दिल्ली ठहरी नहीं, लोग रुके नहीं, बस एक सिहरन थी जो कम हो रही है, बस इसी सोच के साथ कि अगला धमाका न हो
आतंकवाद के कदम इतने आगे जा चुके हैं कि वे काफी जद्दोजहद के बाद ही रोके जा सकते हैं। एक कौम को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है और भविष्य में इसके कोई आसार नहीं कि लोगों की सोच में बदलाव आये। कभी-कभी परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि उनके कारण समाज के वर्गों में असहजता उत्पन्न हो जाती है। यही आजकल हो रहा है। भीड़ बढ़ती जा रही है, लोग उसमें शामिल हैं लेकिन कुछ गिने-चुने जहर की पुडि़या लिये घूम रहे हैं।
बम फटने का इंतजार कर रहे हैं। पता नहीं कब क्या हो जाये? कल निशाना हम भी हो सकते हैं और परसों कोई और। लोगों का ढेर बिखरा हुआ भी हो सकता है और अपनों को तलाशती आंखें भी। पर उन्हें इससे क्या लेना-देना जो इंसानों की मौत के खेल को खेल रहे हैं। यह उनका आनंद है और वे इसका ज’न भी जरुर मनाते होंगे। यहां का मातम, वहां का जश्न! सोचने पर मजबूर करता है कि हम हैं क्या? कैसे हो गये हैं और क्यों?
पता नहीं वक्त सिमटेगा या हमें समेटेगा। लेकिन हम इतना जानते हैं कि हम खुद ही खुद को मारने का संकल्प लेते जा रहे हैं। जेहादी होते जा रहे हैं। मकसद कितना और कैसा है, मगर खून बहाने का मकसद साफ नजर आता है। इससे क्रूर क्या हो सकता है कि बच्चों और महिलाओं को भी नहीं बख्शता एक धमाका।
बड़े शहर घूमने के ख्बाव देखे थे कभी, आज डर लगता है कि कहीं कुछ ऐसा-वैसा न हो जाये। दिल्ली तो राजधानी है उसमें थोड़े अंतराल पर धमाके हुये और कई जिंदगियां बिना कुछ बताये अचानक चल बसीं। ये अच्छा थोड़े ही था। दिल्ली ठहरी नहीं, लोग रुके नहीं, बस एक सिहरन थी जो कम हो रही है, बस इसी सोच के साथ कि अगला धमाका न हो।
-harminder singh
Friday, October 31, 2008
Friday, October 10, 2008
छली जाती हैं बेटियां
बेटियां अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं। उनके शोषण की दास्तां मार्मिक है। वे अपनी कहानी किसी से कह नहीं सकतीं क्योंकि उन्हें लगता है, उनका कोई अपना नहीं, सगा नहीं। सगों द्वारा भी छली गयी हैं बेटियां। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना आजीवन के लिये चुभन छोड़ देती है जिसकी टीस न जीने देती है, न मरने।
बेटियों की चीखें बंद दीवारों में झटपटाती हुईं रह जाती हैं। रिश्तों के मायने फिर क्या रह गये? अपनों से दुखी हैं बेटियां।
खुली हवा में सांस लेने की सोच का गला घोंट दिया जाता है। आसमान में उड़ने की तमन्ना का ढेर भरभराकर ढह जाता है, ताश के पत्ते बिखर जाते हैं। लड़की की उम्मीदों को फड़फड़ाने के लिये छोड़ दिया जाता है।
जब अपने पराये सा सुलूक करें तो स्थिति अच्छी नहीं रह जाती। लड़कियों को बेमतलब पीटा जाता है। उनसे कई गुना काम कराया जाता है। जरा-जरा सी बात पर दुत्कार मिलती है। यह सब नहीं, बहुत कुछ होता है बेटियों के साथ।
उनके चेहरों पर शंका की लकीरें हैं, डरी-सहमी सी हैं पर खामोशी कुछ कहती है और बहुत कुछ। पढ़ने की उन्हें जरुरत नहीं क्योंकि परिवार वाले कहते हैं-‘पढ़-लिख क्या करेगी? दूसरे घर चौका-बरतन ही तो करना है। घर-बार की बात सीखना चाहिये।’ यह सोच धीरे-धीरे सिमट रही है, बेटियां अभी भी बेटों का दर्जा नहीं पा सकीं।
बेटियों की कहानी रोती-बिलखती है और वे मजबूर हैं। उनके कंधे कमजोर नहीं, मगर समाज की बेडि़यां उन्हें रह रहकर रोकती हैं। बहुतों ने बंधनों से खुद को आजाद किया है, नये आसमान की ओर रुख किया है। वे बदली हैं, उन्होंने ओरों को बदला है। यह उनकी कामयाबी का परचम है।
-harminder singh
Monday, October 6, 2008
मां ऐसी ही होती है
मां किस्मत वालों को मिलती हैं। वे किस्मत वालें हैं जिनके पास उनकी मां है। जो लोग अपनी मां को खो चुके हैं, वे शायद दुखी हैं और कभी-कभी बहुत दुखी भी। उनकी आंखों में आंसू हैं क्योंकि कोई अपना उन्हें छोड़ कर चला गया |
मां होती ही ऐसी है। बच्चा हंसता है, तो मां हंसती है। वह रोता है, तो मां भी रोती है। मां की ममता को पहचाना बहुत कम लोगों ने है। उसके लिये हम हमेशा छोटे ही हैं, दुलारे भी हैं और प्यारे भी। उसके जाने के बाद उसकी याद हमें आयेगी, यह हम जानते हैं। वह कभी न लौट कर आने के लिये हमसे केवल एक बार विदाई लेगी। यह विदाई अंतिम होगी।
हम कहते हैं कि मां किस्मत वालों को मिलती हैं। वे किस्मत वालें हैं जिनके पास उनकी मां है। जो लोग अपनी मां को खो चुके हैं, वे शायद दुखी हैं और कभी-कभी बहुत दुखी भी। उनकी आंखों में आंसू हैं क्योंकि कोई अपना उन्हें छोड़ कर चला गया। उसके अंतिम पल में कई अपनी मां के पास थे और कई को पता ही नहीं कि उनकी भी कभी कोई मां थी। पाने से ज्यादा खोने का गम होता है। और पीड़ा तब अधिक बढ़ जाती है, जब आप उसे खो देते हैं जिसे आप बहुत चाहते हैं, शायद बहुत ज्यादा। यह सब इतना अचानक हो जाता है कि आपको पता ही नहीं चलता कि कोई आपसे कब का रुठ कर चला गया। ऐसी जगह जहां से लौटना हर किसी के लिये नामुमकिन रहा है। मेरी आंखें नम हो गयी हैं जब मैं यह लिख रहा हूं क्योंकि मेरे पास भी ऐसा कुछ घटा है जिसके बाद यह लिख सका हूं। एक बच्चा कभी पहले बहुत खुश हुआ करता था। उसकी हंसी रोके नहीं रुकती थी। वह हंसता हुआ अच्छा लगता था। बातें बनाना कोई उससे सीखे। मुझे उसने प्रभावित किया था। वह अब दुखी है और उसका दुख कभी न खत्म होने वाला है। उसका कोई उसे छोड़ कर चला गया और वह एकदम अकेला पड़ गया। उसकी आंखें किसी को खोजती होंगी, वह अब उसके सामने नहीं है। वह रोता है और जी भर कर रोता है। भला एक 12 साल का बच्चा कर भी क्या सकता है। ऐसे मौकों पर रोया ही तो जाता है। उसकी मां अब रही नहीं। उसकी यादें हैं बस, जिनको ध्यान कर सिर्फ रोना आता है। वह प्यार अब नहीं रहा, दुलार पीछे छूट गया।
किसी को भूला इतनी आसानी से नहीं जा सकता। इसलिये कहा गया है-
It takes only a minute to get a crush on someone, an hour to like someone, and a day to love someone but it takes a lifetime to forget someone.
यह सच है कि अपनों से दूरी और बहुत लंबी दूरी जिंदगी भर का दर्द दे जाती है। हम उन्हें खुशी पता नहीं कितने दे पाते हैं लेकिन उनके दूर चले जाने पर रोते बहुत हैं। यह हमारी कमजोरी है कि हम भावनाओं में आसानी से बह जाते हैं। यह लगाव अदृश्य होता है, लेकिन मजबूती से जुड़ा हुआ। इसकी डोर कभी कमजोर नहीं पड़ती और शायद समय-दर-समय और मजबूत होती जाती है। यही जीवन का सच है। रिश्तों की डोरी हमें जोड़े रखती है, नहीं तो हम कब के बिखर गये होते।
मां के लिये यह गीत गुनगुनाया जा सकता है-
‘तेरी उंगली पकड़ के चला,
ममता के आंचल में पला,
मां ओ मेरी मां, मैं तेरा लाडला।’
-harminder singh
लेबल:
mother,
old people hindi blog,
vradhgram
Subscribe to:
Posts (Atom)
|
हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
|
|
सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
|
|
|
अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |