बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, June 30, 2008

अब कहां गई?

इतनी शक्ति थी,
अब कहां गई?

रोशनी थी पूरी,
अब कहां गई?

हस्ती थी मेरी,
अब कहां गई?

उम्मीदों की क्यारी,
अब कहां गई?


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बूंद ओस की गीली थी,
अब कहां गई?

मिट्टी की खुशबू थी,
अब कहां गई?

हरियाली बोला करती थी,
अब कहां गई?

अब राख रही,

बस राख रही।


-हरमिन्दर सिंह द्वारा

Saturday, June 28, 2008

बेबसी रोती है

सब कुछ क्षीण हो गया है। अब ऐसा लगता है मानो हाथ थक गये, शरीर थक गया। यह तो अब तक का समय था, पता ही नहीं चला कब बीत गया। बीत गया सब कुछ, बस यादें शेष बची रह गयीं। यादें भी थकीं हुयीं हैं, उनमें ताजगी कहीं खो गयी है।

सोचने की फुर्सत ही फुर्सत है लेकिन फुर्सत अब नहीं है। बहुत कुछ बदलाव आ गये हैं। कई बातें ठेस पहुंचा जाती हैं, चुपचाप सहने की हिम्मत भी शायद बढ़ रही है। आदि हो चला है बुढ़ापा सहने का और सहने के सिवा है ही क्या? यहीं वक्त ठहर रहा है, गुजर रहा है वक्त, कितने दिन का और इंतजार। इंतजार कभी न खत्म होने वाला और जब खत्म होगा पता भी नहीं चलेगा।

पहले वक्त कम था, दिन छोटे, साल कई ऐसे ही गुजर गये। अब वक्त मानो ठहर कर डरा रहा है, रुक रहा है और कभी-कभी तो सब शांत सा लगने लगता है। परछाईं मुरझाई सी लगती है। अंधेरा बढ़ने की ओर है और उजाला थमने की ओर। कोने की शक्ल को कैसे भूला जा सकता है, वह अपना है। एक कोने की जगह ही तो चाहिये अब बस। वहीं थकी जिंदगी के बचे पल गुजर जायेंगे बस यूं ही। यह सब क्या है? पता भी तो नहीं। क्यों हो रहा है? पता नहीं। इतना पता है कि यह होता है और आगे भी होता रहेगा।

अंतिम दिन तो सबके आते हैं। आने की बारी को रोकना मुश्किल है, शायद उसके लिये भी जिसने वक्त बनाया है और वह तो बेबस है ही जो उसके आगे नाच दिखा रहा है। यह बेबसी का नाच है। बेबसी रोती है, हंसी का चेहरा अब नहीं है। शोरगुल को आना चाहिये था पर वह भी बचके निकलने की फिराक में है। क्या सब कुछ आपे से बाहर होता जा रहा है। उंगलियां रुक सी गयी हैं। सरकती नहीं बाहें अब और, पैर तो सहारा चाहते हैं। अपने रुठे नहीं है, अलग हो गये हैं।

विदाई अंतिम होगी यह भी सत्य है। सत्य यह भी है कि वक्त की लगाम छूट जायेगी और सितारा डूब जायेगा। सूरज अस्त होता हुआ एक जगह छिप जायेगा सदा के लिये।

-HARMINDER SINGH

Friday, June 27, 2008

अनुशासन के तरफदार


अनुशासन और शिक्षा के प्रसार के लिये इन्होंने शिक्षा के मंदिर का निर्माण किया। उत्तर प्रदेश के जिला जेपी नगर के मूंढ़ाखेड़ा में यह कालेज अपने बेहतर अनुशासन के लिये जाना जाता है।65 साल उम्र के हो चुके स. श्योराज सिंह ने इसे स्थापित किया था। तब शिक्षा की अलख जगाने की इनमें धुन थी आज भी शिक्षा की ईमानदारी से सेवा कर रहे हैं।

स. श्योराज सिंह एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने केवल क्षेत्र में ही नहीं बल्कि प्रदेश स्तर पर उल्लेखनीय तथा सराहनीय कार्य किया। उनके द्वारा स्थापित मूंढा खेड़ा में इंटर कालेज इस बात का जीता-जागता प्रमाण है। उनका यह कालेज प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ कालेजों में सर्वोच्च स्थान पर रहा।

. श्योराज सिंह को प्रदेश सरकार ने शिक्षक चयन आयोग का सदस्य मनोनीत किया। इस पद पर पहुंचने वाले इस क्षेत्र के वे एक मात्र शिक्षक हैं।

दूसरे कालेजों के बदनाम छात्रों को भी उन्होंने अपने कालेज में भर्ती कर अच्छे छात्र बना दिया। शिक्षा तथा खेल के क्षेत्र में यह कालेज लगातार प्रगति करता रहा। उदंड छात्र भी यहां सुधर गये।



ग्राम नगलिया बहादुरपुर में एक कृषक परिवार में जन्मे श्योराज सिंह ने उच्च शिक्षा ग्रहण कर ऐसे स्थान पर इंटर कालेज स्थापित किया जहां आसपास कोई इंटर कालेज नहीं था। इस क्षेत्र के बच्चे मंडी धनौरा या अमरोहा पढ़ने जाते थे, जहां जाना सबके बस की बात नहीं था।

जनता इंटर कालेज नामक इस कालेज को सर्वोच्च स्थान दिलाने में जो प्रयास स. श्योराज सिंह ने किये वह किसी के बस की बात नहीं थी। दूसरे कालेजों के बदनाम छात्रों को भी उन्होंने अपने कालेज में भर्ती कर अच्छे छात्र बना दिया। शिक्षा तथा खेल के क्षेत्र में यह कालेज लगातार प्रगति करता रहा। उदंड छात्र भी यहां सुधर गये। इस कालेज का अनुशासन आज भी दूसरे कालेजों से बेहतर है। यह सब स. श्योराज सिंह के प्रयास और तपस्या का फल है। उनकी योग्यता को देखते हुये उन्हें प्रदेश सरकार ने शिक्षक चयन आयोग का सदस्य मनोनीत किया। इस पद पर पहुंचने वाले इस क्षेत्र के वे एक मात्र शिक्षक हैं।

व्यवहारिक, सहनशीलता, निडरता और ईमानदारी उनमें कूट-कूट कर भरी है। कई कालेजों के संस्थापक तथा प्रधानाचार्य आज भी उनसे दिशा-निर्देश ले रहे हैं। वास्तव में स. श्योराज सिंह हमारे क्षेत्र के लिये एक अमूल्य शिक्षाविद हैं जिनकी सेवाओं को हमेशा याद किया जाता रहेगा। उनका उद्देश्य क्षेत्र में शिक्षा का प्रकाश फैलाना है।

Tuesday, June 24, 2008

अंतिम पल


(यह कविता महेंद्र जी ने वृद्धग्राम के लिये लिखी है.
महेंद्र जी की उम्र ७५ वर्ष है, लेकिन कवि मन को रोक नहीं पाते.
जब समय मिलता है तो कविता लिखते हैं.)


मौत की शक्ल को ढूंढ रहा हूं,
मिलती ही नहीं, क्यों गुम है,

वह खड़ी चौखट पर,
यह समझता कोई नहीं,

सरक-सरक कर चलने वाला,
जीवन पागल बिल्कुल नहीं,

ऐसा होता है जरुर,
नहीं किसी का कसूर,

समय सभी का ऐसा आता,
जब नहीं पछताया जाता,

वेदना-संवेदना,
बहती अश्रू धार,
निर्जन लगता जग सारा,
सूना सारा संसार,

पगला-पगला कह कर अब,
मुझे चिढ़ाया जाता है,
कंठ न उतरे शब्द कोई,
विलाप करुण हो आता है,

क्रीड़ा-कौतुक सब स्वाहा,
अब तरणी तर जाना है,
पूर्ण नहीं, अपूर्ण भला मैं,
पूर्ण में मिल जाना है,

जीवन-रस की चाह वहीं है,
नित्य का आना जाना है,
संगीत-मधुर, तान सुरीली,
‘हरिपुर’ का इक गाना है।


-महेंद्र सिंह

Sunday, June 22, 2008

अभी तक कहां जीता रहा?


उलझे हुये बोलों को सुनने की कोई गुंजाइश नहीं है। मैं अपने को स्थिति के साम्य करने की कोशिश कर रहा हूं। पल दो पल की मुस्कराहटों का मुझसे क्या लेना देना।

बोलों को लपकने की जरुरत जान नहीं पड़ती। पड़ाव अंतिम अवश्य है, लेकिन थकावट को किनारे लगाने का संघर्ष जारी है। इस संघर्ष का योद्धा और युद्ध का मैदान भी मैं ही हूं। परास्त हो सकूं या विजेता बनने का दंभ भरुं, इसमें संशय या हैरानी किसी मतलब की नहीं।

हार मेरी होनी है, यह मैं जान गया हूं। देर से ही सही, मगर आंखों की पलके उजाले और अंधेरे का फर्क नहीं करतीं।

मुट्ठी बंद करुं या खोलूं क्या फर्क पड़ता है। फर्क की तलाशी भी कोई ले नहीं सकता। सूखे ठूंठ की राख उंगलियों को सहला जाये, यह भी उम्मीद नहीं। सिलवटों को मिटाने की जुगत में रेत मलने से क्या फायदा।

सच से रुबरु अब हुआ हूं। अभी तक कहां जीता रहा?

-HARMINDER SINGH

Saturday, June 21, 2008

खत्म जहां किनारा है

दीवानों की बस्ती में,
आज नया सवेरा है,
कल तक थीं बस यादें अपनी,
आज सुखों का डेरा है,

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पल-पल पलकों के आंगन से,
नहीं बहती मद्धिम धारा है,
इस तट मैं खड़ा हूं,
खत्म जहां किनारा है।

-by HARMINDER SINGH

Thursday, June 19, 2008

शाकाहारी सेक्सी बूढ़ा

पशु अधिकारों में संलग्न संस्था पीपुल्स फ़ोर एथिकल ट्रीटमेंट आफ एनिमल्स (पेटा) ने विख्यात सिनेकर्मी अमिताभ बच्चन को एशिया का सबसे सेक्सी शाकाहारी पुरुष चुना है। पेटा का यह निर्णय किसी भी प्रकार से तर्क संगत नहीं है। इस समाचार से शाकाहारी तथा पशु पक्षियों के प्रति दयाभाव रखने वाले लोगों को ठेस पहुंची है। सेक्सी शाकाहारी से इस संस्था का क्या तात्पर्य है? सेक्सी अंग्रेजी और शाकाहारी हिन्दी का शब्द है। आजकल अधिक पढ़े-लिखे लोगों को सामान्य शिक्षित समाज को शब्दजाल में उलझाने की आदत सी पड़ गयी है।

हमें बच्चन परिवार से इतनी शिकायत नहीं जितनी पेटा से है। पेटा विश्व की सबसे बड़ी वह संस्था है जो जीव-जंतुओं की सुरक्षा तथा संरक्षा के लिये विश्व में पहचानी जाती है। वह लोगों में जीव-जंतुओं के प्रति प्रेम और करुणा का भाव तथा उनके अस्तित्व को बचाये रखने के लिये काम करती रही है


पशु-पक्षियों की हत्या करना या उनका मांस भक्षण करना दोनों ही मानवीय दृष्टिकोण से बड़े अपराध हैं। जो व्यक्ति मांसाहारी है और उसने जिन जीवों का मांस भक्षण किया है लेकिन उनकी हत्या उसने की है जिससे खाने वाले ने उसे खरीदा है। मारने वाला तो दोषी है ही बल्कि खाने वाला भी उतना ही पापी है जितना हत्यारा। यदि मांस भक्षण करने वाले खरीदना छोड़ दें तो कसाई जानवरों को मारना ही बंद कर देगा।

मेरा यहां प्रयोजन जीव हिंसा की प्रबल विरोधी संस्था पेटा द्वारा अमिताभ बच्चन को एशिया का सबसे सेक्सी शाकाहारी व्यक्ति घोषित करने से संबंधित विचार से है। मैं नहीं जानता कि अमिताभ बच्चन शाकाहारी है। सेक्सी तो वे होंगे ही क्योंकि वे जिस व्यवसाय से जुड़े हैं वहां इसके सिवाय और है भी क्या?

जिस समय अभिषेक तथा एशवर्य की शादी की मामूली चरचा चली थी तो बच्चन के स्वास्थ्य तथा परिवार की मंगल कामना के लिये बच्चन परिवार के सदस्यों ने चार पशु-पक्षियों की बलि कामाख्या मंदिर में चढ़ाई थी। सबसे दुखद बात है कि शहीद किये जीवों में शांतिदूत माना जाने वाला एक कबूतर भी तड़पा-तड़पा कर इन सेक्सी शाकाहारी बच्चन वंशियों ने मंदिर में चढ़ाया था और उसके रक्त से देव मूर्ति को स्नान कराया था। उसके बाद भी इन लोगों ने अपनी मंगल कामना के लिये बेकसूर, बेजुबान और बेबस जीवों की नृशंस हत्यायें करायी थीं। हो सकता है कि शायद अमिताभ बच्चन मांसाहारी न हों (वैसे विश्वास नहीं होता) लेकिन जिस प्रकार उन्होंने धर्म के नाम पर जीव हत्यायें करायी हैं क्या वे उससे जीव हत्यारे नहीं हुये? धन्य हैं ऐसे जीव हत्यारे शाकाहारी और उन्हें प्रोत्साहित करने वाली जीव रक्षक संस्था पेटा।

हमें बच्चन परिवार से इतनी शिकायत नहीं जितनी पेटा से है। पेटा विश्व की सबसे बड़ी वह संस्था है जो जीव-जंतुओं की सुरक्षा तथा संरक्षा के लिये विश्व में पहचानी जाती है। वह लोगों में जीव-जंतुओं के प्रति प्रेम और करुणा का भाव तथा उनके अस्तित्व को बचाये रखने के लिये काम करती रही है।

यह पहली बार पता चला है कि वह अपने उद्देश्य से केवल भटक ही नहीं गयी बल्कि उसके विपरीत काम करने वाले तत्वों को प्रोत्साहन देने को समर्पित हो चुकी। यदि संस्था ने इस पर गंभीरता से विचार कर निर्णय नहीं लिया तो पशु-पक्षी प्रेमियों का पेटा से विश्वास उठ जायेगा।

-G.S. CHAHAL
(लेखक समाचार-पत्र के संपादक हैं)

(वृद्धग्राम का इस लेख से कोई लेना-देना नहीं है। यह लेखक का अपना मत है।)

Monday, June 16, 2008

नैनहू नीर बहै तन खीना

उपदेशों की एक बहुत बड़ी मचान बांधने का कार्य तेजी के साथ किया जा रहा है। ये कुछ उन्हें सबक सिखला जाये जो सोचे बैठे हैं कि उन्हें अपनों के साथ एक बहुत बड़े खेल का प्रारंभ करना है। यह खेल ही तो होगा। यहां दुख और दर्द का अहसास किया जायेगा। उनकी पीड़ा को अपनी माना जाये जिनके साथ यह किया जाने वाला है या किया जा रहा है। वे बतातें ही तो नहीं लेकिन अंदर की कराहटों को छिपाना इतना आसान भी नहीं हैं। समझ सकते हैं उनके चेहरों की सलवटों से तथा उनके शब्दों की उलझन से कि वे कितने टूट चुके हैं।

यह अवस्था ही कुछ ऐसी है कि सब कुछ खोया-खोया सा, खामोश सा लगता है यह जहां। पता नहीं कैसे जीते हैं वे लोग जो हालातों के साथ उठते, बैठते, जागते, सोते रहते हैं।

यहां लड़ाई अपने से होती है, अपनों से भी और उससे भी जो इसे चैबीसों घंटे देखता रहता है। फिर वही बात, जब जी भर कर जिये हैं, तो पुराने होने में दर्द कैसा? धूल चीजों को धूमिल करती है। हम भी यदि धूमिल हो रहे हैं तो इसमें क्या बुराई है? राख की ओट में मिलने की ख्वाहिशें जल्द पूरी हो जायें। यह शायद ही तो है।

चलिये ठीक है मान लें कि बहुत अच्छा नहीं हो रहा। लेकिन क्या इससे अच्छा हो सकता है इस उम्र में? झुर्रियां टिकीं हैं। यह कई सालों के लिये हैं।

आईये देखते हैं कि इस अवस्था के बारे में हमारे धर्मशास्त्र क्या कहते हैं-

अभिभावदन शीलस्य नित्यम्वृद्धोपसेविनम्।
चत्वारि तस्य वर्द्धयन्ते आयुः विद्या पशोबलम्।।
(हिन्दू धर्मशास्त्र)

-जो नित्यप्रति वृद्ध जनों तथा अभिवादन योग्य भद्र जनों की सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल चार चीजें बढ़ती हैं।


नैनहू नीर बहै तन खीना केस भये दुध बानी।
रुंधा कंठ सबद नहिं उचरहि अब क्या करै परानी।।
(आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब)

-आंखों से पानी बह रहा है। शरीर क्षीण हो गया, केश दूध की भांति सफेद हो चुके, बोलते ही गला रुंध जाता है। वृद्धावस्था के ये स्पष्ट लक्ष्ण हैं। ऐसे में हे प्राणी, अब क्या उपाय है?


विरध भयो सूझै नहीं, काल पहुंचयो आनि।
कहु नानक नर बावरे, क्यों न भजै भगवान।।
(आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब)

-मानव वृद्ध हो गया, कुछ भी नहीं सूझ रहा। उधर काल भी निकट ही पड़ा है। गुरु जी कहते हैं कि हे पागल मानव तू फिर भी ईश्वर का भजन क्यों नहीं करता?


-हरमिन्दर सिंह द्वारा

अपने याद आते हैं

राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से। पिता होने की जहां पहले खुशी थी, बेटों के व्यवहार से दुख भी हुआ, फिर भी अपने तो अपने होते हैं। यही सोचकर कि उनसे अब बात नहीं करेंगे, दूर चले आये। बच्चों को फिर भी भूल नहीं पाया यह पिता।


‘‘अपने सुनते नहीं, पराये अपने होते नहीं। यह दौर का खेल है। वक्त बीत जायेगा। मगर अब बीतने से क्या फायदा। कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं। यह सब उसका किया धरा है। ऊपर वाला पता नहीं क्या-क्या करता रहता है?’’

-राजाराम जी, उम्र 80 साल


‘‘रह रहकर याद आती है उनकी। वे मुझे याद करते होंगे या नहीं, लेकिन मैं उन्हें नहीं भूल पाया हूं। दुखी होकर घर से निकला था मैं। निकला क्या हालात ही ऐसे बना दिये गये थे कि वहां रहना मेरे बस से बाहर था। अपनी औलाद के साथ कुछ पल बिताना चाहता था। वह समय मेरा छिन गया।’’ राजाराम भावुक हो जाते हैं।

लेकिन आगे कहते हैं,‘‘मैंने बुरा वक्त देखा है। 80 साल की उम्र को मैं कम नहीं समझता, बहुत ज्यादा बूढ़ा हो गया हूं मैं। बच्चों को बढ़ा होते देखा है मैंने। उम्मीदें बहुत थीं। सब चकनाचूर हो गयीं।’’ राजाराम का चेहरा थोड़ा गुस्सा भी जाहिर करता है और मन की टीस भी।

‘‘अपने सुनते नहीं, पराये अपने होते नहीं। यह दौर का खेल है। वक्त बीत जायेगा। मगर अब बीतने से क्या फायदा। कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं। यह सब उसका किया धरा है। ऊपर वाला पता नहीं क्या-क्या करता रहता है?’’

राजाराम अपने घर में बेइज्जत किये गये। उन्हें ताने दिये जाते थे, रोज-रोज के तानों से वे घुटन महसूस कर रहे थे। पेंशन मिलती है, गुजारा ठीक-ठीक चल रहा है। पत्नि की मौत के बाद टूट गये थे, अब जाकर थोड़े संभले हैं। पर यह भी कोई संभलना है।

रमेश उनका नौकर है। वह बचपन से उनके साथ रहा है। जब वे घर से निकले तो वह भी उनके साथ आ गया। बड़ा ईमानदार और नेक है। आसपड़ोस के लोग भी उसकी अच्छाई के बारे में बता देंगे। वह उनकी भी कुछ न कुछ मदद कर देता है।

राजाराम जी कहते हैं,‘‘कितनी जिंदगी बची है, पता नहीं। वैसे मन नहीं मानता। मरने से पहले एक बार बच्चों को जरुर देखूंगा।’’

थोड़ा रुक जाते हैं। फिर कहते हैं,‘‘अब क्या करें, बाप का मन कितना होता है। औलाद के साथ रहने को दिल कहता है। अपने बच्चे भूले नहीं जाते चाहें वे क्यों न हमें भूल जायें और कितने ही बुरे क्यों न हों।’’ भावुक हो गये राजाराम जी।

उन्होंने गर्दन झुकाकर अपने कमजोर हाथों से आंखों को मसला। उनकी उंगलियां कुछ गीली थीं।

-हरमिन्दर सिंह द्वारा

Saturday, June 14, 2008

तन्हाई के प्याले

अच्छा भला आज चला, कल न जानें क्या हो,
इस ओर एक बसेरा, उस ओर न जानें क्या हो,

यह मैं हूं, यह मेरा परिवार, यह मेरा घर-संसार,
अब लगता है दिन दूरी बना रहे कई-कई बार,

काली स्याह रातों जैसे दिन के उजाले हैं,
गम ही गम है तन्हाई के प्याले हैं।


-Harminder Singh



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उम्र के पड़ाव


उम्र के कई पड़ाव होते हैं। उन्हीं पड़ावों का जिक्र कर रहे हैं अपनी कविता में बलराम गुर्जर।


उम्र के पड़ाव

जब बच्चा हुआ वर्ष दस का,
लगने लगा उसे चस्का।
जब वर्ष बीते बीस,
करने लगा रीस।

जब वर्ष हुए तीसा,
हर समय रहता पत्नि का किस्सा।
जब हुई उम्र चालीस,
करवाने लगे मालिस।

जब वर्ष हुए पचास,
नहीं रहा कोई खास।
जब वर्ष बीते साटा,
रहता है दो रोटियों का घाटा।

जब हुई उम्र सत्तर,
तन पे नहीं है कत्तर।
जब हुई उम्र अस्सी,
टूट ली जीवन की रस्सी।

जब हुई उम्र वर्ष नब्बे,
जहां थूकें वहीं दाबें।
जब वर्ष हुये सौ,
नहीं कोई डर, न कोई भौ।

-बलराम सिंह गुर्जर

Friday, June 13, 2008

नीड़ अब अपने नहीं



नीड़ अब अपने नहीं रह गये। बदलते समाज में आज बहुत से बुजुर्ग उनके नीड़ों से उजाड़े जा रहे हैं। संयुक्त परिवारों में बिखराव आ गया है। उनमें टूट-फूट है, दीवारें पता नहीं कब से गिर रही हैं। एहसास करने वाले एक कोने में चुपचाप यह तमाशा देख रहे हैं। अब उनका जीवन तमाशे से कम नहीं रह गया है। यह कोने पहले अपने घर का हुआ करता था, आज किसी अन्जान कोने में पड़े हैं। वहां क्यों कोई किसी से कुछ पूछे, किसी को क्या पड़ी है? यह आसान नहीं है घड़ी, तमाशबीन हैं सब, अपनें भी और पराये भी। सहारा किसी की सलामती की दुआ नहीं करता, वह मिल जाये तो सब सलामत।

सड़कें वीरान हैं तो हमसे क्यों पूछते हो? पता करो कि माजरा क्या है। कुछ ऐसी ही वीरानी बूढ़ों की जिंदगी में भी है। एक मायूसी सूखे पत्ते की खड़खड़ाहट से भी पैनी, बस सुनाई देने की देर है। जिल्द चढ़ी किताब के पन्ने कुतरें हुये पड़े हैं, ये भी कुछ-कुछ उनके जैसी दशा है। एक डोर छूटने को बेताब है। वक्त कहे तो छूट जाये।

लेकिन इतना सब हो गया, फिर भी कोई शोर नहीं। लगता है अब शोर थम गया है। आहटें कम हो गयी हैं। कंपकंपाती कहीं से आवाज आती है। आने दो, उसका भी मन है। वह भी एक दिन बंद लिफाफे में सिमट जायेगी, ढूंढने से भी नहीं मिलेगी।

हाथों की रेखायें गहरीं जरुर हैं, लेकिन उनमें कोई नदी बहती नहीं, रेत की भी नहीं। मायूसी के समंदरों के थपेड़ों की कोशिशें अब नाकाम नहीं होतीं, सूखी आंखें अब नहीं रोतीं, बस रोता तो मन है वो भी बिना रोये। यह राख अब गीली भी हो जाये कुछ फायदा नहीं। हलक सूख रहा है, सूखने दो। यह वक्त ही कुछ ऐसा है कि सारी नमी को छीन रहा है। बुढ़ापा तन्हाई की आदत और दुख का सैलाब ला रहा है।

बुढ़ापा तन्हाई की आदत और दुख का सैलाब ला रहा है। बहुतों ने इससे पार पाने की कोशिशें कीं, वे बूढ़ी हड्डियों के बावजूद अड़े हैं, पर कब तक?

-Harminder singh

मां ऐसी ही होती है

एक मां को बेटा याद कर रहा है. इन यादों के तिनकों को उसने एक-एक कर समेटा है. यह उसके ह्रदय की आवाज है. मां होती ही ऐसी है. बच्चा हंसता है, तो मां हंसती है. वह रोता है, तो मां भी रोती है. मां की ममता को पहचाना बहुत कम लोगों ने है. उसके लिये हमेशा छोटे ही हैं, दुलारे भी हैं और प्यारे भी. वह उमरदराज हो गई, उसने बीमारी से भी जान-पहचान की. कब अलविदा कह गई, पता ही नहीं चला.

ज्ञानेंद्र जी की माता जी काफी समय से बीमार थीं. कुछ समय पूर्व उनका देहांत हो गया. मां की याद में उन्होंने एक कविता लिखी है.
-हरमिन्दर सिंह
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मां

निस्वार्थ भाव से जना, एक अंकुरित बीज,
रोपा उसे संचित कर धरा पर, बढ़ने को पेड़ विशाल,

कोई जंगली कुचल न डाले, नन्हें उगते पौधे को,
ताड़-बाड़ बन बैठी वह, नन्हें के चारों ओर,

किया नींद का परित्याग, पेट को भी दिया अल्पहार,
लगी रही पालन-पोषण में, नित दिन-नित रात,

बनाया खून का पानी, छाती से कराया दुग्धपान,
नन्हें के खिलने पर खिली वह, मुरझाने पर मुरझायी,

पौधा बने न किसी पर आश्रित, बने न जीवन में लाचार,
शिक्षा-दीक्षा देकर, बढ़ाया मनोबल उसका अपार,

भटके न जीवन-पथ पर, बाधक न हो दुष्ट चट्टान,
नैतिकता का पाढ़ पढ़ाकर, किया भविष्य को तैयार,

हर घर में जाने को, भगवान बने जब लाचार,
‘मां’ की सृष्टि कर डाली, जानकर विल्पित आधार,

पेड़ बना जब विशाल, फल-फूलों को लदा-भरा,
जड़ में हुयी वह समाहित, देने को खाद-संस्कार,

कर्तव्य-दर-कर्तव्य निभाती वह, बात न हुई अधिकार की,
अनंत तक बनी रही प्रतिभूति, त्याग, तपस्या, सहृदयता, सद्भावना की,

उस कार्यकुशलता, महानता की प्रतिभूति को,
मैं भी करता नतमस्तक होकर, कोटि-कोटि प्रणाम।

-GYAN PRAKASH SINGH NEGI 'gyanender'
TEVA API (INDIA) Ltd.

Tuesday, June 10, 2008

यही बुढापा है, सच्चाई है.


जर्जर किताब के पात्र,
दुनियादारी के मयखाने के कोने में,
कुछ बुढापे में, थोडे धूल में सने हैं,
धूल की परत, पपडी बन आई है,
तो इसमें क्या बुराई है,
यह दस्तूर है, सच्चाई है.

एक बूंद की ठेस से,
परत चमक दिखा गयी,
हंसने वाले नहीं,
ये पात्र रोते हैं,
वजह क्या बतलाई है,
अक्षरों पर धुंध छायी है,
तो इसमें क्या बुराई है,
उदास मन की ओट में,
हर तरफ वीरानी जो छाई है,

छ्लकते पानी को हवा का झोंका,
रहा छीटों से नहला,
कभी इस ओर, कभी उस ओर,
तडपती रुहों की गरमाई है,

अगर सरकती नहीं टांगें,
तो इसमें क्या बुराई है,
यही बुढापा है, सच्चाई है.

हरमिन्दर सिंह द्वारा

Saturday, June 7, 2008

ये मेरी दुनिया है




ये उजाले होते हैं कैसे,
मैंने नहीं देखे,
मेरी राहें अब बंद हैं,
बस्ती है मेरी यही कुटिया,
यहां से कुछ जाता नहीं,
यहां से कोई आता नहीं,
नहीं लगे हैं यहां मेले,
ये मेरी दुनिया है,
ये मेरी दुनिया है,

रुखी हैं यादें,
तन्हाईयां भी कम नहीं,
गम बहुत हैं,
चहक बिल्कुल नहीं,
ये मेरी दुनिया है,
यहां उजाला नहीं,
शांत और काली दुनिया,
कुछ अजीब है,
अपनापन बिल्कुल नहीं,

अब बस सोने की तमन्ना है,
रोया भी खूब नहीं,
आसान नहीं हंसना अब,
मुश्किल वक्त काटना नहीं,
ये मेरी दुनिया है,
अपनी है, फिर भी अपनी नहीं।

by BHAGAT JI

Tuesday, June 3, 2008

अपने अंतिम दिनों में

किस्मत खेल करती है और उस खेल को देखा जा सकता है, भुगता जा सकता है, लेकिन वह आज तक समझा नहीं जा सका। औरों के लिये ही सब किया अपने एक ख्वाब देखा जिसका बुलबुला पता नहीं चला कब फूट गया।

अंतिम दिनों का कष्ट सारे जीवन के आनंद, सुख और रस को एक झटके में समाप्त कर देता है। मुंशी जी की दशा दिन--दिन बिगड़ती चली गयी। चारपाई की चर-चर अब कम ही होती थी। वेलेटे-लेटे ही अखबार पढ़ते थे, गन्ने की पोरी को छीलने की आदत अभी भी उनके बुढ़ापे को संक्षय में डालती थी। रेडियो उनके पास रखे एक स्टूल पर अब भी बजता था। उनके पास बच्चे कम फटकते थे क्योंकि वे उन्हें झिड़क देते थे


मुंशी निर्मल की यादों की बस्ती को कुरेदने की कोशिशें जारी हैं। उनके पुत्र मुंशी भोला सिंह हमें उस बस्ती में ले चलते हैं जहां एक बूढ़ा बैठा है। एक टूटी चारपाई है। कुछ बुदबुदा रहा है। पता नहीं क्यों वह कुछ साफ-साफ नहीं कह पाता। यह मुंशी निर्मल सिंह हैं। वे अब इतने जर्जर और गतिशील हो गये हैं कि सब कुछ अलग-अलग सा लग रहा है। पहले उनके आसपास लोगों का जमावड़ा होता था, आज नहीं है। हालांकि आज वे भी नहीं हैं, लेकिन यादों का सिलसिला जारी है जो आगे भी शायद इसी तरह चलता रहे। मुंशी जी हमारे और आपके बीच जीते रहें।

मंशी भोला सिंह कहते हैं,‘‘उनका अंतिम समय कठिन था। उनकी मानसिक स्थिति क्षीण पड़ गयी थी। एक तरह से कहें तो झुंझलाये रहते थे। व्यवहार से एकदम रुखे हो गये थे। हर किसी को ड़ांटने लगे थे। बीच-बीच में ऐसा करते हुये वे आंखों से एक-आद आंसू भी छलका देते थे।’’

बड़ा कठिन समय था वह जब एक बूढ़ा विलाप करने की कोशिश करे और किया न जाये। वे रोते थे तो रोया नहीं जाता था, आवाज रुक गयी थी। खाते तो खाया नहीं जाता था।

उनकी गायों की हालत देखकर दुख होता था जो उनके पास एक नीम के पेड़ से बंधी थीं। वे भी अंतिम समय तक शांत रहीं।

अंतिम दिनों का कष्ट सारे जीवन के आनंद, सुख और रस को एक झटके में समाप्त कर देता है। मुंशी जी की दशा दिन-ब-दिन बिगड़ी चली गयी। चारपाई की चर-चर अब कम ही होती थी। वे लेटे-लेटे ही अखबार पढ़ते थे, गन्ने की पोरी को छीलने की आदत अभी भी उनके बुढ़ापे को संक्षय में डालती थी। रेडियो उनके पास रखे एक स्टूल पर अब भी बजता था। उनके पास बच्चे कम फटकते थे क्योंकि वे उन्हें झिड़क देते थे।

सुबह की किरण से पहले उठने की उनकी आदत जारी थी। शरीर धीरे-धीरे जबाव दे रहा था। अपनी अंतिम विदाई से एक दो दिन पूर्व वे खूब रोये, जी भर रोये। पता नहीं क्या याद किया, क्या पछतावा किया, लेकिन उनकी आवाज मानो अब रुक सी गयी थी। इशारों में कुछ कहने की कोशिश करते, कह नहीं पाते। फिर एक आसूं की बूंद उनके जर्जर हाथों पर टपक पड़ती।

‘‘इससे आगे मैं बता नहीं सकता......।’’ इतना कहकर मुंशी भोला सिंह अपने पिता को याद कर चश्मे को नीचे करते हैं। एक आंसू यहां भी गिरा। यह पिता को याद कर दूसरे बूढ़े की आंखों की नमी दर्शा गया। प्रेम और अपनेपन की झलक दे गया जो आगे के वक्त में शायद काम आये या ना आये, लेकिन यादों के झरोखे से झांकने पर हर बार महसूस की जायेगी।

हरमिन्दर सिंह द्वारा
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कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com