मैंने बूढ़ी काकी से कहा,‘‘मैं कहीं खो गया हूं। शायद कोई स्वप्न चल रहा है।’’
काकी बोली,‘‘जिंदगी एक सपना ही तो है। ऐसा सपना जो पता नहीं कब टूट जाए। तब डोर भी छूट जायेगी। वह जीवन की डोर कहलाती है।’’
‘‘तमाम जिंदगी हम कहीं खाये रहते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि खोने की वजहें इंसान होते हैं। पर कई बार अनजाने में यह सब हो जाता है। मस्तिष्क पर सारा खेल निर्भर करता है। हमारा दिमाग और हृदय खोने की वजह होते हैं। विचारों का अनगिनत ठहराव इंसान को दुविधा में डाल देता है। विचारों को एक कोने में इकट्टठा करने के बजाय हम उनसे जूझते हुए अधिक नजर आते हैं। यह एक आपसी लड़ाई की शक्ल ले लेता है। चुनौती आसान नहीं होती, पर उससे पार पाने के तरीके की तलाश स्वयं एक चुनौती से कम नहीं।’’
‘‘मस्तिष्क इतना कुछ घटने के बाद ठगा-सा महसूस करता है। इसे उसकी विवशता भी कहा जा सकता है। अत: वह खो जाता है, तो इंसान खुद को भूल जाता है। यह किसी कल्पना से कम नहीं होता, पर कल्पनाएं जब मजबूती से प्रकट हो जाती हैं तो वास्तविकता का टीला भी कठोरता प्राप्त कर लेता है जिसका धराशायी होना नामुमकिन-सा लगता है। यह भाग्य के कारण उपजा नहीं होता।’’
काकी आगे कहती है,‘‘खोई हुई चीजें अक्सर ढूंढी जाती हैं। ऐसा हमारे साथ भी होता है। इंसान खुद को खुद में खोजने की कोशिश करता है। लेकिन ऐसा करने वाले कम होते हैं क्योंकि भ्रम में जीने वालों की तादाद का कोई ठिकाना भी तो नहीं। भ्रम पैदा हालातों के कारण होता है। हालात इंसान स्वयं पैदा करता है। हुआ न अजीब- इंसान और हालात।’’
‘‘सपनों की नगरी बस जाने पर स्थिति बेहतर लगती है। ऐसा लगता है जैसे सारी खुशियां एक दामन में सिमट गयी हैं। सपनों के बिखरने पर जीवन किसी हादसे से कम नहीं रह जाता। उन वादियों में फूल खिलने बंद हो जाते हैं जहां कभी खुशबुंए महका करती थीं। डरावने सच की शक्ल देखकर अच्छे-अच्छे सहम जाते हैं। हमारे जैसे जर्जर काया वाले प्राणी टूटे हुए सपने के बाद की हकीकत का जायका ले रहे हैं। खोये हम भी थे कभी। शायद जिंदगी अब भी कुछ तलाश रही है। क्योंकि तलाश जारी है। बुढ़ापा गुमसुम है, थका-सा है, फिर भी तलाश जारी है इसी उम्मीद के साथ कि कहीं किसी कोने में फूटती कोपलें मिल जाएं।’’
-harminder singh
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