बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Saturday, January 31, 2009

मां का दिल ऐसा ही होता है

मेरी मां को मेरी फिक्र रहती है। हम कहते हैं,‘माओं के दिल ही ऐसे होते हैं।’ एक मां को चाहिये ही क्या, उसके बच्चे सुखी रहें और परिवार भरा-पूरा रहे। हम अपनों की चिंता शायद न भी करते हों, लेकिन उन्हें पल-पल हमारी चिंता रहती है।

मां की बात में सुनता हूं, पर मुस्करा जाता हूं। दिन भर किताबें, अखबार, अपने विचारों को घंटों कम्प्यूटर में फीड करना, बगैरह-बगैरह। शाम को करीब एक-दो घंटा कुछ न कुछ लिखना। ऐसा करने से मेरी भावनाएं अक्षरों के बहाने कोरे कागजों पर उकरती रहती हैं। इससे पैन से लिखने की कला को भी आप अपने साथ संजोये रखते हैं। हाल ही मैं दो नई कविताओं की रचना की है। कुछ कहानियां धीरे-धीरे लिख रहा हूं। खुद को व्यस्त रखने में एक अलग तरह का आनंद है। किताबों में खोना चाहता हूं, लेकिन ऐसा होता नहीं। एक बच्चे ने मुझे ‘क्रेजी’ भी कहा था। उसे लगता है जितनी किताबों के ढेर मैंने अपने घर के कोने में सजा रखे हैं, शायद वे हद से ज्यादा है। हाल ही मैं कुछ नई किताबें लाया हूं, जिनमें कई नये और कुछ पुराने रचनाकार हैं। किताबें हमारा मार्गदर्शन सबसे अच्छी तरह करती हैं।

अधिक व्यस्तता आपको थकान कर सकती है। दिमाग थकने पर हमें नुक्सान हो सकता है। हाल ही में मैं चोट खा गया। मुझे ‘बैंड-एड’ लगानी पड़ी। माथे पर मामूली सूजन आयी। हुआ यह था कि मुझे नींद आनी शुरु हो गई थी। मैं अक्सर मध्यरात्रि के आसपास ही सोता हूं। मुझे याद है मैं अद्र्धनिंद्रा की अवस्था में दरवाजे के बाहर गया था। अचानक मुझे लगा कि मेरी आंख अब लगी। मेरा मन बेचैन सा हो गया, हृदय की कंपन इतनी तेज थी कि मैं सहम गया। फिर मुझे लगा कि मैं सपने में हूं। मैं जमीन से उठा। मैं सोच में पड़ गया कि मैं गिरा कैसे? थोड़ा आगे चला तो पाया कि मेरे पैर मैं एक ही चप्पल है। पीछे देखा तो चप्पल वहां पड़ी थी। मुंह में लगा कि मिट्टी है। चेहरे पर हाथ फेरा तो पाया कि मैं चेहरे के बल गिरा था। यह सब इतनी जल्दी हुआ था कि मैं आज भी हैरान हूं कि मैं गिरा कैसे?

मैंने सुना था कि लोग बेहोश हो जाते हैं या असंतुलन में गिर जाते हैं, लेकिन मैंने उस स्थिति में खुद को पाया तो अजीब लगा। एक बार स्कूल में सुबह की प्रार्थना के समय धूप में मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया और पसीने से लथपथ हो गया। तब मैंने खुद को संभाल लिया था।

मां को इसपर टेंशन हो गयी। उन्होंने हैरानी में कहा कि कहीं कुछ ऐसा-वैसा न हो। मैं समझ गया। मैं एक बात बताना चाहूंगा कि हमारे परिवार में अंधविश्वास के बारे में बात करते हैं तो बुरा माना जाता है। मैं स्वयं कहता हूं कि जो लोग अपना भला नहीं कर सकते, वे दूसरों को नुक्सान पहुंचाने की युक्तियां सुझाते रहते हैं या फिर दूसरों पर टोटका करवाते रहते हैं। यही कारण है कि मैं ताबीज जैसे चीज को हमेशा नकाराता हूं। मुझे दो तरह के लोगों से नफरत महसूस होती है-एक मांसाहारी और दूसरे अंधविश्वासी। खैर, मां की सोच कुछ समय के लिये अंधविश्वासी मान सकता हूं क्योंकि उस समय वह काफी परेशान थी। हम जानते हैं जितना दुख हमें होता है, उससे कई गुना दुखी वे होती हैं जो हमसे स्नेह रखते हैं। परेशानियां हमें इधर-उधर की बातें काफी कुछ सोचने पर विवश करती हैं। मैंने मां को समझाया कि इतनी मामूली चोट के लिये क्यों फिक्र करती हो, मुझे कुछ नहीं हुआ है।

दुनिया भर की मांओं को लगता है कि उनसे अधिक प्यार अपने बच्चों को कोई नहीं कर सकता। यह सही ही है। वे अपने बच्चों के लिये कुछ भी कर सकती हैं।

मां और बेटीः मैंने एक मां को उसकी बेटी के साथ टहलते देखा है। वे दोनों अक्सर धूप निकलने के समय घूमती देखी जा सकती हैं। मां के हाथ में उसकी शादी-शुदा बेटी का हाथ होता है। कैसा दृश्य होता है जब एक मां अपनी बेटी को सहारा दे कर चलाती है जो चलने-फिरने-बोलने में लाचारी महसूस करती है। उस लड़की का पति उसे अपने घर नहीं ले जाना चाहता क्योंकि वह एक लाचार को अपनी पत्नि नहीं बनाना चाहता। जबकि शादी के समय वह बिल्कुल स्वस्थ थी। उसके मां-बाप ने उसकी शादी में दिल खोल कर जो उनसे बन पड़ा किया। पता नहीं क्या हुआ कि शादी के कुछ दिन बाद ही लड़की का शरीर सुन्न सा हो गया। उसकी मानसिक स्थिति खराब हो गयी। वह न चल सकती थी, न बोल सकती थी। यह दुख का विषय था। ससुराल वालों ने उसे उसके मायके भेज दिया। काफी मिन्नतों के बाद भी उसे उसका पति अपने घर ले जाने को राजी नहीं हुआ। लड़की को पता नहीं कि उसके आसपास क्या घट रहा था। उसके बाप को इतना दुख नहीं था, लेकिन एक मां का अपनी बेटी का दुख देखकर हृदय कितना रो रहा था, यह एक मां ही जान सकती है। बाप मजदूर है, जितना कमाते हैं, उतना खाते हैं। मां के पास इतने पैसे नहीं कि अपनी बेटी का इलाज करा सके। किसी ने उससे बताया कि वह अपनी लड़की को रोज नंगे पैर धूप में चलाये तो कुछ फर्क आ सकता है। पिछले एक साल से अधिक वह उसका सहारा बन रही है। रोज-रोज अंदर-अंदर घुट रही है। बेटी खिलखिलाती है, उसे संसार का पता नहीं। वह लड़खड़ा कर चलती है, फिर खिलखिलाती है। उसकी मां दुखी है, शायद यह संसार का सबसे बड़ा दुख है।

-Harminder Singh

Friday, January 23, 2009

बस समय का इंतजार है

बच्चे की मां बहुत खुश नजर आ रही है। वह खुश इसलिये है कि उसका बच्चा बड़ा हो रहा है। वह अंजान है वक्त की सीमा से जो समय-समय के साथ कम होती जा रही है। एक मां को पता नहीं कि यहीं से हर किसी के कष्टों की शुरुआत होती है। जीवन का प्रारंभ ही दुखों की उत्पत्ति है। जितना लंबा जीवन उतने अधिक दुख। मां तो मां होती है।

यह सच है कि मरने के लिये जीना जरुरी है। हम जीने के लिये कभी पैदा नहीं होते। मृत्यु के लिये सृष्टि उत्पन्न करती है। यह वरदान है जो प्रारंभ से चला आ रहा है, जिसकी समाप्ति की किसी तरह की कोई घोषणा कभी हुई ही नहीं।

सुख, समृद्धि, भय, अहंकार, झूठ-सच, ऊंच-नींच और न जाने क्या-क्या सब आज है, कल होता नहीं, केवल आज नहीं, अभी की कीमत है। ‘पीछे बहुत कुछ छूट गया’- यह केवल तसल्ली के लिये है। सच्चाई यह है कि कल कभी था ही नहीं और कल कभी आयेगा ही नहीं, है तो सिर्फ आज इसी समय।

दुख खोने का क्यों? खुशी पाने की क्यों? कुछ नहीं है यहां। यहां तक कि रिश्ते-नाते, आखिर कितनी उम्र है इनकी? दूरी का संताप अल्प समय के लिये है।

मैं गंभीर हो जाता हूं। हर विषय एक चुनौती है। प्रत्येक दिन नई बात। आगे की सोच होना अच्छा है और ऊंची सोच भी। लेकिन प्रश्न उलझाने वाले बहुत हैं। जब भविष्य की कोई औकात ही नहीं तो भविष्य की चिंता क्यों?

कई मायनों में भविष्य की मौत नहीं हुई। न ही वह जीवित है। उसकी उम्मीद है कि वह है। भूत को वर्तमान से बड़ा कभी माना नहीं जायेगा। न ही वर्तमान भविष्य से छोटा है। यह भी प्रश्न अहमियत रखता नहीं कि कालों का आपसी टकराव विषय को पेचीदगी प्रदान करता है।

उत्पत्ति के समय से जीवन के कष्टों की उल्टी गिनती शुरु हो जाती है। हम एक तरह से अनजान हैं। हमारे आसपास बहुत कुछ ईश्वर तैयारियां कर रहा होता है। हम चालाक कितने भी क्यों न हों, उसकी माया के परिणाम भुगतने का इंतजार करते हैं।

-harminder singh

Tuesday, January 20, 2009

ये कितने दयावान?

स्कूल में मैंने सेवाभाव का पाठ पढ़ा था। हमें यह समझाया गया कि सदा परोपकारी बनो। दूसरों की सेवा हमारा ध्येय हो। कईयों के लिये यह महज कोरा उपदेश था, यूं कहें कि कोरी बकवास मात्र था। मैं जानता हूं, कुछ ने सबसे पहले रास्ते से गुजर रहे भिखारी को गाली दी होगी, सिक्के की बात तो दूर। अपने बूढ़े दादा-दादी या नाना-नानी को एक गिलास पानी देने में टाइम खराब हुआ होगा।

दया की भावना को परोपकार से जोड़कर देखा जाता है। भगवान दया करता है, हम दया करते हैं, कहते हैं कि हर कोई कभी न कभी दया करता है। इसके विपरीत भी तो होता है, जब दयावान घृणा का पात्र बनता है। दिखावे की दया को देखना अधिक सहज नहीं लगता। यहां वास्तविक प्रेम अल्प के साथ-साथ नगण्य होता है।

ओम सिंह और जगदेव आज फिर से कक्षा के बाहर खड़े थे। पिछले कुछ सालों से वह महीने-दो महीने में इसी तरह खड़े होते आ रहे थे। ‘‘आज फिर तुम्हारी फीस जमा नहीं हुयी। कल से स्कूल मत आना।’’ यह वाक्य काफी पुराना और घिसापिटा हो चुका था।

निर्धन लोगों की कितनी इज्जत होती है, यह मुझे तब अहसास हुआ। उनके लिये अभिशाप है और ओरों के लिये उनके उपहास का कारण।

फटी जुराबें बिना धुली थीं, जूते भी खस्ताहाल। गले में टाई कई साल पुरानी कहलाने को कतई शर्म महसूस नहीं करती थी, लेकिन उसने कई बार आंसू पोंछे होंगे। यह विद्या देवी का महान स्थल था, जहां शिक्षा अपनी उलझी लटाओं को संवारने की कोशिश तो करती पर पता नहीं क्यों नित्य उलझती जा रही थीं।

ओम सिंह निराश नहीं होता था। जगदेव दिल का भला था। ओम सिंह कई बार चोरी करता पकड़ा गया, उसने अपनी पराजय स्वीकार नहीं की। फिर चोरी की। यह उसकी आदत हो चली थी। पढ़ाई में दोनों सहपाठी शिक्षकों को निराश करते थे। पता नहीं पांचवी तक कैसे पहुंचे। पहले मेरी कक्षा में थे, बाद में मेरे छोटे भाई की कक्षा को भी नहीं पकड़ पाये। यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या था उनके पास रहने को मामूली सा छप्पर और जोतने को कुछ हिस्सा जमीन जिससे उनका पेट भी बमुश्किल ही पल पाता था।

स्कूल वालों ने यह कहा रखा था कि आपसे कुछ फीस अव’य ली जायेगी, लेकिन उनके पास देने को कुछ था ही नहीं। शिक्षा के व्यापारी आदत से मजबूर झूठे दावे करते थे। स्कूल के पास इतनी क्षमता थी कि वह आराम से कई बच्चों की मुफ्त की शिक्षा का भार ढो सकता था।

कई लड़के बस्ता लटकाये खड़े थे। उनके चेहरे उतरे हुये थे। मैं किसी कार्य से प्रिंसिपल कक्ष से गुजर रहा था। उनमें ओम सिंह भी दीवार से सटा खड़ा था। मैंने उससे इसका कारण पूछा, जबकि मैं समझ चुका था। उसका जबाव मायूसी भरा था,‘‘हमें घर जाने को कह रहे हैं।’’

मैंने कहा,‘‘फीस अभी जमा नहीं की।’’

वह चुप था, उसका चेहरा झुक गया। उसके कंधे पर हाथ रखा, यह दया का भाव था, शिक्षा थोड़ा मुस्कायी। उसकी मुस्कान बनावटी नहीं थी।

कई बार ओम सिंह को शिक्षकों के आवेश का शिकार होना पड़ा। वह रोया भी, हाथों से गिरते आंसुओं को पोंछा भी, मगर उसका बेहतर शिक्षा का ख्वाब डाली छोड़ गया। कई साल बाद पता चला कि उसने खेत पर पहले से ज्यादा समय देना शुरु कर दिया। फिर यही तो उसका भविष्य है। अब वह स्कूल नहीं जाता। जगदेव की तो शादी हो चुकी। उसका एक छोटा बच्चा भी है। वह उसे खेत की मेढ़ से स्कूल की आलीशान इमारत दिखाता है। बच्चा खिलखिलाता है, बाप के इशारे की ओर खुशी से उछलकर गोद से कूदकर जाना चाहता है, भरे दिल से रोक लिया जाता है।

-harminder singh

Monday, January 19, 2009

बुढ़ापा भी सुन्दर होता है

मैंने काकी के सफेद बालों की ओर देखा। काकी ने कहा कि काफी समय से ये ऐसे ही हैं। उनकी सफेदी उम्र बखान कर रहा थी। काकी का चेहरा भी उनके साथ अनोखा नहीं लग रहा था। असल में बुढ़ापा भी सुन्दर लगता है, फर्क सिर्फ नजरिये का होता है। इसपर काकी कहती है,‘यह हम सुनते आये हैं कि सुन्दरता देखने वालों की आंखों में होती है। .......और जिसके आंखें न हों, वह.....।’

इतना कहकर काकी रुक गई। आगे बोली,‘वह स्पर्श कर अहसास करते हैं। वास्तव में स्पर्श एक अहसास ही है, अनुभव है। आंखों वाले भी स्पर्श का मतलब जानते हैं। प्रकृति सुन्दर है, लोग भी और भगवान की बनाई प्रत्येक वस्तु की छटा अपनी है। नये और पुराने का संगम है प्रकृति। इस ओर कुछ छिपा है तो उस पार का नजारा भी कम विस्मयकारी नहीं। यही प्रकृति का अद्भुत खेल है। युगों से यही होता आया है। हर बार लोगों ने संसार को अपने चश्मे से देखा है तो सुन्दरता का कोई रुप किसे भाया तो कोई रुप किसे। अपनी-अपनी समझ ने जिसे जैसा दिखाया वैसा ही उसे लगा।’

‘बुढ़ापा सुन्दर भी होता है। ऐसा मेरी नजर कहती है। मुझे मालूम है कि सबकी सोच एक-सी नहीं होती। इन जर्जर हाथों में कोमलता अब कहां? फिर भी सुन्दर हैं यह हाथ। चेहरे पर रौनक की बात छोड़ो, झुर्रियां चहलकदमी क्या, स्थायी तौर पर निवास करने लगी हैं। इतना सब बदल गया है, फिर भी खुद को किसी परी से कम नहीं समझती।’
इतना कहकर काकी का चेहरा मुस्कराहट से भर जाता है। वह अपने बिना दांतों वाले मुंह के दर्शन करा देती है। काकी को हंसता हुआ देखकर मुझे पता चला कि बुढ़ापा खुश है, क्योंकि अभी इंसान जीवित है। हंसती हुई हर चीज अच्छी लगती है, चाहें उसमें कितना पुरानापन क्यों न आ गया हो। उमंग को जीवित रखती है हंसी और एक पल की हंसी कई गुना सुकून पहंचाती है। हम कितनी आसानी से कह देते हैं कि बूढ़ों को हंसना नहीं आता। यह उम्र बीतने का दौर होता है, अंतिम उड़ान और विदाई का वक्त होता है। इसमें मामूली मुस्कराहट भी मायने रखती है। हंसी के साथ जिये हैं, तो अंतिम समय ठहाका लगाने में क्या बुराई है? काकी जिंदादिली की मिसाल थी। पेड़ जर्जर होने पर वीरान लगता है क्योंकि उसकी हरियाली छिन चुकी होती है। इंसान के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है।

-harminder singh

Wednesday, January 7, 2009

अनुभव अहम होते हैं

हम खोकर भी बहुत कुछ पा लेते हैं और कभी-कभी बैठे-बिठाये लुट जाते हैं। अपनी तकदीर खुद लिखने की कोशिश करते हैं। अनजाने में अनचाही राहों पर निकल पड़ते हैं। किस लिये, आखिर किस लिये करते हैं हम यह सब। हमारे अनुभव हमें बताते हैं कि हम क्या भूल गये, क्या तैयारी बाकी रह गयी



जीवन दर्शन मुझे बूढ़ी काकी करा रही थी। उसकी बातों में मैं खो सा गया था। बुजुर्गों के साथ वक्त बिताने का समय मुझे अधिक मिला नहीं, लेकिन कुछ वक्त में काफी सीख प्राप्त की। अपने विचारों को सुदृढ़ बनाने के लिये और अनुभव पाने के लिये यह किसी तरह भी कमतर नहीं था।

अनुभव जीवन में अहम होते हैं। सीखना हमारी प्रवृत्ति है और नये-नये पड़ावों से नये-नये अनुभव होते हैं। काकी का अनुभव उतना ही पुराना है जितना कि उसका इस जीवन से रिश्ता।

काकी शायद मन की बात भी भांप लेती है, बोली,‘जीवन को पुराने-नये से कोई मतलब नहीं। वह बस अंतिम सांस तक ठहरना जानता है, फिर किसे पता क्या है? जीवन जीकर ही अनुभव पाया जाता है। ऊंचे-नीचे रास्ते यूं ही नहीं बने होते। इनपर चलकर सच्चाई से सामना होता है और यह सच जीवन का सच है।’

‘हम खोकर भी बहुत कुछ पा लेते हैं और कभी-कभी बैठे-बिठाये लुट जाते हैं। अपनी तकदीर खुद लिखने की कोशिश करते हैं। अनजाने में अनचाही राहों पर निकल पड़ते हैं। किस लिये, आखिर किस लिये करते हैं हम यह सब। हमारे अनुभव हमें बताते हैं कि हम क्या भूल गये, क्या तैयारी बाकी रह गयी। अगर उन घाटियों से न कभी गुजरना हुआ तो हम उनसे कुछ नहीं सीख पाते। आसानी से हर काम करने लगते तो सरल भी कठिन लगता।’

‘धूप चिलचिलाती है, ठंड ठिठुरन भरी है, फिर भी जिंदगी हंसती-खेलती चलती है। यह सब इसलिये ताकि जिंदगी जीने वाले के लिये बोझ न लगे। अपनी रफ्तार में चलने का अपना आनंद है, लेकिन कईयों को लगता है कि कहीं उन्हें ठोकर न लग जाये। कभी-कभी नहीं कई बार ऐसा होता है कि अनजाने रास्तों पर निकलने की जिद कर बैठते हैं। मुझे यह सुकून नहीं पहुंचाता। हर किसी की चाह होती है, मगर जिद नुक्सान भी करती है।’
मैं हमेशा उनसे कहानी सुनता आया था। शायद काकी यह समझती है कि मैं जीवन के पहलुओं को उनसे समझूं। एक वृद्धा का अनुभव किसी को कुछ सिखा जाये तो इसमें क्या बुराई है?

बुरी लगती हैं वे बातें जब कोई आपसे कहता है कि बूढ़ों से बचके रहो। उनकी बातों से हमारा मेल कैसा? उनका जमाना पुराना था, अनुभव पुराने होंगे, वे नये जमाने को क्या जानें? बगैरह, बगैरह।

ऐसे लोग अक्सर भूल कर बैठते हैं। बुढ़ापा अनुभव लिये होता है। जीवन की सच्चाई से रुबरु हुआ होता है। पूरी उम्र का सार होता है बुढ़ापा। अनगिनत उतार-चढ़ावों को देख चुका होता है बुढ़ापा। परिवर्तनों का अहसास, हवा का रुख, दुख और सुख, सब कुछ सह चुका होता है बुढ़ापा। फिर क्यों बुढ़ापे से बचकर बैठने की सलाह दी जाती है? फिर क्यों उनके अनुभवों, सीखों से इतर रहते हैं हम? जबकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि बुढ़ापा मुस्कराता हुआ कहीं न कहीं खड़ा हमारा इंतजार कर रहा है। हम उसे जानकर समझ नहीं रहे या कुछ और बात है।

-Harminder Singh
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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com