दिन काटता रहूं और यादों में सिमट कर सुबकता रहूं। यह सब कितना दुख पहुंचाता है, बहुत, बहुत ही पीड़ायदायक है यह वक्त। बस से बाहर की चीजों पर आंसू बहाना पागलपन है। मैं पागल थोड़े ही हूं जो उन बातों पर व्यथित होता जाऊं जिनका निदान मेरे पास नहीं।
-harminder singh
एक कैदी की डायरी
विचारों को मैं इकट~ठा नहीं कर सकता था। मेरा हौंसला टूट रहा था। अब मैं अपने आप को लिखता हूं तो संतोष मिलता है। यह मन को उतना दुखी नहीं करता, समझाता रहता है। होना भी यह भी चाहिए कि जब आप का मन विचारों की लड़ाई लड़ रहा हो तब उसकी वेदना को अक्षरों में उकेर दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। यह कुछ पल का सुकून होगा, लेकिन इसका भी महत्व होगा। मुझे किसी ने नहीं कहा कि मैं अपनी सच्चाई लिखूं। यह मेरी सच्चाई इसलिए है क्योंकि मन की सच्चाई है। विचारों की लड़ाई बाहर से शांत होता है, मगर अंदर की उथलपुथल बड़ी अजीब होती है। मेरे भीतर बहुत कुछ क्या, कुछ भी शांत नहीं है। कभी ऐसा हो जाता हूं, कभी वैसा। पता नहीं कैसा हो जाता हूं और क्यों हो जाता हूं? यह भी एक सच ही तो है। हम यह तो मानते हैं कि सच कभी छिपता नहीं। मैं जैसा सोचता हूं, वैसा लिखता हूं। मेरे आसपास माहौल कुछ अच्छा नहीं है, फिर भी मैं लिखने की आदत को छोड़ने वाला नहीं। एक यहीं तो मैं पूरी शांति महसूस करता हूं।
मुझे अब लोग उतने भले नहीं लगते। उनकी बातों का मुझे डर नहीं लगता। शायद वक्त के साथ नजरिया पहले सा नहीं रहा। लोगों की मुस्कराहट उतनी भली नहीं लगती। यकीन मानिए कैदी भी इंसान होते हैं। जमाने ने उनको मोड़ दिया या उन्होंने जमाने को मोड़ने की कोशिश की, यह मुझे मालूम नहीं, लेकिन उनकी रगें भी रक्त से भरी हैं जिसे बहने पर वे भी दर्द महसूस करते हैं। हां, रक्त बहाने वाले यहां कई हैं जो शायद उमz बीतने पर ही शांति से बैठें। उन्हें ईश्वर की मर्जी थी कि बुरे काम करो, बुरा भुगतो। यह ठीक नहीं है जब आप अच्छे काम कर भी बुरों की जमात में शरीक किये जायें। इसके पीछे समय का हाथ है। वह जो चाहेगा, वही होगा। तभी वह थमता नहीं, निरंतर बहता है।
आशांए धूमिल पड़ जाती हैं। ऐसा मुझे लग रहा है। मुझे एहसास हो रहा है कि मेरी जिंदगी इस कोने में ही बीत जाएगी। जेलर साहब का तबादला हो चुका। नये जेलर आये हैं। उन्हें मैं नहीं जानता। पहले जेलर ने मुझे एक आस बंधा दी थी, लेकिन ऊपर वाले को मंजूर नहीं, शायद बिल्कुल नहीं। वह यही चाहता है कि मैं दर्द से कराहता रहूं। इसी तरह तड़पता रहूं। बेबसी में दिन काटता रहूं और यादों में सिमट कर सुबकता रहूं। यह सब कितना दुख पहुंचाता है, बहुत, बहुत ही पीड़ायदायक है यह वक्त। बस से बाहर की चीजों पर आंसू बहाना पागलपन है। मैं पागल थोड़े ही हूं जो उन बातों पर व्यथित होता जाऊं जिनका निदान मेरे पास नहीं।
-harminder singh
एक कैदी की डायरी
Sunday, September 13, 2009
यूं ही चलते-चलते
सवेरे के बाद शाम हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
आराम के बाद थकान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
.......................................
.......................................
शरीर कह रहा अब बस,
बहुत हुआ खेल,
जवानी के सुखों का भाग,
बुढ़ापा रहा झेल,
.....................................
.....................................
बुझा चेहरा मंद मुस्कान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
सुनहरी कभी, जिंदगी वीरान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
....................................
....................................
मैं उदास हूं, सिर चौखट से लगाए,
उजाला खो गया,
चादर ओढ़ जर्जरता की,
इंसान सो गया,
.................................
.................................
कभी बहती थी धारा, आज सूनसान हुई,
यूं ही चलते-चलते,
देख बुढ़ापा, जवानी हैरान हुई,
यूं ही चलते-चलते।
-harminder singh
यूं ही चलते-चलते,
आराम के बाद थकान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
.......................................
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शरीर कह रहा अब बस,
बहुत हुआ खेल,
जवानी के सुखों का भाग,
बुढ़ापा रहा झेल,
.....................................
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बुझा चेहरा मंद मुस्कान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
सुनहरी कभी, जिंदगी वीरान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
....................................
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मैं उदास हूं, सिर चौखट से लगाए,
उजाला खो गया,
चादर ओढ़ जर्जरता की,
इंसान सो गया,
.................................
.................................
कभी बहती थी धारा, आज सूनसान हुई,
यूं ही चलते-चलते,
देख बुढ़ापा, जवानी हैरान हुई,
यूं ही चलते-चलते।
-harminder singh
Friday, September 11, 2009
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मैं खड़ा रहा शांत,
कमर झुकाए,
सहारा लाठी का लिए,
मेरी तरह कमजोर,
पर मैं मूक नहीं,
कहता हूं जरुर,
सुनने वाला कौन भला,
मूक बनना पड़ा,
विवशता और लाचारी,
मुझसे कह रही-
‘नियति है यह,
बुढ़ापा सामने खड़ा है,
इसे अपना लो।’
-harminder singh
कमर झुकाए,
सहारा लाठी का लिए,
मेरी तरह कमजोर,
पर मैं मूक नहीं,
कहता हूं जरुर,
सुनने वाला कौन भला,
मूक बनना पड़ा,
विवशता और लाचारी,
मुझसे कह रही-
‘नियति है यह,
बुढ़ापा सामने खड़ा है,
इसे अपना लो।’
-harminder singh
Saturday, September 5, 2009
गुरु ऐसे ही होते हैं
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें आप भूल नहीं सकते। उनके आप आजीवन आभारी रहते हैं। उनसे आपने बहुत कुछ सीखा होता है। हम उनका धन्यवाद पहले करना चाहेंगे जिन्होंने हमें शिक्षा दी, बाद में अपने माता-पिता का। एक ने हमें जन्म दिया-बहुत बड़ा उपकार किया। गुरुओं ने हमें जीने की कला सिखाई-यह सबसे बड़ा उपकार है।
हमने शरारत की, उन्होंने हमें डांटा भी। हम अगर रोये, उन्होंने हंसाया भी। हम लड़खड़ाए, उन्होंने सहारा दिया। अपनी उंगली दे आगे बढ़ाया, हमारा हौंसला गिरने न दिया। यह उनका प्रेम है और कभी न खत्म होने वाला- निरंतर प्रेम।
चुपचाप वे रहे, खूब बोले भी, लेकिन नजर बराबर हम पर रही। घर से स्कूल का सफर हमने तय किया। जीवन के सफर के बारे में हमारे गुरुओं ने हमें बताया।
बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनों से बड़ों का हमेशा अपमान किया। इसमें उनका आनंद रहा। वे भूल गये कि वे क्या कर रहे हैं। पहले अपने माता-पिता से शुरुआत की। घर में कोहराम मचाया। स्कूल में गये तो वहां अपने गुरुओं को सम्मान नहीं दिया। ये वे लोग हैं जो सम्मान का मतलब ही नहीं जानते। यदि जानते तो ऐसा कभी नहीं करते।
मैं अपने गुरुओं को आज तक नहीं भूला। मुझे लगता है कि उनकी बताई बातों को हम खोते जा रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने हमें कभी कुछ गलत बताया हो।
रंजना दूबे को मैंने कम हंसते हुये देखा, जबकि विजया डोगरा जी का मुस्कराता चेहरा मुझे आज भी याद है। दोनों का अपना तरीका था, उनके विषय अलग-अलग थे, लेकिन मकसद एक था और आज भी ये शिक्षिकायें अपने कार्य में तल्लीन हैं।
डोगरा जी कहती थीं कि वे हम सभी को जानती हैं। उनका मतलब था कि वे हमारी अच्छाईयों-बुराईयों को परख चुकी थीं। ऐसे लोग आप पर असर डालते हैं। बच्चों का मस्तिष्क अधिक संवेदनशील होता है। उसे हल्की सी आहट भी चैंका देती है। उनका च’मा शायद आज भी उनके साथ है जिसकी नजर हर बारीकी को परखती है, और मुझे लगता है कि वे बच्चों को एक मां का प्यार भी करती हैं, मुझे तब ऐसा महसूस हुआ था। चेहरे पर सख्ती के भाव आ जरुर जाते हैं, लेकिन वे वैसी बिल्कुल भी नहीं थीं, अब बदल गयी हों ऐसा मैं कह नहीं सकता।
डोगरा जी हमारी क्लास टीचर रहीं, कई साल तक। उनके सानिध्य में सभी बच्चों को अपनापन महसूस हुआ। जिन लोगों से आप खुश रहते हैं, जो आपको दूसरों की अपेक्षा बेहतर सकते हैं, उनसे एक लगाव सा हो जाता है। वक्त कितना भी बीत जाये, डोर कमजोर नहीं पड़ती। मुझे नहीं लगता स्कूल से विदा लेकर गये बच्चे उन्हें भूले होंगे। मैं यह भी उम्मीद करता हूं कि वे हमें भूली नहीं होंगी।
वे हमें गणित पढ़ाती थीं। मैं कितना पढ़ता था, यह वह अच्छी तरह जानती हैं। एक बात मैं बताना चाहूंगा कि मैथ से मैं कई बार नहीं, बहुत बार घबरा जाता था, लेकिन कोशिश जारी रहती थी। सबसे अधिक मेहनत मैंने गणित में ही की, लेकिन उतना अधिक हासिल नहीं हो सका। उनकी भाषा साधारण थी। उनकी कक्षा में बोर होने का कोई मतलब ही नहीं था। मेरे हिसाब से गणित की बारीकियों को उनसे बेहतर हमें कोई समझा नहीं सकता था क्योंकि धर्मेन्द्र चतुर्वेदी से बच्चे खौफ खाते थे। वे दूसरे सेक्शन में मैथ पढ़ाते थे।
विजया डोगरा बच्चों की मानसिकता को समझती थीं, इसलिये उनके साथ हम सहज थे। जितने आप बाहर से नरम होते हैं, कई बार गुस्सा आने पर वह काफी बड़ा लगता है। उन्हें गुस्सा कम आता था। एक-आध बार उन्होंने आवेश में आकर गलती करने वालों की काफी खिंचाई की लेकिन वे पिघल भी जल्दी जाती थीं। यह उनका प्रेम था जैसा एक मां का अपने बच्चों से होता है- सख्त भी और नरम भी।
-harminder singh
हमने शरारत की, उन्होंने हमें डांटा भी। हम अगर रोये, उन्होंने हंसाया भी। हम लड़खड़ाए, उन्होंने सहारा दिया। अपनी उंगली दे आगे बढ़ाया, हमारा हौंसला गिरने न दिया। यह उनका प्रेम है और कभी न खत्म होने वाला- निरंतर प्रेम।
चुपचाप वे रहे, खूब बोले भी, लेकिन नजर बराबर हम पर रही। घर से स्कूल का सफर हमने तय किया। जीवन के सफर के बारे में हमारे गुरुओं ने हमें बताया।
बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनों से बड़ों का हमेशा अपमान किया। इसमें उनका आनंद रहा। वे भूल गये कि वे क्या कर रहे हैं। पहले अपने माता-पिता से शुरुआत की। घर में कोहराम मचाया। स्कूल में गये तो वहां अपने गुरुओं को सम्मान नहीं दिया। ये वे लोग हैं जो सम्मान का मतलब ही नहीं जानते। यदि जानते तो ऐसा कभी नहीं करते।
मैं अपने गुरुओं को आज तक नहीं भूला। मुझे लगता है कि उनकी बताई बातों को हम खोते जा रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि उन्होंने हमें कभी कुछ गलत बताया हो।
रंजना दूबे को मैंने कम हंसते हुये देखा, जबकि विजया डोगरा जी का मुस्कराता चेहरा मुझे आज भी याद है। दोनों का अपना तरीका था, उनके विषय अलग-अलग थे, लेकिन मकसद एक था और आज भी ये शिक्षिकायें अपने कार्य में तल्लीन हैं।
डोगरा जी कहती थीं कि वे हम सभी को जानती हैं। उनका मतलब था कि वे हमारी अच्छाईयों-बुराईयों को परख चुकी थीं। ऐसे लोग आप पर असर डालते हैं। बच्चों का मस्तिष्क अधिक संवेदनशील होता है। उसे हल्की सी आहट भी चैंका देती है। उनका च’मा शायद आज भी उनके साथ है जिसकी नजर हर बारीकी को परखती है, और मुझे लगता है कि वे बच्चों को एक मां का प्यार भी करती हैं, मुझे तब ऐसा महसूस हुआ था। चेहरे पर सख्ती के भाव आ जरुर जाते हैं, लेकिन वे वैसी बिल्कुल भी नहीं थीं, अब बदल गयी हों ऐसा मैं कह नहीं सकता।
डोगरा जी हमारी क्लास टीचर रहीं, कई साल तक। उनके सानिध्य में सभी बच्चों को अपनापन महसूस हुआ। जिन लोगों से आप खुश रहते हैं, जो आपको दूसरों की अपेक्षा बेहतर सकते हैं, उनसे एक लगाव सा हो जाता है। वक्त कितना भी बीत जाये, डोर कमजोर नहीं पड़ती। मुझे नहीं लगता स्कूल से विदा लेकर गये बच्चे उन्हें भूले होंगे। मैं यह भी उम्मीद करता हूं कि वे हमें भूली नहीं होंगी।
वे हमें गणित पढ़ाती थीं। मैं कितना पढ़ता था, यह वह अच्छी तरह जानती हैं। एक बात मैं बताना चाहूंगा कि मैथ से मैं कई बार नहीं, बहुत बार घबरा जाता था, लेकिन कोशिश जारी रहती थी। सबसे अधिक मेहनत मैंने गणित में ही की, लेकिन उतना अधिक हासिल नहीं हो सका। उनकी भाषा साधारण थी। उनकी कक्षा में बोर होने का कोई मतलब ही नहीं था। मेरे हिसाब से गणित की बारीकियों को उनसे बेहतर हमें कोई समझा नहीं सकता था क्योंकि धर्मेन्द्र चतुर्वेदी से बच्चे खौफ खाते थे। वे दूसरे सेक्शन में मैथ पढ़ाते थे।
विजया डोगरा बच्चों की मानसिकता को समझती थीं, इसलिये उनके साथ हम सहज थे। जितने आप बाहर से नरम होते हैं, कई बार गुस्सा आने पर वह काफी बड़ा लगता है। उन्हें गुस्सा कम आता था। एक-आध बार उन्होंने आवेश में आकर गलती करने वालों की काफी खिंचाई की लेकिन वे पिघल भी जल्दी जाती थीं। यह उनका प्रेम था जैसा एक मां का अपने बच्चों से होता है- सख्त भी और नरम भी।
-harminder singh
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