बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Tuesday, March 23, 2010

मामा की चाल

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सादाब का मामा उनके घर ज्यादा आने लगा था। उसकी अम्मी खर्च चलाने के लिए पड़ौस के एक घर में चौका-बरतन करने लगी थी। यह उनकी मजबूरी थी।

सादाब के पिता ने जैसे-तैसे कर मिट~टी की ईंटों से चार दीवारें खड़ी की थीं। बाप की जमीन का उतना ही टुकड़ा बचा था जिसपर दीवारें खड़ी थीं।

मामा की नीयत में खोट आता जा रहा था। उसकी नजर गिद्ध की तरह थी। सादाब की अम्मी तीन बच्चों के साथ जहां गरीबी से जंग लड़ रही थी वहीं मामा झपट~टा मारने की बाट जो रहा था। उसमें उतनी चपलता नहीं थी, लेकिन पाशों को फेंकने में वह माहिर था। उसकी आंखें बिल्ली की तरह थीं। सुना जाता है कि ऐसे लोग मौका मिलते ही वार करने से नहीं चूकते। फिर वहां तो शिकार काफी कमजोर व असहाय था। मामा सोच रहा था कि बिना लाठी तोड़े काम बन जाए।

सादाब की अम्मी अपने भाई पर हद से ज्यादा भरोसा करती थी। शौहर की मौत के बाद मजलूम बेवा की तरह जी रही थी वह। अनपढ़ थी, अंगूठा लगाना जानती थी। मामा ने उसे किसी तरह राजी कर लिया। वह उन्हें अपने घर ले आया। कुछ दिन उसने खूब खातिरदारी की, लेकिन एक रात वह घर आधी रात आया। दो आदमी उसको सहारा दे रहे थे। वह नशे में इतना चूर था कि उसकी आवाज उसी की तरह लड़खड़ा रही थी। पास पड़ी चारपाई पर उसे डाल दिया गया। उसकी जेबों से नोट बाहर बिखर गये। बहन ने भाई का ऐसा रुप पहले देखा नहीं था। सादाब की अम्मी घबरा गयी।

रोज का सिलसिला यही होता रहा। अब घर में शाम को जुए और जाम की महफिल सजने लगी। भाई की हरकतों से आजिज आकर सादाब की मां ने साफ कह दिया कि वह उसकी जमीन के सारे रुपये लौटा दे। वह कहीं भी जाकर अपनी और बच्चों की गुजर-बसर कर लेगी। इसपर मामा तन गया। उसने कहा कि रुपये तो खर्च हो गए। जो बचे हैं वह ले सकती है। सादाब की मां मजबूर थी, इसलिए वह कुछ हजार रुपये अपने साथ लेकर बच्चों सहित भाई के घर से निकल गयी।

ऐसा होता है बुरा वक्त जिसका तमाशा जिंदगी को वीरान कर देता है। पति मरा, भाई ने धोखा दिया, और आसरा..........वह भी न रहा। तीन औलादों की किसी तरह परवरिश करनी थी।

उस मां ने किसी तरह ईंट-पत्थर-गारा ढोया, मजदूरी की। बच्चे बड़े होते रहे। मां का हाथ बंटाते रहे। मजदूरी उन्होंने भी की। सादाब ने कई जगह काम किया, मेहनत कर पैसा कमाया। कुछ गज जमीन पर एक कमरा बना लिया। उसकी अम्मी बीमार रहने लगी थी। दोनों बहनों की उम्र शादी को पार कर चुकी थी।

कहीं से अचानक मामा को उनका पता लग गया। वह अपनी बहन को दुखड़ा सुनाता रहा। बीमार बहन को फिर भाई पर दया आ गई। सादाब ने अपने मामा को देखा तो वह बहुत गुस्सा हुआ, लेकिन अम्मी की तबीयत उसका साथ नहीं दे रही थी। अपनी मां के कहने पर सादाब ने मामा को छोटा-मोटा काम दिलवा दिया। सुबह जाकर मामा शाम को आता।

रुखसार की शादी का इंतजाम सादाब कर रहा था। उसके ब्याह के लिए लड़के की तलाश जारी थी। संयोग से योग्य लड़का मिल गया। वह काफी भला था और अच्छा कारीगर भी। कमाऊ और मेहनती दामाद मिल जाने की आस कब से दिल में लिए थी सादाब की अम्मी। सपना पूरा होने जा रहा था।

कभी-कभी जिन घटनाओं का हम खूब इंतजार कर रहे होते हैं उनमें खलल पड़ जाने की टीस बड़ी होती है। सादाब की अम्मी की तबीयत बिगड़ रही थी। इलाज से कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा था। एक चारपाई पर वह पड़ी रहती। उसकी खांसी कम नहीं हो रही थी। उसके कदम धीरे-धीरे ही सही, ऐसा लगता था जैसे मौत की ओर बढ़ रहे हैं।

सादाब रुखसार को बाजार से कपड़ा दिलाने गया था। जीनत ने जाने की जिद की। मामा ने कहा कि वह घर पर ही रहेगा। उसने यह भी कहा कि अपनी बहन की उसे बहुत फिक्र है। यदि वह पानी या दवा मांगेगी तो वह उसके पास होगा। अपनी बहन के लिए वह एक दिन काम पर नहीं गया कोई पहाड़ थोड़े ही टूट जायेगा। पहले बहन है, बाद में उसका काम।

तीनों के जाने के बाद मामा की खुराफात शुरु हो गई। उसने सामने रखी संदूक पर नजर दौड़ाई। उसपर ताला लटका था। अपनी बहन से उसने चाबी मांगी। बहन ने इंकार कर दिया। मामा ने जबरदस्ती करनी चाही। मामा ने उसके चेहरे पर आवेश में आकर एक तमाचा जड़ दिया। सादाब की मां बेहोश हो गयी। मामा ने पूरे घर में सामान उलट-पुलट दिया। एक-एक कपड़े को झाड़कर देखा, चाबी कहीं नहीं मिली। बाहर से ईंट का टुकड़ा लाकर उसने संदूक का ताला तोड़ दिया। सादाब ने कुछ हजार रुपये और सामान उसमें रखा था। मामा ने एक गठरी में सब भर लिया। सादाब की अम्मी को होश आ चुका था। वह उठ तो नहीं सकती थी, लेकिन देख सब रही थी। हल्की आवाज में उसने गठरी बांध रहे भाई से कहा कि अल्लाह की शर्म करो। सादाब ने जैसे-तैसे कर रुपये इकट~ठा किये हैं, रुखसार के हाथ पीने होने से रह जायेंगे। बिरादरी सामने उनकी क्या इज्जत रह जायगी?

मामा ने गठरी बांध ली। उसे डर था कहीं उसकी बहन शोर न मचा दे। उसने उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया और हाथ-पैर चारपाई से बांध दिये। सारा सामान लेकर चला मामा चला गया। बहन की आंखों से आंसू झरझर बह रहे थे। इसके अलावा वह कर भी क्या सकती थी?

लोग कितने मतलबी होते हैं। दुनिया में रिश्तों का खून अक्सर होता रहता है। कोई किसी का अपना नहीं, सब मतलब के यार हैं। रिश्ते निभाना कौन जानता है? कोई भी तो नहीं। जिसका बस चलता है, वह काबिज होने की कोशिश करता है। कमजोर को जितना अधिक कुचला जाए, उतना कम है। भाई के लिए बहन केवल कहने के लिए हैं। सादाब का मामा सही मायने में भ्रष्ट और क्रूर इंसान था। उसे सिर्फ खुद से वास्ता था।

-to be contd.......

-harminder singh

Friday, March 19, 2010

हर पल जीभर जियो

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‘‘छोटी-छोटी खुशियां हमारे लिए कितने मायने रखती हैं। जरा सी खुशी पाकर हम फूले नहीं समाते। असल में इसका असर गहरा होता है। सीधा हृदय पर जाकर लगता है। लोग दिल से खुश होते हैं, तो कितना अच्छा लगता है। आंखें भर आती हैं। पलकें भीग जाती हैं। सच्चे अर्थों में इंसान खुश होता है।’’बूढ़ी काकी बोली।

काकी किसी विचार में डूब गयी। उसका चेहरा गंभीर हो चला था। मैंने उसकी हथेली को छूकर देखा। रेखायें गहरी थीं। दरारों के बीच की दूरी सिमटी कहां थी? बल्कि गहराई तिड़की हुई थी। शुष्क हथेली खुरदरेपन का अहसास कराती थी। चमड़ी में खिचाव की बात कब की खंदकों में दफन हो चुकी। इस समय घास के तिनके भी हाथ आ जाएं तो गनीमत है। खैर, कोशिश जारी है।

काकी फिर बोली,‘‘छोटी-छोटी चीजों को इक्ट~ठा कर उनसे कोई बड़ी चीज बनाई जाती है। हम यही करते हैं। खुशियों के कारण प्राय: मामूली होते हैं। किसी के लिए कोई बात खुशी लाती है, तो कोई किसी बात पर खुशी के आंसू बहाता है।’’

‘‘अक्सर इंसान इंसान के लिए खुशी बांटता है। कुछ उसे हासिल कर लेते हैं, कुछ वंचित रह जाते हैं। कई ऐसे भी होते हैं जिनके हिस्से की खुशी छिन चुकी होती है। वे वीरान संसार का हिस्सा खुद को समझने से परहेज नहीं करते। शायद यह उनकी आदतों में शुमार हो जाता है।’’

‘‘कुछ शायद दूसरों से इस कदर जुड़ाव महसूस करने लगते हैं कि उन्हें अपने हिस्से की खुशी देने की कोशिश करते हैं। ये वे होते हैं जो दूसरों की खुशी से अपनी खुशी हासिल करना चाहते हैं। कुछ खास लोगों को वे पता नहीं क्यों दुखी नहीं देखना चाहते। यह स्वत: ही होता है। दूसरों को यह अजीब जरुर लगता है, लेकिन उतना होता नहीं। वे सोचते हैं कि उन्हें संसार का सबसे बड़ा सुख मिल गया, पल भर में, सिर्फ हंसकर ही।’’

‘‘कुछ ऐसे भी होते हैं जो खुशी खरीदते हैं। जबकि हम यह जानते हैं कि न जिंदगी खरीदी जा सकती है, न उससे मिलने वाली खुशी। मैं कहती हूं इंसान हर पल को जीभर कर जीना सीखे। चूम ले रोशनी को ताकि सूरज निकलने का इंतजार न करना पड़े। दूसरों से लगाव करना सीखे वह। उनके शब्दों को समझे, मीठा बोले, तो कितना कुछ आसान हो जाए।’’

‘‘खुद से कहे कि वह हर पल को जीना चाहता है। इतना शानदार कि उसका चित्त हंसता रहे बिना अवरोध के। जिंदगी का क्या पता कब थम जाये। वह यह सोचे कि वह कितना खास है खुद के लिए, और उसकी एक मुस्कराहट उसके और दूसरों के जीवन में क्या कुछ बदल सकती है।’’

काकी ने जितना जीवन जिया खुद को खास मानकर जिया। वह जिंदगी के उस मोड़ पर खड़ी है जहां फर्श की दरारें दूरी बनाती जा रही हैं, इंतजार सिर्फ इंसान के धंसने का है।

-harminder singh

Wednesday, March 10, 2010

गीता पड़ी बीमार


गीता बीमार हो गयी। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। रघु के पेट में गड़बड़ जारी थी। उधर मैं भी दादी से पेट दर्द की शिकायत कर चुका था। लगता था, आमों का लालच इसका कारण था।

  दादी ने मुझसे कहा,‘क्यों आम चुराये?’

  ‘मैंने कहां चोरी की।’ मैं बोला। ‘रघु पेड़ पर चढ़कर आम तोड़े जा रहा था। मैं इकट~ठा कर रहा था, बस।’

  ‘चोरी में तुम भी शामिल थे न।’

  ‘पर दादी। मैंने चोरी नहीं की।’

  ‘मैंने कब कहा, तुमने चोरी की।’

  ‘ओह, दादी छोड़ो। यह बताओ कि पेट का दर्द कैसे दूर हो?’

  ‘पहले अपनी गलती मानो।’ दादी बोली।

  ‘चलो, माफ कर दो। अगली बार ऐसा नहीं होगा।’ मैंने मुंह पिचकाकर कहा।

  ‘ठीक है, मैं तुम्हारे लिए एक औषधि बनाती हूं। उसे पीकर तुम स्वस्थ हो जाओगे। थोड़ी तीखी होगी, पर आंख बंद कर गटक जाना, समझे तुम।’ दादी ने कहा।

  मैंने दादी का कहा अमल किया। औषधि जितनी तीखी थी, वह मैं ही जानता हूं। मैंने झट गुड़ का एक टुकड़ा खाया, तब जाकर मेरी हालत काबू में आयी।

  मैं सीधा रघु के घर पहुंचा। वह दीवार से पीठ सटाये पहाड़े याद कर रहा था। मैंने उससे हालचाल पूछा।

  वह बोला,‘अब ठीक हूं। तुम्हारे पेट का दर्द कैसा है?’

  मैंने दादी की औषधि का जिक्र किया। यह सुनकर रघु की हंसी छूट पड़ी।

  ‘तीखी, वाह! कमाल हो गया।’ रघु ने कहा।

  ‘मैं सच कह रहा हूं। मुझे बाद में गुड़ खाना पड़ा।’ मैं बोला। ‘खैर, हंसना छोड़। यह बता कि गीता की तबीयत सुधरी की नहीं।’

  ‘सुधार हो रहा है। डाक्टर ने अभी कुछ दिन उसे अस्पताल में रहने को कहा है। मां उसके साथ है।’ रघु गंभीर था।

  हम अस्पताल में पहुंचे। गीता हमें देखते ही उठने को हुई, पर नर्स ने उसे रोक लिया।

  ‘अब आम चुराने रघु के साथ मत जाना और हां, इतने आम मत खाना।’ मैंने मजाक किया।

  गीता हल्का मुस्कराई।

  रघु सांप-सीड़ी का खेल लाया था। हमने वहीं खेलना शुरु कर दिया। गीता लेटी हुई ही अपनी चाल बताती जाती। मैं गोटी आगे खिसकाता जाता। गीता ने हम दोनों को हरा दिया। कई बार मुझे हार का सामना करना पड़ा, मगर गीता हर बार जीत जाती। रघु ने गोटियां बदलने की असफल कोशिशें कीं, पर मैंने उसे देख लिया।

  ‘तुम बाज नहीं आओगे रघु।’ मैंने कहा। ‘चालाकी करते जरुर हो। जीतने से तो रहे।’

  ‘मैं नहीं जीत पा रहा, लेकिन गीता को तुम भी हरा नहीं पाओगे।’ रघु बोला।

  खेल से ऊब जाने के बाद रघु बोला,‘चलो एक दूसरे से पहाड़े सुनते हैं।’

  मै चौंका,‘पहाड़े।’

  ‘पहाड़ों से मुझे चिढ़ हैं। कोई और खेल खेलते हैं।’ मैं कहा।

  ‘फिर क्या गेंद-बल्ला अस्पताल में खेलोगे।’ रघु बोला।

  काफी देर बहस के बाद हमने निश्चय किया कि गीता जिस खेल को कहेगी, वह खेला जायेगा। गीता ने कहा कि वह पहाड़ों का खेल खेलना चाहेगी। गीता की बात कैसे टाली जा सकती थी?

  खेल के अनुसार जिसका नंबर आता वह किसी से भी कोई पहाड़ा पूछ सकता था, लेकिन केवल 15 तक। मुझे दो, तीन, दस और ग्यारह का पहाड़ा पक्का रटा था। पहाड़ों के इस खेल में मेरी पोल खुलती गयी। रघु की मां पास में बैठी हमें देख रही थी। मुझे एक भी पाइंट न मिल सका। उल्टा पास बैड पर पड़ा एक मरीज मुझ पर हंस रहा था। उसने कहा,‘क्या स्कूल के पीछे पढ़ते हो भाई, जो चार का पहाड़ा भी ढंग से याद नहीं।’ गीता भी हंसी न रोक पायी। देखा देखी वहां मौजूद सभी लोग ठहाका लगाकर मुझपर हंस पड़े। शर्म के मारे मैं मुंह नीचा कर बैठा रहा।

  मैंने सोचा कि इससे अच्छा अस्पताल ही न आता। कम से कम उपहास तो न होता। मैं मन ही मन रघु को कोस रहा था और साथ ही गीता को जिसने पहाड़ों का खेल खेलने को कहा था। पहाड़े मेरे लिए पहाड़ चढ़ने के समान थे। मैं मन ही मन सोच रहा था कि किस दिन पहाड़ की चोटी पर झंडा फहराऊंगा, लेकिन चढ़ाई बहुत कठिन थी। 

-harminder singh

Wednesday, March 3, 2010

शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का




पंद्रह वर्ष की पूर्व भी होली के रंग में सराबोर थे लोग जब पता चला कि मुंशी निर्मल सिंह सौ वर्ष की आयु पूरी कर दिवंगत हुए। लोग उनके शव को अंतिम संस्कार के लिए मुंशी जी के गांव छीतरा से तिगरी गंगा तट पर ले गये थे। यहां ऐसा दृश्य था कि सभी लोग रंग में सराबोर थे। सभी ने मुंशी जी का अंतिम संस्कार करने के बाद गंगा नदी में स्नान किया था। बूढ़े जवान तथा किशोर भी उस भीड़ में शामिल थे जो मुंशी जी के स्वर्गवास के बाद बेहद गमगीन थे।

मुझे उस दिन मेरे पूछने पर उनके गांव के एक वृद्ध व्यक्ति ने बताया था कि ऐसे लोग संसार में कभी-कभी अवतरित होते हैं। वृद्ध ने अपनी बात जारी रखी तथा कहा कि उन्हें शिक्षा से बेहद प्यार था। वे अपनी किशोर व्यय से ही इस प्रयास में थे कि लोग शत प्रतिशत शिक्षित हों।

बात सन 1920 की है जब उनकी आयु लगभग 25 वर्ष की थी और हम खेलने कूदने की उम्र में थे। मुंशी जी ने गांव के बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया था। वे किसी से कोई फीस नहीं लेते थे तथा हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे। वैसे वे पंजाबी और अंग्रेजी भी लिख पढ़ सकते थे।

तब दूर-दूर तक कालेज तो दूर स्कूल भी नहीं था। यही कारण था कि बछरायूं तथा भगवानपुर के कई युवक जिनमें मुसलिम अधिक थे उनसे उर्दू पढ़ने आने लगे। गांव के बच्चे उनसे पहले ही पढ़ रहे थे। वे अपनी चौपाल पर कभी छप्पर के नीचे और कभी नीम के पेड़ के नीचे पढ़ाते थे।

बाद में देश आजाद होने पर उन्होंने अपनी भूमि पर गांव में ही एक प्राइमरी स्कूल भी खुलवाया। जिसका संचालन बाद में जिला परिषद ने ले लिया। यहां के पहले प्रधानाध्यापक बल्दाना हीरा सिंह निवासी मास्टर यादराम सिंह बने। यादराम सिंह की आयु लगभग 90 वर्ष है और वे सकुशल हैं।

यादराम सिंह जी के अनुसार मुंशी जी ने शिक्षा की लौ उस समय जलाई जब क्षेत्र क्या देश में भी इस दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं हो सकी थी। उन्होंने बताया कि वे भी मुंशी जी से पढ़े थे। उन्होंने कभी किसी छात्र से कोई भी पैसा या किसी तरह की फीस आदि नहीं ली बल्कि कई निर्धन छात्र-छात्राओं की उन्होंने आर्थिक मदद भी की। कई छात्र बाद में उच्च पदों पर पहुंचे।

वह ऐसा दौर था जब गांव तो क्या शहरों में भी इक्का-दुक्का समाचार पत्र आते थे लेकिन उस समय मुंशी जी के पास एक दर्जन पत्र-पत्रिकायें नियमित आती थीं। दिल्ली से प्रकाशित सेवाग्राम, ग्राम युवक, खालसा समाचार (हिन्दी और पंजाबी), सोवियत संघ से युवक दर्पण, सोवियत देश (पंजाबी), सोवियत संघ (हिन्दी), सोवियत लैंड (अंग्रेजी), सोवियत नारी (हिन्दी व पंजाबी) सहित दर्जन भर रुसी पत्र-पत्रिकायें वे मंगाते थे।

इसी के साथ गीता प्रेस की कल्याण मासिक पत्रिका उनके पास लगातार आती रही। जिनकी कई प्रमुख प्रतियां आज भी मुंशी जी के परिवार वालों के पास हैं। इसी से मुंशी जी का शिक्षा के प्रति रुझान का पता चलता है। वे लोगों तथा छात्रों से अखबार पढ़ने को कहते थे। वे कहते थे, पैसे खर्च करने की भी जरुरत नहीं। उनके पास आकर पढ़ लिया करो।

शिक्षा, साहित्य और पुस्तकों से उनको इतना प्रेम था कि उन्होंने ही अपने घर एक काफी बड़ी लाइब्रेरी स्थापित कर ली थी। जिसमें हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी, रसियन, फारसी, संस्कृत और चीनी भाषा की पुस्तकें आज भी मौजूद हैं। इन पुस्तकों में सबसे अधिक संख्या धार्मिक पुस्तकों की है। हिन्दु-मुस्लिम, सिख और ईसाई धर्म से संबंधित पुस्तकें उनके पास मौजूद थीं। जिन्हें वे सभी धर्मों के लोगों को पढ़ने को दिया करते थे। वे सभी धर्मों का समान आदर करते थे। यही कारण था कि सभी धर्मावलंबी उनके पास श्रद्धा और प्यार के साथ पहुंचते थे। उन्हें सभी धर्मों के दर्शन की गहरी जानकारी थी। यह उनके गूढ़ अध्ययन के कारण थी। उनकी बातों को बच्चे, युवा, बूढ़े और महिलायें बहुत ही ध्यान से सुनते थे और उनपर अमल करने का पूरा प्रयास करते थे।

अपनी जेब से खर्च कर वे जो अखबार तथा पुस्तकें मंगाते थे उनसे वे तो लाभान्वित होते ही थे साथ ही लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित कर सभी को लाभान्वित करने का प्रयास करते थे। कभी-कभी लोग कई महत्वपूर्ण पुस्तकों को वापस नहीं करते थे।

बहुत दिन तक दिल्ली के एतिहासिक गुरुद्वारे बंगला साहिब के हेड ग्रंथी रहे ज्ञानी हेम सिंह का कहना है कि उनका परिवार बेहद गरीबी में था। उस समय वे दस वर्ष के थे। मुंशी जी ने उनपर तरस खाया और दिल्ली के एक गुरमत विद्यालय में निशुल्क शास्त्रीय संगीत तथा धार्मिक प्रवचन आदि के लिए दाखिल कराया। ज्ञानी जी का कहना है कि मेरे कपड़े और किराया स्वयं मुंशी जी ने ही दिया था। वे बराबर मेरी कुशल क्षेम पूछने दिल्ली आते रहे। यदि वे मेरी सहायता न करते तो मेरा भविष्य पता नहीं कितना बदतर होता।

इस तरह के लोगों की कमी नहीं जो मुंशी जी के प्रयास से जीवन में सफल रहे। दिल्ली चांदनी चौक स्थित गुरुद्धारा रकाबगंज में स्थित श्री गुरु तेगबहादुर लाइब्रेरी की स्थापना में भी उनकी अहम भूमिका रही। राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक में इस संबंध में सन 1996 में एक लेख भी छपा है।

मुंशी जी ने गजरौला के शिव इंटर कालेज के निर्माण में भी भरपूर सहयोग दिया था। इसका निर्माण स्व. शिव किशोर वैद्य ने किया था। मंडी धनौरा के गांधी इंटर कालेज के निर्माण में भी उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया। उनके रिश्तेदार मुंशी यादराम सिंह जीवन पर्यन्त इस कालेज के अध्यक्ष रहे। यह कालेज मंडी धनौरा निवासी साहू साहब ने स्थापित कराया था। जेपी नगर के फत्तेहपुर छीतरा में स्थित गुरु नानक जू.हा. स्कूल मुंशी जी द्वारा ही स्थापित है। पहले इस गांव में कोई भी स्कूल नहीं था।

मुंशी जी केवल क्षेत्र ही नहीं पूरे भारत को शिक्षित देखना चाहते थे। आजादी से पूर्व अविभाजित भारत के लाहौर और अमृतसर की वे बराबर यात्रायें करते थे। जहां शिक्षा संबंधी सभाओं में वे स्पष्ठ वक्ता होते थे। उनकी वाकशैली से श्रोता इतने प्रभावित थे कि लोग उनके मंच पर आते ही खुशी व हर्षोल्लास से उछल पड़ते थे।

इस लेख में शिक्षा के क्षेत्र में मुंशी जी के विशिष्ट प्रयास पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। उन्होंने इतना काम किया कि जिसे लिखने में एक पुस्तक तैयार हो जायेगी। उनकी यह विशेषता रही कि उन्होंने कभी भी अपने नाम का प्रचार नहीं किया। जिन संस्थाओं को उन्होंने खड़ा किया उनमें भी अपना नाम नहीं जोड़ा। यह भी एक अविस्मरणीय बात है कि वे दीपावली को जन्में और होली पर हमेशा के लिए आसार संसार से विदा हो गये। हम उन्हें कभी भुला नहीं पायेंगे।


-G S chahal 
editor gajraula times

Monday, March 1, 2010

लंगूर वाला



मैं अपनी कापी में सवाल हल कर रहा था। तभी दादी ने कहा कि वह मेरे बालों में मालिश करेगी ताकि मेरा दिमाग चुस्त रहे। मैंने दादी से कहा कि पहले मालिश हो जाए बाद में सवाल हो जायेंगे। दादी ने बालों में तेल रगड़ना शुरु किया। इतने में रघु दौड़ता हुआ आया और बोला,‘सुना है आज गांव में लंगूर का खेल दिखाने वाला आ रहा है। जल्दी कर वह आता ही होगा।’ उसने मेरा हाथ पकड़कर मुझे उठा दिया।

  मैंने कहा,‘रुक तो सही, दादी से सिक्के ले लूं।’ बालों पर आधा-अधूरी मालिश ही हुई थी। दादी ने कहा,‘बेटा इतनी जल्दी काहे की, पहले एक काम तो पूरा हो जाने दे।’

  मैंने दादी से कहा कि बाद में हो जायेगा। कुछ सिक्के ले मैं रघु के साथ चल पड़ा।

  डुगडुगी की आवाज आनी शुरु हो गयी थी।

  मैंने कहा,‘लगता है वह आ गया। दौड़ लगानी पड़ेगी।’

  गांव के बीच बरगद के पेड़ के नीचे हम दोनों हांफते हुए पहुंचे। लंगूर वाला व्यक्ति डुगडुगी बजा लोगों को इकट~ठा कर रहा था। वह कहा रहा था,‘नाच देखो, नाच देखो। भाईयो ऐसा तमाशा पहले कभी देखा नहीं होगा आपने। आओ, सब आओ, लंगूर तमाशा शुरु करने वाला है।’

  तमाशा शुरु हो गया। हमने बीच-बीच में तालियां बजाईं। लंगूर उछलकर पेड़ पर चढ़ जाता और पूंछ से उलटा लटक जाता। वह अपनी पूंछ को हवा में घुमाकर हमें हैरान कर देता। बंदर का खेल हमने कई बार देखा था, मगर लंगूर का खेल देखना पहला अनुभव था। गीता भी वहीं मौजूद थी। वह रघु की छोटी बहन थी।

  खेल खत्म होने के बाद तमाशा दिखाने वाले ने जमीन पर एक कपड़ा फैला दिया और बोला,‘भाईयो, सब पेट की खातिर है। तमाशा हमारी रोजी-रोटी है। जो इच्छा हो गरीब के कपड़े पर डाल दो। भगवान आपका भला करेगा। यह जानवर आपको दुआ देगा।’

  मैंने सिक्का कपड़े पर फेंक दिया। रघु ने जेब टटोली। फिर उसने गीता से कहा,‘जा मां से एक सिक्का ले आ।’

  गीता दौड़ी चली गयी। काफी देर बाद भी वह नहीं लौटी तो रघु को चिंता हुई। उसने मुझे साथ लिया और अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में हमने देखा कि गीता आम के पेड़ के नीचे बैठी रो रही है। वह पके आम के छिलके से फिसल गयी थी। उसकी बांह में मोच आ गयी और टांग दर्द कर रही थी। रघु उसे गोद में उठाकर घर पहुंचा आया।

  तभी लंगूर वाला व्यक्ति आम के पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठ गया। लंगूर उसने पेड़ के तने से बांध दिया। उसकी लाठी और उसपर बंधा थैला जो कपड़े का बना था, वहीं पास में रख लिया। हमें जब यकीन हो गया कि वह सो गया, तब रघु ने चुपके से लंगूर की रस्सी खोल दी और हम झाड़ियों के पीछे छिप गये।

  लंगूर उछलकर पेड़ पर जा बैठा। कुछ समय बाद उस व्यक्ति की आंख खुली। उसने इधर-उधर देखा। लंगूर कहीं नहीं था। उसके होश उड़ गये। तभी उसकी नजर पेड़ की शाखाओं पर पड़ी। लंगूर की पूंछ उसे लटकती नजर आ गयी। उसने आवाज देकर लंगूर को बुलाना चाहा। पर वह लाख जतन के बाद भी पेड़ से नहीं उतरा। हमारी हंसी छूट पड़ी। उस व्यक्ति को पक्का यकीन हो गया कि उसका लंगूर हमने ही खोला था। वह लाठी और थैला लेकर हमारी ओर दौड़ा। लेकिन हम उससे काफी तेज दौड़े। वह थक कर बैठ गया। हम भी रुककर उसे देखते रहे। जब कोई उपाय समझ न आया तो वह व्यक्ति बोला,‘बच्चों मुझे पता है तुमने मेरा लंगूर रस्सी से खोला है। मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा। उसे पेड़ से उतारने में मेरी मदद करोगे।’

  हमें उसपर दया आ गयी।

  करीब दो घंटे की मशक्कत के बाद लंगूर को हम तीनों ने पेड़ से उतार ही लिया। को्शिश केवल लंगूर वाले की थी। हम वहां भी सिर्फ तमाशा ही देख रहे थे। वह लंगूर की कभी पूंछ पकड़ता, कभी उसे ‘बच्चा’ कहकर नीचे आने को कहता। उस व्यक्ति ने हमारा बिना बात के ही धन्यवाद दिया।

  गीता दो दिन में स्वस्थ हो गयी। रघु ने बताया कि क्यों न हम तीनों पास के गांव में फिर तमाशा देखने चलें। उसने बताया कि वह लंगूर वाला अभी गांव-गांव घूम रहा है और खेल दिखा रहा है। दादी से कहकर मैं, गीता और रघु के साथ पास के गांव पैदल चल दिए। गांव कुल एक किलोमीटर की दूरी पर था।

  भीड़ जुटने लगी थी। लोगों के बीच में जगह बनाकर हम भी भीड़ में घुस गये। मैंने रघु का हाथ थामा था और रघु ने गीता का। कुछ ही पलों में हम सबसे आगे थे। लंगूर वाला हमें देखकर मुस्कराया और हम भी। थोड़ी देर में खेल समाप्त हुआ और तामझाम इकट~ठा कर वह जाने की तैयारी करने लगा।

  तभी मैंने उससे कहा,‘आपका लंगूर दुबला लगता है। कुछ खाने को देते नहीं क्या?’

  ‘इतने पैसों में अकेले इंसान का पेट नहीं भरता, फिर यह तो जानवर है।’ लंगूर वाला रुखी जुबान में बोला।

  मैं गंभीर हो गया। मैंने कहा,‘फिर गुजारा कैसे चलता है।’

  ‘गांव वाले जो कुछ देते हैं, उसे ही रख लेते हैं।’ वह बोला।

  रस्सी पकड़कर उसने लंगूर को खींचा। लंगूर अपने मालिक के पीछे-पीछे चल दिया।

  मैंने कहा,‘सुनो ओ लंगूर वाले।’ वह रुक गया। उसने पीछे मुड़कर देखा।

  मैंने आगे कहा,‘तुम्हारा लंगूर आम खाता है।’

  उसने कहा,‘हां, कोई भी फल खा लेता है। पर क्यों?’

  ‘हम तुम्हें ढेर सारे आम तोड़ कर देंगे। खुद भी खा लेना और अपने लंगूर को भी जी भर खिलाना।’ मैंने कहा।

  उसने हमारी तरफ ध्यान से देखा और मुस्कराता हुआ आगे चलने लगा।

  ‘हम सच कह रहे हैं लंगूर वाले भईया।’ रघु बोला।

  ‘आओ तो सही।’ मैंने कहा।

  रघु ने मुझे रास्ते में बताया था कि इस गांव में आम के कई बाग हैं जिनपर ढेरों आम लदे हैं। इन दिनों आम पक कर गिर रहे थे। एक बाग के किनारे पर हम खड़े हो गए। रघु ने पहले बाग का वहीं से मुआयना किया। फिर धीरे से पेड़ पर चढ़ गया। कुछ ही देर में उसने कई आम नीचे गिरा दिये। मेरे मुंह में पानी भर आया। गीता उन्हें इकट~ठा करने में जुट गयी। दो आम लंगूर को उठाकर दिये। तभी बाग वाले का लड़का डंडा लेकर वहां आ पहुंचा। रघु अभी पेड़ पर ही था।
  लड़का चिल्लाया,‘ठहरो, कौन आम चुरा रहा है?’

  आवाज सुनकर लंगूर वाला, मैं और गीता पास की झाड़ियों में छिप गये। रघु पेड़ पर चुपचाप चिपक गया। पर लंगूर उछलकर आम बीनने लगा। बाग वाले के लड़े ने लंगूर को भगाना चाहा। उसने लाठी दिखाई तो लंगूर ने गुस्से में अपनी पूंछ से उसकी लाठी छीन ली। वह लड़का वहां से डर कर भाग गया। फिर रघु ने कई पेड़ों के आम तोड़े। लंगूर वाले ने अपना थैला भर लिया। गीता ने अपने हाथों को बिल्कुल खाली नहीं रहने दिया। मैंने अपनी पैंट की जेबों में कई आम रख लिए।

  ‘आज का दिन मजेदार रहा।’ मैंने रघु से कहा।

  ‘आम के आम, गुठलियों के दाम।’ रघु मुस्कराया।

-harminder singh
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coming soon1
कैदी की डायरी......................
>>सादाब की मां............................ >>मेरी मां
बूढ़ी काकी कहती है
>>पल दो पल का जीवन.............>क्यों हम जीवन खो देते हैं?

घर से स्कूल
>>चाय में मक्खी............................>>भविष्य वाला साधु
>>वापस स्कूल में...........................>>सपने का भय
हमारे प्रेरणास्रोत हमारे बुजुर्ग

...ऐसे थे मुंशी जी

..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का

...अपने अंतिम दिनों में
तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

सम्मान के हकदार

नेत्र सिंह

रामकली जी

दादी गौरजां

कल्याणी-एक प्रेम कहानी मेरा स्कूल बुढ़ापा

....भाग-1....भाग-2
सीधी बात नो बकवास

बहुत कुछ बदल गया, पर बदले नहीं लोग

गुरु ऐसे ही होते हैं
युवती से शादी का हश्र भुगत रहा है वृद्ध

बुढ़ापे के आंसू

बूढ़ा शरीर हुआ है इंसान नहीं

बुढ़ापा छुटकारा चाहता है

खोई यादों को वापिस लाने की चाह

बातों बातों में रिश्ते-नाते बुढ़ापा
ऐसा क्या है जीवन में?

अनदेखा अनजाना सा

कुछ समय का अनुभव

ठिठुरन और मैं

राज पिछले जन्म का
क्योंकि तुम खुश हो तो मैं खुश हूं

कहानी की शुरुआत फिर होगी

करीब हैं, पर दूर हैं

पापा की प्यारी बेटी

छली जाती हैं बेटियां

मां ऐसी ही होती है
एक उम्मीद के साथ जीता हूं मैं

कुछ नमी अभी बाकी है

अपनेपन की तलाश

टूटी बिखरी यादें

आखिरी पलों की कहानी

बुढ़ापे का मर्म



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>>मेरी बहन नेत्रा

>>मैडम मौली
>>गर्मी की छुट्टियां

>>खराब समय

>>दुलारी मौसी

>>लंगूर वाला

>>गीता पड़ी बीमार
>>फंदे में बंदर

जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया

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वृद्धग्राम पर पहली पोस्ट में मा. होराम सिंह का जिक्र
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वृद्धों की सेवा में परमानंद -
डा. रमाशंकर
‘अरुण’


बुढ़ापे का दर्द

दुख भी है बुढ़ापे का

सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख

बुढ़ापे का सहारा

गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं
दो बूढ़ों का मिलन

दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

...............कहानी
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किशना- एक बूढ़े की कहानी
(भाग-1)..................(भाग-2)
ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम
hindustan vradhgram ब्लॉग वार्ता :
कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
-Ravish kumar
NDTV

इन काँपते हाथों को बस थाम लो!
-Ravindra Vyas WEBDUNIA.com