महिलाओं को लगता है कि टेलीविजन पर उनकी कहानी चल रही है। वे भावुक हो जाती हैं। जब ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ सीरियल दूरदर्शन पर आते थे, तो महिलायें सारा काम-काज छोड़कर उन्हें देखने बैठ जाती थीं। उनमें से कई कहतीं,‘देखो, बेचारा भरत कैसे दुखी हो रहा है? वह अपने भाई से कितना प्यार करता है।’ द्रोपदी का चीर-हरण देखकर उनकी आंखें भर आती थीं। कहतीं,‘कैसी बीत रही होगी इस अबला पर।’ राम-सीता को वन में जाता देख कहतीं,‘बुरा हो कानी समंथरा का।’ आज भी ‘विदाई’ देखकर महिलायें भावुक हो जाती हैं। यही कारण है कि ‘बालिका वधु’ और ‘विदाई’ महिलाओं में सबसे अधिकतर पोपुलर हो रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि इन दो धारावाहिकों को कई सम्मानों से नवाजा जा चुका है।
टेलीविजन ने महिलाओं को बहुत काम दिया है। वे अब घर पर बोर नहीं होती हैं। पिछले दिनों जब टेलीविजन के टेक्नीशियनों की हड़ताल हो गयी थी तो हमारे न्यूज चैनल कुछ यूं परेशान महिलाओं को दिखा रहे थे-‘ये हैं मिसेज कपूर जो पिछले कई दिनों से दुखी हैं। कारण है उनका मनपसंद धारावाहिक का न आना। अब वे पौधों को पानी देकर गुजारा चला रही हैं। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ना शुरु कर दिया है।’ तब सीरियल चिपकू टाइप महिलायें रिपीट टेलिकास्टों को देखकर अवसादग्रस्त सी हो गयी थीं।
महिलाओं के मोटापे का कारण भी उनके मनपसंद धारावाहिक हैं। दिनभर टीवी के आगे बैठकर घंटों टीवी देखना और उसके सामने बैठकर भोजन करना, फैट को बढ़ायेगा ही। ये वे ही महिलायें होती हैं जो बाद में कहती हैं,‘पता नहीं क्यों मैं इतनी मोटी हो गयी।’ सुबह टहलने वालों में मोटी महिलायें अधिक होती हैं।
सास-बहू की खटर-पटर और चालों को देखकर लगता है कि भारतीय महिलायें चाहें वे शहरी हों या कस्बाई छोटी-छोटी बातों को बड़ा बना देती हैं। धारावाहिकों से उत्साहित होकर बहुत सी महिलायें पार्लरों पर जाकर वैसा ही मेकअप कराती हैं जैसा कि उन्होंने उस सिरीयल में देखा था।
वर्षों पहले मैं ‘श्रीमान-श्रीमति’ देखा करता था। हालांकि वह सास-बहू टाइप धारावाहिक नहीं था। लेकिन उसमें एक महिला को अपने पति पर शक रहता था। वह मजेदार कामेडी सीरियल था। महिलाओं को शकी मिजाज दिखाना गलत नहीं है। उन्हें शक करने की अजीब आदत होती है। धारावाहिकों ने उनके शक को एक नयी परिभाषा दी है। उनके सामने इतने सारी स्थितियां प्रस्तुत कर दी हैं जब वे शक कर सकती हैं। यानि सीरियल शक करने की नई तरकीबों को भी सुझा रहे हैं।
पहनावे को भी बदल रहे हैं धारावाहिक। खासकर खलनायिकाओं के पहनने के तरीके उन्हें भा रहे हैं। बिंदी लगाने के नये स्टाइलों की कापी की जा रही है।
हमारे धारावाहिक निर्माता सही नब्ज को पहचानते हैं। इसलिये 80 प्रतिशत से ज्यादा धारावाहिक रोने-धोने वाले होते हैं। वीरानी परिवार के लगभग हर सदस्य के नाम उन्हें याद हो गये थे। तुलसी को भला कौन भूल सकता है? बहुओं और सासों के झगड़ों, नखरों, स्टाइलों को देखकर लगता है कि टेलीविजन की दुनिया में पुरुषों को कम स्पेस दिया जा रहा है। निर्माता जानते हैं कि मार्केट में महिलाओं और बच्चों के संबंधित कोई चीज उतार दो, फिर देखो कैसे उसकी मांग बढ़ती है।
-Harminder Singh
Sunday, March 15, 2009
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हमारे प्रेरणास्रोत | हमारे बुजुर्ग |
...ऐसे थे मुंशी जी ..शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय काम था मुंशी जी का ...अपने अंतिम दिनों में | तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है? सम्मान के हकदार नेत्र सिंह रामकली जी दादी गौरजां |
>>मेरी बहन नेत्रा >>मैडम मौली | >>गर्मी की छुट्टियां >>खराब समय >>दुलारी मौसी >>लंगूर वाला >>गीता पड़ी बीमार | >>फंदे में बंदर जानवर कितना भी चालाक क्यों न हो, इंसान उसे काबू में कर ही लेता है। रघु ने स्कूल से कहीं एक रस्सी तलाश कर ली. उसने रस्सी का एक फंदा बना लिया |
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सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य गिरीराज सिद्धू ने व्यक्त किया अपना दुख बुढ़ापे का सहारा गरीबदास उन्हीं की श्रेणी में आते हैं जिन्हें अपने पराये कर देते हैं और थकी हड्डियों को सहारा देने के बजाय उल्टे उनसे सहारे की उम्मीद करते हैं |
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अपने याद आते हैं राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से |
दैनिक हिन्दुस्तान और वेबदुनिया में वृद्धग्राम |
ब्लॉग वार्ता : कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे -Ravish kumar NDTV | इन काँपते हाथों को बस थाम लो! -Ravindra Vyas WEBDUNIA.com |
निर्माता जानते हैं कि मार्केट में महिलाओं और बच्चों के संबंधित कोई चीज उतार दो, फिर देखो कैसे उसकी मांग बढ़ती है ... यह तो महिलाओं और बच्चों को सोचनी चाहिए न ।
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