बूढ़ी काकी कहती है-‘‘बुढ़ापा तो आना ही है। सच का सामना करने से भय कैसा? क्यों हम घबराते हैं आने वाले समय से जो सच्चाई है जिसे झुठलाना नामुमकिन है।’’.

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Monday, June 16, 2008

अपने याद आते हैं

राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से। पिता होने की जहां पहले खुशी थी, बेटों के व्यवहार से दुख भी हुआ, फिर भी अपने तो अपने होते हैं। यही सोचकर कि उनसे अब बात नहीं करेंगे, दूर चले आये। बच्चों को फिर भी भूल नहीं पाया यह पिता।


‘‘अपने सुनते नहीं, पराये अपने होते नहीं। यह दौर का खेल है। वक्त बीत जायेगा। मगर अब बीतने से क्या फायदा। कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं। यह सब उसका किया धरा है। ऊपर वाला पता नहीं क्या-क्या करता रहता है?’’

-राजाराम जी, उम्र 80 साल


‘‘रह रहकर याद आती है उनकी। वे मुझे याद करते होंगे या नहीं, लेकिन मैं उन्हें नहीं भूल पाया हूं। दुखी होकर घर से निकला था मैं। निकला क्या हालात ही ऐसे बना दिये गये थे कि वहां रहना मेरे बस से बाहर था। अपनी औलाद के साथ कुछ पल बिताना चाहता था। वह समय मेरा छिन गया।’’ राजाराम भावुक हो जाते हैं।

लेकिन आगे कहते हैं,‘‘मैंने बुरा वक्त देखा है। 80 साल की उम्र को मैं कम नहीं समझता, बहुत ज्यादा बूढ़ा हो गया हूं मैं। बच्चों को बढ़ा होते देखा है मैंने। उम्मीदें बहुत थीं। सब चकनाचूर हो गयीं।’’ राजाराम का चेहरा थोड़ा गुस्सा भी जाहिर करता है और मन की टीस भी।

‘‘अपने सुनते नहीं, पराये अपने होते नहीं। यह दौर का खेल है। वक्त बीत जायेगा। मगर अब बीतने से क्या फायदा। कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं। यह सब उसका किया धरा है। ऊपर वाला पता नहीं क्या-क्या करता रहता है?’’

राजाराम अपने घर में बेइज्जत किये गये। उन्हें ताने दिये जाते थे, रोज-रोज के तानों से वे घुटन महसूस कर रहे थे। पेंशन मिलती है, गुजारा ठीक-ठीक चल रहा है। पत्नि की मौत के बाद टूट गये थे, अब जाकर थोड़े संभले हैं। पर यह भी कोई संभलना है।

रमेश उनका नौकर है। वह बचपन से उनके साथ रहा है। जब वे घर से निकले तो वह भी उनके साथ आ गया। बड़ा ईमानदार और नेक है। आसपड़ोस के लोग भी उसकी अच्छाई के बारे में बता देंगे। वह उनकी भी कुछ न कुछ मदद कर देता है।

राजाराम जी कहते हैं,‘‘कितनी जिंदगी बची है, पता नहीं। वैसे मन नहीं मानता। मरने से पहले एक बार बच्चों को जरुर देखूंगा।’’

थोड़ा रुक जाते हैं। फिर कहते हैं,‘‘अब क्या करें, बाप का मन कितना होता है। औलाद के साथ रहने को दिल कहता है। अपने बच्चे भूले नहीं जाते चाहें वे क्यों न हमें भूल जायें और कितने ही बुरे क्यों न हों।’’ भावुक हो गये राजाराम जी।

उन्होंने गर्दन झुकाकर अपने कमजोर हाथों से आंखों को मसला। उनकी उंगलियां कुछ गीली थीं।

-हरमिन्दर सिंह द्वारा

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दोनों बूढ़े हैं, फिर भी हौंसला रखते हैं आगे जीने का। वे एक सुर में कहते हैं,‘‘अगला लोक किसने देखा। जीना तो यहां ही है।’’
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इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
प्रताप महेन्द्र सिंह कहते हैं- ''लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा. यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई नहीं।'' एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-‘‘इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल, जग में रह जायेंगे, प्यारे तेरे बोल।’’

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किशना- एक बूढ़े की कहानी
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ये भी कोई जिंदगी है
बृजघाट के घाट पर अनेकों साधु-संतों के आश्रम हैं। यहां बहुत से बूढ़े आपको किसी आस में बैठे मिल जायेंगे। इनकी आंखें थकी हुयी हैं, येजर्जर काया वाले हैं, किसी की प्रेरणा नहीं बने, हां, इन्हें लोग दया दृष्टि से जरुर देखते हैं

अपने याद आते हैं
राजाराम जी घर से दूर रह रहे हैं। उन्होंने कई साल पहले घर को अलविदा कह दिया है। लेकिन अपनों की दूरी अब कहीं न कहीं परेशान करती है, बिल्कुल भीतर से

कविता.../....हरमिन्दर सिंह .
कभी मोम पिघला था यहां
इस बहाने खुद से बातें हो जायेंगी
विदाई बड़ी दुखदायी
आखिर कितना भीगता हूं मैं
प्यास अभी मिटी नहीं
पता नहीं क्यों?
बेहाल बागवां

यही बुढापा है, सच्चाई है
विदा, अलविदा!
अब कहां गई?
अंतिम पल
खत्म जहां किनारा है
तन्हाई के प्याले
ये मेरी दुनिया है
वहां भी अकेली है वह
जन्म हुआ शिशु का
गरमी
जीवन और मरण
कोई दुखी न हो
यूं ही चलते-चलते
मैं दीवाली देखना चाहता हूं
दीवाली पर दिवाला
जा रहा हूं मैं, वापस न आने के लिए
बुढ़ापा सामने खड़ा पूछ रहा
मगर चुप हूं मैं
क्षोभ
बारिश को करीब से देखा मैंने
बुढ़ापा सामने खड़ा है, अपना लो
मन की पीड़ा
काली छाया

तब जन्म गीत का होता है -रेखा सिंह
भगवान मेरे, क्या जमाना आया है -शुभांगी
वृद्ध इंसान हूं मैं-शुभांगी
मां ऐसी ही होती है -ज्ञानेंद्र सिंह
खामोशी-लाचारी-ज्ञानेंद्र सिंह
उम्र के पड़ाव -बलराम गुर्जर
मैं गरीबों को सलाम करता हूं -फ़ुरखान शाह
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कहीं आप बूढ़े तो नहीं हो रहे
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